महाभारतम्-10-सौप्तिकपर्व-013

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महाभारतम्-10-सौप्तिकपर्व-013
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कृष्णादिभिर्भागीरथीतीरे व्याससमीपसमासीनद्रौणिदर्शनम्।। 1 ।। तद्दर्शिना द्रौणिना अपाण्डवहेतोर्ब्रह्मशिरोस्त्रप्रयोगः।। 2 ।।

वैशम्पायन उवाच। 10-13-1x
एवमुक्त्वा कुरुश्रेष्ठं सर्वयादवनन्दनः।
सर्वायुधवरोपेतमारुरोह रथोत्तमम्।।
10-13-1a
10-13-1b
युक्तं परमकाम्भोजैस्तुरगैर्हेममालिभिः।
उदितादित्यसङ्काशं सर्वरत्नविभूषितम्।।
10-13-2a
10-13-2b
दक्षिणे ह्यावहच्छैब्यः सुग्रीवः सव्यतो धुरम्।
णर्ष्णिवाहौ तु तस्यास्तां मेघपुष्पबलाहकौ।।
10-13-3a
10-13-3b
विश्वकर्मकृता दिव्या रत्नधातुविभूषिता।
उच्छ्रिता च रथे तस्मिन्ध्वजयष्टिरदृश्यत।।
10-13-4a
10-13-4b
वैनतेयः स्थितस्तस्यां प्रभामण्डलरश्मिवान्।।
तस्य सत्यवतः केतुर्भुजगारिरदृश्यत।।
10-13-5a
10-13-5b
अथारोहद्धृषीकेशः केतुः सर्वधनुष्मताम्।
अर्जुनः स च धर्मात्मा कुरुराजो युधिष्ठिरः।।
10-13-6a
10-13-6b
अशोभेतां महात्मानौ दाशार्हमभितः स्थितौ।
रथस्थं शार्ङ्गधन्वानमश्विनाविव वासवम्।।
10-13-7a
10-13-7b
उभावारोप्य दाशार्हः स्यन्दनं लोकपूजितम्।
प्रतोदेन जवोपेतान्परमाश्वानचोदयत्।।
10-13-8a
10-13-8b
ते हयाः सहसोत्पेतुर्गृहीत्वा स्यन्दनोत्तमम्।
आस्थितं पाण्डवेयाभ्यां यदूनामृषभेण च।।
10-13-9a
10-13-9b
वहतां शार्ङ्गधन्वानमश्वानां शीघ्रगामिनाम्।
प्रादुरासीन्महाञ्शब्दः पक्षिणां पततामिव।।
10-13-10a
10-13-10b
ते समर्था महाबाहुं क्षणेन भरतर्षभ।
भीमसेनं महेष्वासमनुसस्रुः सुवेगिताः।।
10-13-11a
10-13-11b
क्रोधदीप्तं तु कौन्तेयं द्विषदर्थे समुद्यतम्।
नाशक्नुवन्वारयितुं समेत्यापि महारथाः।।
10-13-12a
10-13-12b
स तेषामग्रतः शूरः श्रीमतां दृढधन्विनाम्।
ययौ भागीरथीतीरं हरिभिर्भृशवेगितैः।
यत्र स श्रूयते द्रौणिः पुत्रहन्ता दुरात्मवान्।।
10-13-13a
10-13-13b
10-13-13c
स ददर्श महात्मानमुदकान्ते यशस्विनम्।
कृष्णद्वैपायनं व्यासमासीनमृषिभिः सह।।
10-13-14a
10-13-14b
तं चैव क्रूरकर्माणं घृताक्तं कुशचीरिणम्।
रजसा ध्वस्तमासीनं ददर्श द्रौणिमन्तिके।।
10-13-15a
10-13-15b
तमभ्यधावत्कौन्तेयः प्रगृह्य सशरं धनुः।
भीमसेनो महाबाहुस्तिष्ठतिष्ठेति चाब्रवीत्।।
10-13-16a
10-13-16b
तं दृष्ट्वा भीमकर्माणं प्रगृहीतशरासनम्।
भ्रातरौ पृष्ठतश्चास्य जनार्दनरथे स्थितौ।
व्यथितात्माऽभवद्द्रौणिः प्राप्तं चेदममन्यत।।
10-13-17a
10-13-17b
10-13-17c
स तद्दिव्यमदीनात्मा परमास्‌रमचिन्तयत्।
जग्राह च शरैषीकां द्रौणिः सव्येन पाणिना।।
10-13-18a
10-13-18b
स तामापदमासाद्य दिव्यमस्त्रमुदैरयत्।
अमृष्यमाणस्ताञ्छूरान्दिव्यायुधधरान्स्थितान्।
अपाण्डवायेति रुषा वाचमुत्सृज्य दारुणम्।।
10-13-19a
10-13-19b
10-13-19c
इत्युक्त्वा राजशार्दूल द्रोणपुत्रः प्रतापवान्।
सर्वलोकप्रमोहार्थं तदस्‌रं प्रमुमोच ह।।
10-13-20a
10-13-20b
ततस्तस्यामिषीकायां पावकः समजायत।
प्रधक्ष्यन्निव लोकांस्त्रीन्कालान्कयमोपमः।।
10-13-21a
10-13-21b
।। इति श्रीमन्महाभारते सौप्तिकपर्वणि
ऐषीकपर्वणि त्रयोधशोऽध्यायः।। 13 ।।

[सम्पाद्यताम्]

10-13-19 अपाण्डवाय पाण्डवानामभावाय।। 10-13-13 त्रयोदशोऽध्यायः।।

सौप्तिकपर्व-012 पुटाग्रे अल्लिखितम्। सौप्तिकपर्व-014