सामवेदः/कौथुमीया/संहिता/उत्तरार्चिकः/2.8 अष्टमप्रपाठकः/2.8.3 तृतीयोऽर्द्धः
अग्निः प्रत्नेन जन्मना शुम्भानस्तन्वा३ं स्वां | | १अ १छ् |
ऊर्ज्जो नपातमा हुवेऽग्निं पावकशोचिषं | | २अ २छ् |
स नो मित्रमहस्त्वमग्ने शुक्रेण शोचिषा | | ३अ ३छ् |
उत्ते शुष्मासो अस्थू रक्षो भिन्दन्तो अद्रिवः | | १अ १छ् |
अया निजघ्निरोजसा रथसङ्गे धने हिते | | २अ २छ् |
अस्य व्रतानि नाधृषे पवमानस्य दूढ्या | | ३अ ३छ् |
तं हिन्वन्ति मदच्युतं हरिं नदीषु वाजिनं | | ४अ ४छ् |
आ मन्द्रैरिन्द्र हरिभिर्याहि मयूररोमभिः | | १अ १छ् |
वृत्रखादो वलं रुजः पुरां दर्मो अपामजः | | २अ २छ् |
गम्भीरां उदधींरिव क्रतुं पुष्यसि गा इव | | ३अ ३छ् |
यथा गौरो अपा कृतं तृष्यन्नेत्यवेरिणं | | १अ १छ् |
मन्दन्तु त्वा मघवन्निन्द्रेन्दवो राधोदेयाय सुन्वते | | २अ २छ् |
त्वमङ्ग प्र शुंसिषो देवः शविष्ठ मर्त्यं | | १अ १छ् |
मा ते राधांसि मा त ऊतयो वसोऽस्मान्कदा चना दभन् | | २अ २छ् |
प्रति ष्या सूनरी जनी व्युच्छन्ती परि स्वसुः | | १अ १छ् |
अश्वेव चित्रारुषी माता गवामृतावरी | | २अ २छ् |
उत सखास्यश्विनोरुत माता गवामसि | | ३अ ३छ् |
एषो उषा अपूर्व्य व्युच्छति प्रिया दिवः | | १अ १छ् |
या दस्रा सिन्धुमातरा मनोतरा रयीणां | | २अ २छ् |
वच्यन्ते वां ककुहासो जूर्णायामधि विष्टपि | | ३अ ३छ् |
उषस्तच्चित्रमा भरास्मभ्यं वाजिनीवति | | १अ १छ् |
उषो अद्येह गोमत्यश्वावति विभावरि | | २अ २छ् |
युङ्क्ष्वा हि वाजिनीवत्यश्वां अद्यारुणां उषः | | ३अ ३छ् |
अश्विना वर्तिरस्मदा गोमद्दस्रा हिरण्यवत् | | १अ १छ् |
एह देवा मयोभुवा दस्रा हिरण्यवर्त्तनी | | २अ २छ् |
यावित्था श्लोकमा दिवो ज्योतिर्जनाय चक्रथुः | | ३अ ३छ् |
अग्निं तं मन्ये यो वसुरस्तं यं यन्ति धेनवः | | १अ १छ् |
अग्निर्हि वाजिनं विशे ददाति विश्वचर्षणिः | | २अ २छ् |
सो अग्निर्यो वसुर्गृणे सं यमायन्ति धेनवः | | ३अ ३छ् |
महे नो अद्य बोधयोषो राये दिवित्मती | | १अ १छ् |
या सुनीथे शौचद्रथे व्यौच्छो दुहितर्दिवः | | २अ २छ् |
सा नो अद्याभरद्वसुर्व्युच्छा दुहितर्दिवः | | ३अ ३छ् |
प्रति प्रियतमं रथं वृशणं वसुवाहनं | | १अ १छ् |
अत्यायातमश्विना तिरो विश्वा अहं सना | | २अ २छ् |
आ नो रत्नानि बिभ्रतावश्विना गच्छतं युवं | | ३अ ३छ् |
अबोध्यग्निः समिधा जनानां प्रति धेनुमिवायतीमुषासं | | १अ १छ् |
अबोधि होता यजथाय देवानूर्ध्वो अग्निः सुमनाः प्रातरस्थात् | | २अ २छ् |
यदीं गणस्य रशनामजीगः शुचिरङ्क्ते शुचिभिर्गोभिरग्निः | | ३अ ३छ् |
इदं श्रेष्ठं ज्योतिषां ज्योतिरागाच्चित्रः प्रकेतो अजनिष्ट विभ्वा | | १अ १छ् |
रुशाद्वत्सा रुशती श्वेत्यागादारैगु कृष्णा सदनान्यस्याः | | २अ २छ् |
समानो अध्वा स्वस्रोरनन्तस्तमन्यान्या चरतो देवशिष्टे | | ३अ ३छ् |
आ भात्यग्निरुषसामनीकमुद्विप्राणां देवया वाचो अस्थुः | | १अ १छ् |
न संस्कृतं प्र मिमीतो गमिष्ठान्ति नूनमश्विनोपस्तुतेह | | २अ २छ् |
उता यातं संगवे प्रातरह्नो मध्यन्दिन उदिता सूर्यस्य | | ३अ ३छ् |
एता उ त्या उषसः केतुमक्रत पूर्वे अर्धे रजसो भानुमञ्जते | | १अ १छ् |
उदपप्तन्नरुणा भानवो वृथा स्वायुजो अरुषीर्गा अयुक्षत | | २अ २छ् |
अर्चन्ति नारीरपसो न विष्टिभिः समानेन योजनेना परावतः | | ३अ ३छ् |
अबोध्यग्निर्ज्म उदेति सूर्यो व्यू३षाश्चन्द्रा मह्यावो अर्चिषा | | १अ १छ् |
यद्युञ्जाथे वृषणमश्विना रथं घृतेन नो मधुना क्षत्रमुक्षतं | | २अ २छ् |
अर्वाङ्त्रिचक्रो मधुवाहनो रथो जीराश्वो अश्विनोर्यातु सुष्टुतः | | ३अ ३छ् |
प्र ते धारा असश्चतो दिवो न यन्ति वृष्टयः | | १अ १छ् |
अभि प्रियाणि काव्या विश्वा चक्षाणो अर्षति | | २अ २छ् |
स मर्मृजान आयुभिरिभो राजेव सुव्रतः | | ३अ ३छ् |
स नो विश्वा दिवो वसूतो पृथिव्या अधि | | ४अ ४छ् |