महाभारतम्-10-सौप्तिकपर्व-011
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मकुलेन युधिष्ठिरसमोषं प्रति द्रौपथानयनम्।। 1 ।। द्रौपद्या द्रौणिमस्तकमणिहरणचोदितेन भीमेन नकुलसारथिना रथेन द्रौणिवभ्राय प्रस्थानम्।। 2 ।।
वैशम्पायन उवाच। | 10-11-1x |
स दृष्ट्वा निहतान्सङ्ख्ये पुत्रान्पात्रौन्सखींस्तथा। महादुःखपरीतात्मा बभूव जनमेजय।। | 10-11-1a 10-11-1b |
ततस्तस्य महाञ्शोकः प्रादुरासीन्महात्मनः। स्मरतः पुत्रपौत्रांस्तान्भ्रातॄन्सुहृद एव च।। | 10-11-2a 10-11-2b |
तमश्रुपरिपूर्णाक्षं वेपमानमचेतसम्। सुहृदो भृशसंविग्नाः सांत्वयाञ्चक्रिरे तदा।। | 10-11-3a 10-11-3b |
`कृत्वा तु विधिवत्तेषां पुत्राणाममितौजसाम्। प्रेतकार्याणि सर्वेषां बभूव भृशदुःखितः'।। | 10-11-4a 10-11-4b |
तस्मिन्मुहूर्ते जवनैर्वाजिभिर्हेममालिभिः। नकुलः कृष्णया सार्धमुपायात्परमार्तया।। | 10-11-5a 10-11-5b |
उपप्लाव्यं गता सा तु श्रुत्वा सुमहदप्रियम्। तदा विनाशं सर्वेषां पुत्राणां व्यथितेन्द्रिया।। | 10-11-6a 10-11-6b |
कम्पमानेव कदली वातेनाभिसमीरिता। कृष्णा राजानमासाद्य शोकार्ता न्यपतद्भुवि।। | 10-11-7a 10-11-7b |
न बभौ वदनं तस्या रुदन्त्याः शोककर्शितम्। फुल्लपद्मपलाशाक्ष्या मेघावृत इवोडुराट्।। | 10-11-8a 10-11-8b |
ततस्तां पतितां दृष्ट्वा संरम्भी सत्यविक्रमः। वाहुभ्यां परिजग्राह समुत्पत्य वृकोदरः।। | 10-11-9a 10-11-9b |
सा समाश्वासिता तेन भीमसेनेन भामिनी। रुदती पाण्डवज्येष्ठमिदं वचनमब्रवीत्।। | 10-11-10a 10-11-10b |
दिष्ट्या राजन्नवाप्येमामखिलां भोक्ष्यसे महीम्। आत्मजान्क्षत्रधर्मेण सम्प्रदाय यमाय वै।। | 10-11-11a 10-11-11b |
दिष्ट्या सर्वास्त्रकुशलं मत्तमातङ्गामिनम्। अवाप्य पृथिवीं कृत्स्नां सौभद्रं न स्मरिष्यसि।। | 10-11-12a 10-11-12b |
आत्मजान्क्षत्रधर्मेण श्रुत्वा शूरान्निपातितान्। स्थितो राज्ये मया सार्धं विहरन्न स्मरिष्यसि।। | 10-11-13a 10-11-13b |
प्रसुप्तानां वधं श्रुत्वा द्रौणिना पापकर्मणा। शोको मां दहते गाढो हुताशन इवाश्रयम्।। | 10-11-14a 10-11-14b |
तस्य पापकृतो द्रौणेर्न चेदद्य दुरात्मनः। हियते सानुबन्धस्य युधि विक्रम्य जीवितम्।। | 10-11-15a 10-11-15b |
इहैव प्रायमासिष्ये तन्निबोधत पाण्डवाः। न चेत्फलमवाप्नोति द्रौणिः पापस्य कर्मणः।। | 10-11-16a 10-11-16b |
एवमक्त्वा ततः कृष्णा पाण्डवं प्रत्युपाविशत्। युधिष्ठिरं याज्ञसेनी धर्मराजं यशस्विनी।। | 10-11-17a 10-11-17b |
दृष्ट्वोपविष्टां राजा तु पाण्डवो महिषीं प्रियाम्। प्रत्युवाच स धर्मात्मा द्रौपदीं चारुदर्शनाम्।। | 10-11-18a 10-11-18b |
क्षत्रधर्मेण धर्मज्ञे प्राप्तास्ते निधनं शुभे। पुत्रास्ते भ्रातरश्चैव तान्न शोचितुमर्हसि।। | 10-11-19a 10-11-19b |
स कल्याणि वनं दुर्गं दूरं द्रौणिरितो गतः। तस्य त्वं पातनं सङ्ख्ये कथं ज्ञास्यसि शोभने।। | 10-11-20a 10-11-20b |
द्रौपद्युवाच। | 10-11-21x |
द्रोणपुत्रस्य सहजो मणिः शिरसि मे श्रुतः। निहत्य सङ्ख्ये तं पापं पश्येयं मणिमाहृतम्। द्रौणेः शिरस उत्कृत्य जीवेयमिति मे मतिः।। | 10-11-21a 10-11-21b 10-11-21c |
इत्युक्त्वा पाण्डवं कृष्णा राजानं चारुदर्शना। भीमसेनकरे स्पृष्ट्वा कुपिता वाक्यमब्रवीत्।। | 10-11-22a 10-11-22b |
त्रातुमर्हसि मां भीम क्षत्रधर्ममनुस्मरन्। जहि तं पापकर्माणं शम्बरं सघवानिव।। | 10-11-23a 10-11-23b |
न हि ते विक्रमे तुल्यः पुमानस्तीह कश्चन। श्रुतं तत्सर्वलोकेषु परमव्यसने तथा।। | 10-11-24a 10-11-24b |
द्वीपोऽभूस्त्वं हि पार्थानां नगरे वारणावते। हिडिम्बदर्शने चैव तथां त्वमभवो गतिः।। | 10-11-25a 10-11-25b |
तथा विराटनगरे कीचकेन भृशार्दिताम्। मामप्युद्वृतवान्कृच्छ्रात्पौलोमीं मघवानिव।। | 10-11-26a 10-11-26b |
यथैतान्यकृथाः पार्थ महाकर्माणि वै पुरा। तथा द्रौणिममित्रघ्न विनिहत्य सुखी भव।। | 10-11-27a 10-11-27b |
वैशम्पायन उवाच। | 10-11-28x |
तस्या बहुविधं दुःखं निशम्य परिदेवितम्। न चामर्षत कौन्तेयो भीमसेनो महाबलः।। | 10-11-28a 10-11-28b |
स काञ्चनविचित्राङ्गमारुरोह महारथम्। आदाय रुचिरं चित्रं समार्गणगुणं धनुः।। | 10-11-29a 10-11-29b |
नकुलं सारथिं कृत्वा द्रोणपुत्रवधे धृतः। विस्फार्य सशरं चापं तूर्णमश्वानचोदयत्।। | 10-11-30a 10-11-30b |
ते हयाः पुरुषव्याघ्र दीप्यमानाः स्वतेजसा। वहन्तः सहसा जग्मुर्हरयः शीघ्रगामिनः।। | 10-11-31a 10-11-31b |
शिबिरात्स्वाद्गृहीत्वा स रथस्य पदमच्युतः। `द्रोणपुत्रगतेनाशु ययौ मार्गेण भारत'।। | 10-11-32a 10-11-32b |
।। इति श्रीमन्महाभारते सौप्तिकपर्वणि ऐषीकपर्वणि एकादशोऽध्यायः।। 11 ।। |
10-11-11 दिष्ठ्येति। पुत्रनाशापेक्षया राज्यप्राप्तिसुखं तव महदित्यधिक्षेपः।। 10-11-11 एकादशोऽध्यायः।।
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