महाभारतम्-10-सौप्तिकपर्व-005
दिखावट
← सौप्तिकपर्व-004 | महाभारतम् दशमपर्व महाभारतम्-10-सौप्तिकपर्व-005 वेदव्यासः |
सौप्तिकपर्व-006 → |
कृपेण प्रसुप्तमारणस्याधार्मिकत्वकथनेन प्रतिषेधनेऽपि पितृवधामर्षिणा द्रौणिना जिघांसया रिपुशिविरद्वारगमनम्।। 1 ।। कृपकृतवर्मश्यामपि सौहार्दात्तदनुगमनम्।। 2 ।।
कृप उवाच। | 10-5-1x |
शुश्रूषुरपि दुर्मेधाः पुरुषोऽनियतेन्द्रियः। नालं वेदयितुं कृत्स्नौ धर्मार्थाविति मे मतिः।। | 10-5-1a 10-5-1b |
तथैव तावन्मेधावी विनयं यो न शिक्षते। न च किञ्चन जानाति सोऽपि धर्मार्थनिश्चयम्।। | 10-5-2a 10-5-2b |
[चिरं ह्यपि जडः शूरः पण्डितं पर्युपास्य ह। न स धर्मान्विजानाति दर्वी सूपरसानिव।। | 10-5-3a 10-5-3b |
मुहूर्तमपि तं प्राज्ञः पण्डितं पर्युपास्य हि। क्षिप्रं धर्मान्विजानाति जिह्वा सूपरसानिव।। | 10-5-4a 10-5-4b |
शुश्रूषुस्त्वेव मेधावी पुरुषो नियतेन्द्रियः। जानीयादागमान्सर्वान्ग्राह्यं च न विरोधयेत्।। | 10-5-5a 10-5-5b |
अनयस्त्ववमानी यो दुरात्मा पापपूरुषः। दिष्टमुत्सृज्य कल्याणं करोति बहुपातकम्।। | 10-5-6a 10-5-6b |
नाथवन्तं तु सुहृदः प्रतिषेधन्ति पातकात्। निवर्तते तु लक्ष्मीवान्नालक्ष्मीवान्निवर्तते।। | 10-5-7a 10-5-7b |
यथा ह्युच्चावचैर्वाक्यैः क्षिप्तचित्तो नियम्यते। तथैव सुहृदा शक्यो नशक्यस्त्ववसीदति।। | 10-5-8a 10-5-8b |
तथैव सुहृदोऽप्राज्ञान्कुर्वाणान्कर्म पापकम्। प्राज्ञाः सम्प्रतिषेधन्ति यथाशक्ति पुनःपुनः।। | 10-5-9a 10-5-9b |
स कल्याणे मनः कृत्वा नियम्यात्मानमात्मना। कुरु मे वचनं तात येन पश्चान्न तप्स्यसे।। | 10-5-10a 10-5-10b |
न वधः पूज्यते लोके सुप्तानामिह धर्मतः। तथैव न्यस्तशस्त्राणां विमुक्तरथवाजिनाम्।। | 10-5-11a 10-5-11b |
ये व ब्रूयुस्तवास्मीति ये च स्युः शरणागताः। विमुक्तमूर्धजा ये च ये चापि हतवाहनाः।। | 10-5-12a 10-5-12b |
अद्य स्वप्स्यन्ति पाञ्चाला विमुक्तकवचा विभो। विश्वस्ता रजनीं सर्वे प्रेता इव विचेतसः।। | 10-5-13a 10-5-13b |
यस्तेषां तदवस्थानां द्रुह्येत पुरुषोऽनृजुः। व्यक्तं स नरके मज्जेदगाधे विपुलेऽप्लुवे।। | 10-5-14a 10-5-14b |
सर्वास्त्रविदुषां लोके श्रेष्ठस्त्वमसि विश्रुतः। न च ते जातु लोकेऽस्मिन्सुसूक्ष्ममपि किल्बिषम्।। | 10-5-15a 10-5-15b |
त्वं पुनः सूर्यसङ्काशः श्वोभूत उदिते रवौ। प्रकाशे सर्वभूतानां विजेता युधि शात्रवान्।। | 10-5-16a 10-5-16b |
असम्भावितरूपं हि त्वयि कर्म विगर्हितम्। शुक्ले रक्तमिव न्यस्तं भवेदिति मतिर्मम।। | 10-5-17a 10-5-17b |
अश्वत्थामोवाच। | 10-5-18x |
एवमेव यथाऽऽत्थ त्वमनुशाससि मातुल। तैस्तु पूर्वमयं सेतुः समन्ताद्विह्वलीकृतः।। | 10-5-18a 10-5-18b |
प्रत्यक्षं भूमिपालानां भवतां चापि सन्निधौ। न्यस्तशस्त्रो मम पिता धृष्टद्युम्नेन पातितः।। | 10-5-19a 10-5-19b |
कर्णश्च पतिते चक्रे उत्थास्यन्रथिनां वरः। उत्तमे व्यसने मग्नो हतो गाण्डीवधन्वना।। | 10-5-20a 10-5-20b |
तथा शान्तनवो भीष्मो न्यस्तशस्त्रो निरायुधः। शिखण्डिनं पुरस्कृत्य हतो गाण्डीवधन्वना।। | 10-5-21a 10-5-21b |
भूरिश्रवा महेष्वासस्तथा प्रायगतो रणे। क्रोशतां बूमिपालानां युयुधानेन पातितः।। | 10-5-22a 10-5-22b |
दुर्योधनश्च भीमेन समेत्य गदया मृधे। पश्यतां भूमिपालानामधर्मेण निपातितः।। | 10-5-23a 10-5-23b |
एकाकी बहुभिस्तत्र परिवार्य महारथैः। अधर्मेण नरव्याघ्रो भीमसेनेन पातितः।। | 10-5-24a 10-5-24b |
विलापो भग्नसक्थस्य यो मे राज्ञः परिश्रुतः। वादिकानां कथयतां स मे मर्माणि कृन्तति।। | 10-5-25a 10-5-25b |
एवं चाधार्मिकाः पापाः पाञ्चाला भिन्नसतवः। तानेवं भिन्नमर्यादान्किं भवान्न विगर्हति।। | 10-5-26a 10-5-26b |
पितृहन्तॄनहं हत्वा पाञ्चालान्निशि सौप्तिके। कामं कीटः पतङ्गो वा जन्म प्राप्य भवामि वै।। | 10-5-27a 10-5-27b |
त्वरे चाहमनेनाद्य यदिदं मे चिकीर्षितम्। तस्य मे त्वरमाणस्य कुतो निद्रा कुतः सुखम्।। | 10-5-28a 10-5-28b |
न स जातः पुमाँल्लोके कश्चिन्न स भविष्यति। यो मे व्यावर्तयेदेतां वधे तेषां कृतां मतिम्।। | 10-5-29a 10-5-29b |
सञ्जय उवाच। | 10-5-30x |
एवमुक्त्वा महाराज द्रोणपुत्रः प्रतापवान्। एकान्ते योजयित्वाऽश्वान्प्रायादभिमुखः परान्।। | 10-5-30a 10-5-30b |
तमब्रूतां महात्मानौ भोजशारद्वतावुभौ। किमयं स्यन्दनो युक्तः किं च कार्यं चिकीर्षितम्।। | 10-5-31a 10-5-31b |
एकसामर्थप्रयातौ स्वस्त्वया सह नरर्षभ। समदुःखसुखौ चापि तस्माच्छंसितुमर्हसि।। | 10-5-32a 10-5-32b |
अश्वत्थामा तुं सङ्क्रुद्धः पितुर्वधमनुस्मरन्। ताभ्यां तथ्यं तथाऽऽचख्यौ यदस्यात्मचिकीर्षितम्।। | 10-5-33a 10-5-33b |
हत्वा शतसहस्राणि योधानां निशितैः शरैः। न्यस्तशस्त्रो मम पिता धृष्टद्युम्नेन पातितः।। | 10-5-34a 10-5-34b |
तं तथैव वधिष्यामि न्यस्तवर्माणमद्य वै। पुत्रं पाञ्चालराजस्य पापं पापेन कर्मणा।। | 10-5-35a 10-5-35b |
तथा विनिहतः पापः पाञ्चाल्यः पशुवन्मया। शस्त्रेण विजिताँल्लोकान्नाप्नुयादिति मे मतिः।। | 10-5-36a 10-5-36b |
क्षिप्रं सन्नद्वकवचौ सखङ्गावात्तकार्मुकौ। मामेवाद्य प्रतीक्षेतां रथवर्यौ परन्तपौ।। | 10-5-37a 10-5-37b |
इत्युक्त्वा रथमास्थाय प्रायादभिमुखः परान्। तमन्वगात्कृपो राजन्कृतवर्मा च सात्वतः।। | 10-5-38a 10-5-38b |
ते प्रयाता व्यरोचन्त परानभिमुखास्त्रयः। हूयमाना यथा यज्ञे समिद्धा हव्यवाहनाः।। | 10-5-39a 10-5-39b |
ययुश्च शिबिरं तेषां सम्प्रसुप्तजनं विभो। द्वारदेशमनुप्राप्य द्रौणिस्तस्थौ महारथः।। | 10-5-40a 10-5-40b |
।। इति श्रीमन्महाभारते सौप्तिकपर्वणि पञ्चमोऽध्यायः।। 5 ।। |
10-5-1 अशुश्रूषूः सुदुर्मेधा इति ङ.पाठः। दुर्मेधाः मूढः। अनियतेतिच्छेदः।। 10-5-6 अनेय इति झ.पाठः। तत्र अनेयः सन्मार्गं नेतुमशक्यः। दिष्टमुपदिष्टम्।। 10-5-8 उच्चावचैः सर्गैरिति क.छ.पाठः।। 10-5-14 अप्लवे इति च्छेदः।। 10-5-23 अधर्मेण नाभेरधस्तात्प्रहारेण।। 10-5-32 नावां शङ्कितुमर्हसीति झ.पाठः।। 10-5-36 शस्त्राग्निवर्जिताँल्लोकान्प्राप्रुयादिति मे मतिः इति ङ.पाठः।। 10-5-5 पञ्चमोऽध्यायः।।
सौप्तिकपर्व-004 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | सौप्तिकपर्व-006 |