सम्भाषणम्:ऋग्वेदः सूक्तं १.१६४

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ईम् और इदम्:
उक्त नवपदों की पृष्ठभूमि में जो क्रिया होती है, उसका बोध कराने वाली ‘‘पद’’ धातु है, इस पद का प्रयोग वेदों में अनेक रूपों में हुआ है। उदक के प्रसंग में भी निम्नलिखित मन्त्र को देखा जा सकता है:-
इह ब्रवीतु य ईमंग वेदास्य वामस्य निहितं पदं वेः।
शीर्ष्णः क्षीरं दुह्रते गावो अस्य वव्रिं वसाना उदकं पदापुः।। ऋ 1,164,7.।।
इस मंत्र में वाक् की गोप में कल्पना करके उसके अनेक रूपान्तरों को ऐसी गायें कहा गया है, जो मनुष्य-व्यक्तित्व के रूप (वव्रिं) को आच्छादित किये हुए हैं। ये गायें नवपदों में व्यक्त होने वाली उक्त पद नामक गति के द्वारा उदक को प्राप्त करती हैं। यह वाक् की अधोगामिनी गति है। इसके विपरीत इन गायों की एक ऊर्ध्वगामिनी गति भी है; जो शीर्ष स्थानीय हिरण्ययकोश तक पहुंचती है। इस शीर्ष से इन गायों को क्षीर दोहन करने वाला बताया गया है। यहां स्मरणीय है कि क्षीर और उदक निघंटु के उदकनामों में परिगणित हैं। इन दो नामों के अतिरक्त इस मंत्र में एक अन्य उदकनाम ‘‘ईम’’ भी आया है। यह ईम् आत्मरूपी वामपक्षी का निहित पद कहा गया है। यह छिपा हुआ है, अतः इसको जानने वाले विरले ही होते हैं। इसको जो जानता है, वह बतलावे, ऐसी कामना यहां की गई है। इस पूरे मंत्र का सारांश यह है कि जिस उदक को ईम् कहा गया है, वह वस्तुतः आत्मा रूपी वामपक्षी का निहित पद है, जिस पद पर विराजमान होकर आत्मा अनिपद्यमान गोपा कहा जाता है। इसी ईम् को वाक् अपनी ऊर्ध्वगामिनी गति में उसी के उदकरूप को पाती है। एक अन्य मंत्र में अधोगामिनी गति से प्राप्तव्य को ‘‘इदम् उदकम्’’ कहा गया है, जबकि ऊर्ध्वगामिनी गति से प्राप्त उदक को ‘‘मुन्जनेजनम्’’ नाम दिया गया है, जो वस्तुतः सोम है। इस मंत्र में ‘‘इदम् उदकम्’’ के लिए निघंटु के उदकनामों की सूची में इदम् की भी गणना की गई है। इस दृष्टि से, पहले जिसको क्षीर कहा गया है, वहीं हिरण्यकोश से आने वाला मुन्जवान् सोम सिद्ध होता है। इसके विपरीत, मनुष्य के व्यक्ति के स्थूलरूप से संबंधित उदक का नाम ‘‘इदम्’’ होगा।
‘‘इदम्’’ नामक उदक भी वस्तुतः इन्द्र की वह परम इन्द्रिय है, जिसे कवियों (क्रान्तदर्शी प्राणों) ने अपनी पराशक्तियां द्वारा धारण किया था। वह स्थूलदेहरूपी क्षमा (पृथिवी) और कारण-देह और कारण-देह रूपी दिव में दो भिन्न रूपों में होते हुए भी पिण्डाण्ड में इस प्रकार सम्पृक्त हो रहा है कि मानों वह ‘‘समना केतु’’ (मानसिक स्तर की प्रज्ञा) हो-
तत्त इन्द्रियं परमं पराचैरधारयन्त कवयः पुरेदम्।
क्षमेदमन्यद् दिव्यन्यदस्य समी पृच्यते समनेव केतुः।। ऋ. १.१०३.१
इसी ‘इदं’ नामक उदक को विपश्यना द्वारा देखने पर वह हमें अत्यन्त पुष्टश्रत् (सत्य) के रूप में प्राप्त होता है, जिसको वीर्यवान् होने के लिए धारण करने की आवश्यकता होती है। इसको धारण करने वाला अन्य आध्यात्मिक शक्तियों के साथ ‘‘अपः’’ और वनानि’’ को भी हस्तगत करता है। अपः और वनानि की गणना भी उदकनामों में की गई है। आप् धातु से निष्पन्न आपः शब्द जहां उदकप्राण के व्यापनशील रूप का द्योतक है, वहां ‘वन’’ वन् कान्तौ से निष्पन्न इच्छात्व का सूचक है। अतः ‘‘अपः वनानि’’ से यहां इच्छातत्व के व्यापनशील रूप की ओर संकेत है।
रहस्यमय ‘‘ईम्’’ नामक उदक ही दु गतौ धातु के योग से इन्दु बन जाता है, जो कि उदक नामों में परिगणित होने के साथ ही सोम का भी एक नाम है। इच्छातत्वात्मक वन नामक उदक में क्रीड़ा करता हुआ यह ईम् ही वह इन्दु बन जाता है, जिसका मण्डन वाणी रूपी नौकाएं करने लगती हैं:-
समी सखायो अस्वरन् वने क्रीळन्तमत्यविम्। इन्दुं नावा अनूषता।। ऋ.९.४५,5
यह ‘‘ईम्’ अथवा ‘‘इन्दु’’ वह वाजी हार है। ‘‘ईम्’’ नामक उदक का यह सोम रूप मरुत्वान् इन्द्र के लिए सहस्रधार होकर अव्यय-तत्व को अत्यधिक गतिशील कर देता है। इस सोम नामक ईम् को जब मननशील ज्ञानी (मतुथाः) जन्म देते है, वे कर्मेन्द्रियों और ज्ञानेन्द्रियों के रूप में दोनों हाथों की दश अंगुलियों के समान उसको रथवत् अदिति के उपस्थ में भेज देते हैं और तब वह अदिति रूपी गौ के अन्तर्हित पद पर पहुंच जाता है। - वेद में उदक का प्रतीकवाद, सुकर्मपालसिंह तोमर (शोधप्रबन्ध(चौ. चरणसिंह विश्वविद्यालय, मेरठ, १९९४ ई.
इह ब्रवीतु य ईमंग वेद - १.१६४.७ ता ईं वर्धन्ति मह्यस्य पौंस्यं - १.१५५.३ चयत ईमर्यमो अप्रशस्तान् - ऋ. १,१६७, ८. सोमेभिरीं पृणता भोजमिन्द्रम् - २,१४,१०. यस्मादिन्द्राद्बृहतः किं चनेमृते - २.१६, २ स ईं ममाद महि कर्म कर्तवे - २.२२.१ अत्नान्यं जठरे प्रेमरिच्यत - २.२२.२ उरुष्यतीमंह॑सः रक्षती रिषो - २. २६, ४. वि यदज्राँ अजथ नाव॑ ईं यथा - ५,५४,४. प्रति॑ न ईं सुरभीणि व्यन्त्तु - ७,१, १८. यदीमेनाँ उश॒तो अ॒भ्यव॑र्षीत् - ७,१०३, १. यदीमृतस्य पयसा पियानो - १, ७९.३ ३. ८७, ३. आप यदीं होत्राभिर्ऋतावा - १.१२२, ९, , दधन्वे वा यदीमनु - २, ५, ३. यदीं सोमः पृणते दुग्धमंशुः - ३,३६,६ . इह ब्रवीतु य ईमङ्ग वेद - १,१६४, ७ य ईं भव॑न्त्या॒जय॑ः - ७,३२, १७. स ईं वृषाजनय॒त्तासु गर्भ॑म् स ईं शिशुर्धयति तं रिहन्ति - २,३५, १३. तमीं हिन्वन्ति धीतयो दश - १,१४४,५. तमीं होतारमानुषक् - ४, ७, ५. क ईं स्तवत् कः पृणात् - ६,४७, १५. क ईं व्यक्ता नरः सनीडा - ७,५६,१ यमी गर्भम् ऋतावृधो- ऋ. ९, १०२, ६. तमी मृजन्त्यायवः – ९.१०७, १७. ए रिणन्ति बर्हिषि प्रियं गिरा – ९.७१,६. समी सखायो अस्वरन् – ९.४५, ४. समी रथम् न भुरिजोरहेषत ९.७१,५. समी गावो मतयो यन्ति संयतः - ९.७२,६. समी वत्सं न मातृभिः – ९.१०४,२. समी पृच्यते समनेव केतुः - १,१०३, १. समी विव्याच सवना पुरूणि - ३, ३६, ८. संवत्सरे वावृधे ज़ग्धमी पुन॑ः १.१४०.२ निघंटु. १, १२ उदकनामन्. . वासं. २३,५५.२७, १५.३३,६०. RV. प्राति. ४, ३६

अपि च, द्र.

ईम्

Puranastudy (सम्भाषणम्) १०:२१, २२ एप्रिल् २०२४ (UTC)[उत्तर दें]

इस विवेचन से स्पष्ट है कि उदक शब्द से केवल ऊर्ध्वगामी उदान प्राण ही अभिप्रेत नहीं है, अपितु प्राणों के विभिन्न रूपों और रूपान्तरों की ओर इस उदक शब्द के द्वारा संकेत किया जा सकता है। अतः वेद में उदक शब्द को सामान्य जल का वाचक न मान कर प्राणोदक (प्राणरूपी जल) का द्योतक कहा जा सकता है। इस दृष्टि से ऋग्वेद के निम्नलिखित दो मन्त्र विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं:-

समानमेतदुदकं उच्चैत्यव चाहभिः। भूमिं पर्जन्या जिन्वन्ति दिवं जिन्वन्त्यग्नयः।। दिव्यं सुपर्णं वायसं बृहन्तमपां गर्भं दर्शतमोषधीनाम्। अभीपतो वृष्टिभिस्तपर्यन्तं सरस्वन्तमवसे जोहवीमि।। ऋ १, १६४, ५१-५२।।

यहां, प्रथम मन्त्र मे एक ‘‘समानम् उदकम्’’ का उल्लेख है। वह ऊर्ध्वगति भी करता है और अधोगति भी। ऊर्ध्वगति द्वारा अग्नियां द्यौ (दिवः) का प्रीणन करती हैं और अधोगति में पर्जन्य भूमि का प्रीणन करते हैं। अभिप्राय यह है कि जो ‘‘समानम् उदकम्’’ मूलतः अद्वैत एक है, वह आरोहण अवरोहण क्रम में द्विविध हो जाता है। उदक के इसी अद्वैत रूप को दूसरे मन्त्र में दिव्य, सुपर्ण, वायस तथा बृहत् होता हुआ (बृहन्तं) अपां गर्भं कहा है। बृहन्तं की व्याख्या करते हुए मानों कहा गया है कि वह अपनी वर्षाओं के द्वारा तृप्त करने वाला सरस्वान् व्यक्तित्व है और उसी रूप में वह आहवनीय भी है। दूसरे शब्दों में, उस अद्वैत उदक के वर्षणशील पर्जन्यरूप को ही ‘‘बृहन्तम्’’ अपां गर्भं कहा है। इस वर्षणशील उदक का ही नाम सरः है, जिससे युक्त होने के कारण वह अपने इस बृहत् और वर्षणशील रूप में सरस्वान कहा जाता है। इससे सिद्ध होता है कि उदक शब्द मुख्यतः प्राण की उदंचनशीलता का द्योतक है, परन्तु उसका यह ऊर्ध्वगामी रूप एक अधोगामी रूप की भी अपेक्षा रखता है। अतएव इस द्विविध गति से परे उदक के एक अन्य ऐसे रूप की कल्पना की गई है, जिसमें ऊर्ध्वगति और अधोगति का अन्त हो जाता है। यही ‘‘समानम् उदकम्’’ है। जब यह पर्जन्य वृष्टि करने लगता है, तो उसे उदकनामों में परिगणित सरः नाम दिया जाता है। ‘‘सरः’’ से युक्त व्यक्तित्व ही सरस्वान् है।

उदक और वाक् :

प्रश्न होता है कि ‘‘समानम् उदकम्’ की इस पर्जन्यवृष्टि का क्या तात्पर्य है? डा० फ़तहसिंह ने अपनी ‘‘ढाई अक्षर वेद के’’ नामक पुस्तक में बताया है कि योग की धर्ममेघ समाधि के मेघ को ही वेद में पर्जन्य कहा गया है।[28] इससे शुद्ध प्राणरूप आपः की वृष्टि होती है, जिसके फलस्वरूप अहंकार रूपी वृत्र का वध होता है और ‘अवर इन्द्र’’ (जीव) सबल होकर महेन्द्र कहलाता है। उनके अनुसार योग-साधना से सिद्ध होने वाली समाधि में जो आनन्दवृष्टि होती है, उसी को सोम की वृष्टि कहा जा सकता है और वही भद्र आपः अथवा शुद्ध आपः की वृष्टि भी है। इस स्थिति से पूर्व, मनुष्य के आपः (प्राण) अहंकार रूपी वृत्र के चंगुल में फंसे रहते हैं, जिससे उनमें काम, क्रोध आदि सर्पों का विष उन्हें अभद्र विषाक्त तथा अशुद्ध बना देता है। यह विष शब्द भी उदकनामों में परिगणित है। यह वस्तुतः शुद्ध उदक (प्राण) का ही अशुद्ध हुआ रूप है, जिसे विष कहा जाता है।

स्वयं वेदमंत्रों में, इस शुद्ध उदक का पान करना साधना का वह लक्ष्य है, जिसको प्राप्त करके साधक भगवान होने की कामना कर सकता है :-

सूयवसाद्भगवती हि भूया अथो वयं भगवन्तः स्याम। अद्धि तृणमघ्न्ये विश्वदानीं पिब शुद्धमुदकमाचरन्ती।। ऋ १, १६४, ४०,

इस मन्त्र में आत्मा की वाक् शक्ति को अघ्न्या कह कर यह संकेत किया गया है कि उसे अहंकार रूपी वृत्र से भयभीत होने की आवश्यकता नहीं है, अतः उससे निश्चिन्त होकर अहंकार जनित कषाय रूपी तृण को खाने और शुद्ध उदक पीकर आचरणशीला होने की अपेक्षा की गई है। यही आत्मशक्ति भगवती कही गई है और उसके भगवती रूप को पाकर ही साधक भगवान हो सकते हैं। इस मन्त्र से अगले मन्त्र में, उसी आत्मा की वाक् शक्ति को गौरी कहा गया है, जो उक्त ‘‘समानम् उदकम्’’ को अनेक ‘‘सलिलानि’’ में परिणत करती हुई एकपदी, द्विपदी, चतुष्पदी, अष्टापदी और नवपदी हो जाती है, यद्यपि वह मूलतः परम व्योम में स्थित सहस्राक्षरा वाक् है-

गौरीर्मिमाय सलिलानि तक्षत्येकपदी द्विपदी सा चतुष्पदी। अष्टापदी नवपदी बभूवुषी सहस्राक्षरा परमे व्योमन्।। ऋ १, १६४,४१.

निघण्टु के उदकनामों में परिगणित ‘‘सलिलम्’’ के अनेक रूपान्तरों को ही यहां सलिलानि कहा गया है। आत्मशक्ति इस अनेकता की सृष्टि करती हुई एकपदी से नवपदी हो जाती है। डा० फ़तहसिंह ने आगम-ग्रन्थों के आधार पर सहस्राक्षरा वाक् के इन नौ पदों को इस प्रकार परिभाषित किया है[29] :-

१. काल : - निमेष से लेकर प्रलय तक, जिसके अन्तर्गत चन्द्र तथा सूर्य भी आ जाते हैं।

२. कुल :- रूप (आकृति) रखने वाली सारी वस्तुएं।

३. नाम :- नामधारिणी सभी वस्तुएं।

४. ज्ञान :- दो प्रकार का सविकल्पक और निर्विकल्पक।

५. चित् : - अहंकार, बुद्धि, चित्त, मन और उन्मन।

६. नाद :- राग, इच्छा, कृति, प्रयत्न, जो क्रमशः परा, पश्यन्ती मध्यमा तथा वैखरी के समकक्ष है।

७. बिन्दु :- (आध्यात्मिक बीज) षट्चक्र (मूलाधार से आज्ञा तक)

८. कर्म :- मूलाधार से आज्ञा तक पचास वर्ण।

९. जीव :- मायाबद्ध आत्मा। Puranastudy (सम्भाषणम्) ०९:०२, ३० एप्रिल् २०२४ (UTC)[उत्तर दें]