महाभारतम्-10-सौप्तिकपर्व-002
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कृपेण द्रौणिम्प्रति कर्तव्योपदेशः।। 1 ।।
कृप उवाच। | 10-2-1x |
श्रुतं ते वचनं सर्वं हेतुयुक्तं मया विभो। ममापि तु वचः किञ्चिच्छृणुष्वाद्य महाभुज।। | 10-2-1a 10-2-1b |
आबद्धा मानुषाः सर्वे निबद्धाः कर्मणोर्द्वयोः। दैवे पुरुषकारे च परं ताभ्यां न विद्यते।। | 10-2-2a 10-2-2b |
न हि दैवेन सिध्यन्ति कार्याण्येकेन सत्तम। न चापि कर्मणैकेन द्वाभ्यां सिद्धिस्तु योगतः।। | 10-2-3a 10-2-3b |
ताभ्यामुभाभ्यां सर्वार्था निबद्धा अधमोत्तमाः। प्रवृत्ताश्चैव दृश्यन्ते निवृत्ताश्चैव सर्वशः।। | 10-2-4a 10-2-4b |
पर्जन्यः पर्वते वर्षन्किन्नु साधयते फलम्। कृष्टे क्षेत्रे तथा वर्षन्किं न साधयते फलम्।। | 10-2-5a 10-2-5b |
उत्थानं चापि दैवस्य ह्यनुत्थानं च दैवतम्। व्यर्थं भवति सर्वत्र पूर्वस्तत्र विनिश्चयः।। | 10-2-6a 10-2-6b |
सुवृष्टे च यथा देवे सम्यक् क्षेत्रे च कर्षिते। बीजं महागुणं भूयात्तथा सिद्धिर्हि मानुषी।। | 10-2-7a 10-2-7b |
तयोर्दैवं तु दुश्चिन्त्यं स्ववशेनैव वर्तते। प्राज्ञाः पुरुषकारे तु वर्तन्ते देवमास्थिताः।। | 10-2-8a 10-2-8b |
ताभ्यां सर्वे हि कार्यार्था मनुष्याणां नरर्षभ। विचेष्टन्तः स्म दृश्यन्ते निवृत्तास्तु तथैव च।। | 10-2-9a 10-2-9b |
कृतः पुरुषकारश्च सोऽपि दैवेन सिध्यति। तथास्य कर्मणः कर्तुरभिनिर्वर्तते फलम्।। | 10-2-10a 10-2-10b |
उत्थानं च मनुष्याणां दक्षाणां दैववर्जितम्। अभलं दृश्यते लोके सम्यगप्युपपादितम्।। | 10-2-11a 10-2-11b |
तत्रालसा मनुष्याणां ये भवन्त्यमनस्विनः। उत्थानं ते विगर्हन्ति प्राज्ञानां तन्न रोचते।। | 10-2-12a 10-2-12b |
प्रायशो हि कृतं कर्म नाफलं दृश्यते भुवि। अकृत्वा च पुनर्दुःखं कर्म पश्येन्महाफलम्।। | 10-2-13a 10-2-13b |
चष्टामकुर्वंल्लभते यदि किञ्चिद्यदृच्छया। यो वा न लभते कृत्वा दुर्दर्शौ तावुभावपि।। | 10-2-14a 10-2-14b |
शक्नोति जीवितुं दक्षो नालसः सुखमेधते। दृश्यन्ते जीवलोकेऽस्मिन्दक्षाः प्रायो हितैषिणः।। | 10-2-15a 10-2-15b |
यदि दक्षः समारम्भात्कर्मणो नाश्नुते फलम्। नास्य वाच्यं भवेत्किञ्चिल्लब्धव्यं वाऽधिगच्छति।। | 10-2-16a 10-2-16b |
नाकृत्वा कर्म लोके हि फलं विन्दति कर्हिचित्। स तु वक्तव्यतां याति द्वेष्यो भवति भूयशः।। | 10-2-17a 10-2-17b |
एवमेतदनादृत्य वर्तते यस्त्वतोऽन्यथा। स करोत्यात्मनोऽनर्थानेष बुद्धिमतां नयः।। | 10-2-18a 10-2-18b |
हीनं पुरुषकारेण यदि दैवेन वा पुनः। कारणाभ्यामथैताभ्यामुत्थानमफलं भवेत्।। | 10-2-19a 10-2-19b |
हीनं पुरुषकारेण कर्म त्विह न सिध्यति।। | 10-2-20a |
दैवतेभ्यो नमस्कृत्य यस्त्वर्थान्सम्यगीहते। दक्षो दाक्षिण्यसम्पन्नो न स मोघैर्विहन्यते।। | 10-2-21a 10-2-21b |
सम्यगीहा पुनरियं या बृद्धानुपसेवते। आपृच्छति च यच्छ्रेयः करोति च हितं वचः।। | 10-2-22a 10-2-22b |
उत्थायोत्थाय हि सदा प्रष्टव्या वृद्धसम्मताः। ते स्म योगे परं मूलं तन्मूला सिद्धिरुच्यते।। | 10-2-23a 10-2-23b |
वृद्धानां वचनं श्रुत्वा योऽभ्युत्थानं प्रयोजयेत्। उत्थानस्य फलं सम्यक्तदा स लभतेऽचिरात्।। | 10-2-24a 10-2-24b |
रागात्क्रोधाद्भयाल्लोभाद्योऽर्थानीहेत मानवः। अनीशश्चावमानी च स शीघ्रं भ्रश्यते श्रियः।। | 10-2-25a 10-2-25b |
सोयं दुर्योधनेनार्थो लुब्धेनादीर्घदर्शिना। असमर्थः समारब्धो मूढत्वादविचिनन्तितः।। | 10-2-26a 10-2-26b |
हितबुद्धीननादृत्य सम्मन्त्र्यासाधुभिः सह। वार्यमाणोऽकरोद्वैरं पाण्डवैर्गुणवत्तरैः।। | 10-2-27a 10-2-27b |
पूर्वमप्यतिदुःशीलो न धैर्यं कर्तुमर्हति। तपत्यर्थे विपन्ने हि मित्राणां न कृतं वचः।। | 10-2-28a 10-2-28b |
अनुवर्तामहे यत्तु तं वयं पापपूरुषम्। अस्मानप्यनयस्तस्मात्प्राप्तोऽयं दारुणो महान्।। | 10-2-29a 10-2-29b |
अेन तु ममाद्यापि व्यसनेनोपतापिता। बुद्धिश्चिन्तयते किञ्चित्स्वं श्रेयो नावबुध्यते।। | 10-2-30a 10-2-30b |
मुह्यता तु मनुष्येण प्रष्टव्याः सुहृदो जनाः। तत्रास्य बुद्धिर्विनयस्तत्र श्रेयश्च पश्यति।। | 10-2-31a 10-2-31b |
ततोऽस्य मूलं कार्याणां बुद्ध्या निश्चित्य वै बुधाः'। तेऽत्र पृष्टा यथा ब्रूयुस्तत्कर्तव्यं तथा भवेत्।। | 10-2-32a 10-2-32b |
ते वयं धृतराष्ट्रं च गान्धारीं च यशस्विनीम्। उपपृच्छामहे गत्वा विदुरं च महामतिम्।। | 10-2-33a 10-2-33b |
ते पृष्टास्तु वदेयुर्यच्छ्रेयो नः समनन्तरम्। तदस्माभिः पुनः कार्यमिति मे नैष्ठिकी मतिः।। | 10-2-34a 10-2-34b |
अनारम्भात्तु कार्याणां नार्थः सम्पद्यते क्वचित्।। | 10-2-35a |
कृते पुरुषकारे तु येषां कार्यं न सिध्यति। दैवेनोपहतास्ते तु नात्र कार्या विचारणा।। | 10-2-36a 10-2-36b |
।। इति श्रीमन्महाभारते सौप्तिकपर्वणि द्वितीयोऽध्यायः।। 2 ।। |
10-2-2 दैवे आसमन्तात् बद्धाः पुरुषकारे निहीनतया बद्धाः। तेन दैवं प्रधानं पुरुषकार उपसर्जनमित्युक्तं भवति। आरम्भा मानुषाः सर्वे इति क.पाठः।। 10-2-6 उत्थानमिति। दैवस्य प्रधानस्योत्थानं पुरुषकारो व्यर्थं भवति तथाऽनुत्थानमुत्थानहीनं दैवमपि व्यर्थमिति पक्षद्वयं सर्वत्र व्यवस्यति तत्र पूर्वएव पक्षः श्रेयानित्यर्थः।। 10-2-9 विचेष्टन्तः प्रवृत्ता दृश्यन्ते लोकदृष्ठ्येत्यर्थः।। 10-2-13 कर्माकृत्वा दुःखं पश्येदित्यापि प्रायशोऽस्ति।। 10-2-14 दुर्दर्शौ दुर्लभौ।। 10-2-16 स्पर्शं चास्याधिगच्छतीति छ.पाठः। तत्र अस्य कर्मणः स्पर्शं लोकस्य सम्बन्धं चाधिगच्छति लोकप्रियः स्यादित्यर्थः।। 10-2-17 अकृत्वा कर्म यो लोके फलं विन्दति धिष्ठित इति झ.पाठः। तत्र अदक्षस्तु परप्रयत्नार्जितेन जीवन्नपि भोक्तुमेवायं समर्थो नार्जयितुमिति निन्द्यत इति भावः।। 10-2-18 एतत् दैवदाक्ष्ययोः साहित्यम्। अन्यथा तयोरन्यतरालम्बनेन।। 10-2-23 योगे अलब्धलाभे।। 10-2-25 अनीशः अजितचित्तः। अवमानी परमवजानन्।। 10-2-2 द्वितीयोऽध्यायः।।
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