सामवेदः/कौथुमीया/संहिता/ऊहगानम्/दशरात्रपर्व/विंशः ४/गौरीवितम्(सुतासो)
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सुतासो मधुमत्तमाः सोमा इन्द्राय मन्दिनः |
पवित्रवन्तो अक्षरं देवान्गच्छन्तु वो मदाः || ८७२ || ऋ. ९.१०१.४
इन्दुरिन्द्राय पवत इति देवासो अब्रुवन् |
वाचस्पतिर्मखस्यते विश्वस्येशान ओजसाः || ८७३ ||
सहस्रधारः पवते समुद्रो वाचमीङ्खयः |
सोमस्पती रयीणां सखेन्द्रस्य दिवेदिवे || ८७४ ||
३. गौरीवितम् । गौरीवितिः । अनुष्टुप्। पवमानः सोमः ।
सुता । सोमाऽ३ । धुमत्तमाः ।। सोमाइन्द्रायमन्दिनाऽ२३ः । पावित्रवाऽ३१२३ । तोआऽ५क्षरान् ।। दाइवान्गच्छाऽ३१२३ ।। तुवोवा । माऽ५दोऽ६”हाइ ।। श्रीः ।। इन्दुः । इन्द्राऽ३ । यपवताइ ।। इतिदेवासो- अब्रुवाऽ२३न् । वाचस्पताऽ३१२३इः । मखाऽ५स्यताइ ।। वाइश्वस्येशा- ऽ३१२३ ।। नओवा । जाऽ५सोऽ६”हाइ ।। श्रीः ।। सह । स्रधाऽ३ । रᳲपवताइ ।। समुद्रोवाचमीङ्खयाऽ२३ः । सोमस्पताऽ३१२३इः । रयाऽ५इणाम् ।। साखेन्द्रस्याऽ३१२३ ।। दिवोवा । दाऽ५इवोऽ६”हाइ ।।
दी. १५. उत्. न. मा. २५. वु. ।।६३।।
टिप्पणी
गौरिवीत् का देवों की दृष्टि से एक रूप ऐसा भी है जो "श्वः” (कल) के साथ अद्य से भी सम्बन्ध रखता है जिसके कारण उसे "अद्यश्वं' कहा जाता है।२ 'गौरिवीतम् साम' के इस वर्णन से ऐसा प्रतीत होता है कि समाधि की अवस्था में योगी की सभी दिव्य-शक्तियां जिस तेज अथवा रस का अनुभव करती हैं उसको तो 'अद्यतन गौरिवीतम् कहा जाएगा परन्तु व्युत्थान की अवस्था में उस तेजस् या रस का जो अनुभव नीचे के स्तरों पर होगा उसे यज्ञ का 'श्वस्तनं' माना गया है। योगी के प्राण-रूप देव समाधि और व्युत्धान दोनों से सम्बन्ध रखते हैं, इसलिए देवों की दृष्टि से उस तेजस् या रस को 'अद्यश्वं” नाम दिया गया है। - वेदों में अन्तरिक्ष के पर्यायों का प्रतीकवाद(अध्याय ४)