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सम्भाषणम्:ऋग्वेदः सूक्तं १.१६४

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विषयः योज्यताम्
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ईम्

[सम्पाद्यताम्]

ईम् और इदम्:
उक्त नवपदों की पृष्ठभूमि में जो क्रिया होती है, उसका बोध कराने वाली ‘‘पद’’ धातु है, इस पद का प्रयोग वेदों में अनेक रूपों में हुआ है। उदक के प्रसंग में भी निम्नलिखित मन्त्र को देखा जा सकता है:-
इह ब्रवीतु य ईमंग वेदास्य वामस्य निहितं पदं वेः।
शीर्ष्णः क्षीरं दुह्रते गावो अस्य वव्रिं वसाना उदकं पदापुः।। ऋ 1,164,7.।।
इस मंत्र में वाक् की गोप में कल्पना करके उसके अनेक रूपान्तरों को ऐसी गायें कहा गया है, जो मनुष्य-व्यक्तित्व के रूप (वव्रिं) को आच्छादित किये हुए हैं। ये गायें नवपदों में व्यक्त होने वाली उक्त पद नामक गति के द्वारा उदक को प्राप्त करती हैं। यह वाक् की अधोगामिनी गति है। इसके विपरीत इन गायों की एक ऊर्ध्वगामिनी गति भी है; जो शीर्ष स्थानीय हिरण्ययकोश तक पहुंचती है। इस शीर्ष से इन गायों को क्षीर दोहन करने वाला बताया गया है। यहां स्मरणीय है कि क्षीर और उदक निघंटु के उदकनामों में परिगणित हैं। इन दो नामों के अतिरक्त इस मंत्र में एक अन्य उदकनाम ‘‘ईम’’ भी आया है। यह ईम् आत्मरूपी वामपक्षी का निहित पद कहा गया है। यह छिपा हुआ है, अतः इसको जानने वाले विरले ही होते हैं। इसको जो जानता है, वह बतलावे, ऐसी कामना यहां की गई है। इस पूरे मंत्र का सारांश यह है कि जिस उदक को ईम् कहा गया है, वह वस्तुतः आत्मा रूपी वामपक्षी का निहित पद है, जिस पद पर विराजमान होकर आत्मा अनिपद्यमान गोपा कहा जाता है। इसी ईम् को वाक् अपनी ऊर्ध्वगामिनी गति में उसी के उदकरूप को पाती है। एक अन्य मंत्र में अधोगामिनी गति से प्राप्तव्य को ‘‘इदम् उदकम्’’ कहा गया है, जबकि ऊर्ध्वगामिनी गति से प्राप्त उदक को ‘‘मुन्जनेजनम्’’ नाम दिया गया है, जो वस्तुतः सोम है। इस मंत्र में ‘‘इदम् उदकम्’’ के लिए निघंटु के उदकनामों की सूची में इदम् की भी गणना की गई है। इस दृष्टि से, पहले जिसको क्षीर कहा गया है, वहीं हिरण्यकोश से आने वाला मुन्जवान् सोम सिद्ध होता है। इसके विपरीत, मनुष्य के व्यक्ति के स्थूलरूप से संबंधित उदक का नाम ‘‘इदम्’’ होगा।
‘‘इदम्’’ नामक उदक भी वस्तुतः इन्द्र की वह परम इन्द्रिय है, जिसे कवियों (क्रान्तदर्शी प्राणों) ने अपनी पराशक्तियां द्वारा धारण किया था। वह स्थूलदेहरूपी क्षमा (पृथिवी) और कारण-देह और कारण-देह रूपी दिव में दो भिन्न रूपों में होते हुए भी पिण्डाण्ड में इस प्रकार सम्पृक्त हो रहा है कि मानों वह ‘‘समना केतु’’ (मानसिक स्तर की प्रज्ञा) हो-
तत्त इन्द्रियं परमं पराचैरधारयन्त कवयः पुरेदम्।
क्षमेदमन्यद् दिव्यन्यदस्य समी पृच्यते समनेव केतुः।। ऋ. १.१०३.१
इसी ‘इदं’ नामक उदक को विपश्यना द्वारा देखने पर वह हमें अत्यन्त पुष्टश्रत् (सत्य) के रूप में प्राप्त होता है, जिसको वीर्यवान् होने के लिए धारण करने की आवश्यकता होती है। इसको धारण करने वाला अन्य आध्यात्मिक शक्तियों के साथ ‘‘अपः’’ और वनानि’’ को भी हस्तगत करता है। अपः और वनानि की गणना भी उदकनामों में की गई है। आप् धातु से निष्पन्न आपः शब्द जहां उदकप्राण के व्यापनशील रूप का द्योतक है, वहां ‘वन’’ वन् कान्तौ से निष्पन्न इच्छात्व का सूचक है। अतः ‘‘अपः वनानि’’ से यहां इच्छातत्व के व्यापनशील रूप की ओर संकेत है।
रहस्यमय ‘‘ईम्’’ नामक उदक ही दु गतौ धातु के योग से इन्दु बन जाता है, जो कि उदक नामों में परिगणित होने के साथ ही सोम का भी एक नाम है। इच्छातत्वात्मक वन नामक उदक में क्रीड़ा करता हुआ यह ईम् ही वह इन्दु बन जाता है, जिसका मण्डन वाणी रूपी नौकाएं करने लगती हैं:-
समी सखायो अस्वरन् वने क्रीळन्तमत्यविम्। इन्दुं नावा अनूषता।। ऋ.९.४५,5
यह ‘‘ईम्’ अथवा ‘‘इन्दु’’ वह वाजी हार है। ‘‘ईम्’’ नामक उदक का यह सोम रूप मरुत्वान् इन्द्र के लिए सहस्रधार होकर अव्यय-तत्व को अत्यधिक गतिशील कर देता है। इस सोम नामक ईम् को जब मननशील ज्ञानी (मतुथाः) जन्म देते है, वे कर्मेन्द्रियों और ज्ञानेन्द्रियों के रूप में दोनों हाथों की दश अंगुलियों के समान उसको रथवत् अदिति के उपस्थ में भेज देते हैं और तब वह अदिति रूपी गौ के अन्तर्हित पद पर पहुंच जाता है। - वेद में उदक का प्रतीकवाद, सुकर्मपालसिंह तोमर (शोधप्रबन्ध(चौ. चरणसिंह विश्वविद्यालय, मेरठ, १९९४ ई.
इह ब्रवीतु य ईमंग वेद - १.१६४.७ ता ईं वर्धन्ति मह्यस्य पौंस्यं - १.१५५.३ चयत ईमर्यमो अप्रशस्तान् - ऋ. १,१६७, ८. सोमेभिरीं पृणता भोजमिन्द्रम् - २,१४,१०. यस्मादिन्द्राद्बृहतः किं चनेमृते - २.१६, २ स ईं ममाद महि कर्म कर्तवे - २.२२.१ अत्नान्यं जठरे प्रेमरिच्यत - २.२२.२ उरुष्यतीमंह॑सः रक्षती रिषो - २. २६, ४. वि यदज्राँ अजथ नाव॑ ईं यथा - ५,५४,४. प्रति॑ न ईं सुरभीणि व्यन्त्तु - ७,१, १८. यदीमेनाँ उश॒तो अ॒भ्यव॑र्षीत् - ७,१०३, १. यदीमृतस्य पयसा पियानो - १, ७९.३ ३. ८७, ३. आप यदीं होत्राभिर्ऋतावा - १.१२२, ९, , दधन्वे वा यदीमनु - २, ५, ३. यदीं सोमः पृणते दुग्धमंशुः - ३,३६,६ . इह ब्रवीतु य ईमङ्ग वेद - १,१६४, ७ य ईं भव॑न्त्या॒जय॑ः - ७,३२, १७. स ईं वृषाजनय॒त्तासु गर्भ॑म् स ईं शिशुर्धयति तं रिहन्ति - २,३५, १३. तमीं हिन्वन्ति धीतयो दश - १,१४४,५. तमीं होतारमानुषक् - ४, ७, ५. क ईं स्तवत् कः पृणात् - ६,४७, १५. क ईं व्यक्ता नरः सनीडा - ७,५६,१ यमी गर्भम् ऋतावृधो- ऋ. ९, १०२, ६. तमी मृजन्त्यायवः – ९.१०७, १७. ए रिणन्ति बर्हिषि प्रियं गिरा – ९.७१,६. समी सखायो अस्वरन् – ९.४५, ४. समी रथम् न भुरिजोरहेषत ९.७१,५. समी गावो मतयो यन्ति संयतः - ९.७२,६. समी वत्सं न मातृभिः – ९.१०४,२. समी पृच्यते समनेव केतुः - १,१०३, १. समी विव्याच सवना पुरूणि - ३, ३६, ८. संवत्सरे वावृधे ज़ग्धमी पुन॑ः १.१४०.२ निघंटु. १, १२ उदकनामन्. . वासं. २३,५५.२७, १५.३३,६०. RV. प्राति. ४, ३६

अपि च, द्र.

ईम्

Puranastudy (सम्भाषणम्) १०:२१, २२ एप्रिल् २०२४ (UTC)उत्तर दें

उदकम्

[सम्पाद्यताम्]

इस विवेचन से स्पष्ट है कि उदक शब्द से केवल ऊर्ध्वगामी उदान प्राण ही अभिप्रेत नहीं है, अपितु प्राणों के विभिन्न रूपों और रूपान्तरों की ओर इस उदक शब्द के द्वारा संकेत किया जा सकता है। अतः वेद में उदक शब्द को सामान्य जल का वाचक न मान कर प्राणोदक (प्राणरूपी जल) का द्योतक कहा जा सकता है। इस दृष्टि से ऋग्वेद के निम्नलिखित दो मन्त्र विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं:-

समानमेतदुदकं उच्चैत्यव चाहभिः। भूमिं पर्जन्या जिन्वन्ति दिवं जिन्वन्त्यग्नयः।। दिव्यं सुपर्णं वायसं बृहन्तमपां गर्भं दर्शतमोषधीनाम्। अभीपतो वृष्टिभिस्तपर्यन्तं सरस्वन्तमवसे जोहवीमि।। ऋ १, १६४, ५१-५२।।

यहां, प्रथम मन्त्र मे एक ‘‘समानम् उदकम्’’ का उल्लेख है। वह ऊर्ध्वगति भी करता है और अधोगति भी। ऊर्ध्वगति द्वारा अग्नियां द्यौ (दिवः) का प्रीणन करती हैं और अधोगति में पर्जन्य भूमि का प्रीणन करते हैं। अभिप्राय यह है कि जो ‘‘समानम् उदकम्’’ मूलतः अद्वैत एक है, वह आरोहण अवरोहण क्रम में द्विविध हो जाता है। उदक के इसी अद्वैत रूप को दूसरे मन्त्र में दिव्य, सुपर्ण, वायस तथा बृहत् होता हुआ (बृहन्तं) अपां गर्भं कहा है। बृहन्तं की व्याख्या करते हुए मानों कहा गया है कि वह अपनी वर्षाओं के द्वारा तृप्त करने वाला सरस्वान् व्यक्तित्व है और उसी रूप में वह आहवनीय भी है। दूसरे शब्दों में, उस अद्वैत उदक के वर्षणशील पर्जन्यरूप को ही ‘‘बृहन्तम्’’ अपां गर्भं कहा है। इस वर्षणशील उदक का ही नाम सरः है, जिससे युक्त होने के कारण वह अपने इस बृहत् और वर्षणशील रूप में सरस्वान कहा जाता है। इससे सिद्ध होता है कि उदक शब्द मुख्यतः प्राण की उदंचनशीलता का द्योतक है, परन्तु उसका यह ऊर्ध्वगामी रूप एक अधोगामी रूप की भी अपेक्षा रखता है। अतएव इस द्विविध गति से परे उदक के एक अन्य ऐसे रूप की कल्पना की गई है, जिसमें ऊर्ध्वगति और अधोगति का अन्त हो जाता है। यही ‘‘समानम् उदकम्’’ है। जब यह पर्जन्य वृष्टि करने लगता है, तो उसे उदकनामों में परिगणित सरः नाम दिया जाता है। ‘‘सरः’’ से युक्त व्यक्तित्व ही सरस्वान् है।

उदक और वाक् :

प्रश्न होता है कि ‘‘समानम् उदकम्’ की इस पर्जन्यवृष्टि का क्या तात्पर्य है? डा० फ़तहसिंह ने अपनी ‘‘ढाई अक्षर वेद के’’ नामक पुस्तक में बताया है कि योग की धर्ममेघ समाधि के मेघ को ही वेद में पर्जन्य कहा गया है।[28] इससे शुद्ध प्राणरूप आपः की वृष्टि होती है, जिसके फलस्वरूप अहंकार रूपी वृत्र का वध होता है और ‘अवर इन्द्र’’ (जीव) सबल होकर महेन्द्र कहलाता है। उनके अनुसार योग-साधना से सिद्ध होने वाली समाधि में जो आनन्दवृष्टि होती है, उसी को सोम की वृष्टि कहा जा सकता है और वही भद्र आपः अथवा शुद्ध आपः की वृष्टि भी है। इस स्थिति से पूर्व, मनुष्य के आपः (प्राण) अहंकार रूपी वृत्र के चंगुल में फंसे रहते हैं, जिससे उनमें काम, क्रोध आदि सर्पों का विष उन्हें अभद्र विषाक्त तथा अशुद्ध बना देता है। यह विष शब्द भी उदकनामों में परिगणित है। यह वस्तुतः शुद्ध उदक (प्राण) का ही अशुद्ध हुआ रूप है, जिसे विष कहा जाता है।

स्वयं वेदमंत्रों में, इस शुद्ध उदक का पान करना साधना का वह लक्ष्य है, जिसको प्राप्त करके साधक भगवान होने की कामना कर सकता है :-

सूयवसाद्भगवती हि भूया अथो वयं भगवन्तः स्याम। अद्धि तृणमघ्न्ये विश्वदानीं पिब शुद्धमुदकमाचरन्ती।। ऋ १, १६४, ४०,

इस मन्त्र में आत्मा की वाक् शक्ति को अघ्न्या कह कर यह संकेत किया गया है कि उसे अहंकार रूपी वृत्र से भयभीत होने की आवश्यकता नहीं है, अतः उससे निश्चिन्त होकर अहंकार जनित कषाय रूपी तृण को खाने और शुद्ध उदक पीकर आचरणशीला होने की अपेक्षा की गई है। यही आत्मशक्ति भगवती कही गई है और उसके भगवती रूप को पाकर ही साधक भगवान हो सकते हैं। इस मन्त्र से अगले मन्त्र में, उसी आत्मा की वाक् शक्ति को गौरी कहा गया है, जो उक्त ‘‘समानम् उदकम्’’ को अनेक ‘‘सलिलानि’’ में परिणत करती हुई एकपदी, द्विपदी, चतुष्पदी, अष्टापदी और नवपदी हो जाती है, यद्यपि वह मूलतः परम व्योम में स्थित सहस्राक्षरा वाक् है-

गौरीर्मिमाय सलिलानि तक्षत्येकपदी द्विपदी सा चतुष्पदी। अष्टापदी नवपदी बभूवुषी सहस्राक्षरा परमे व्योमन्।। ऋ १, १६४,४१.

निघण्टु के उदकनामों में परिगणित ‘‘सलिलम्’’ के अनेक रूपान्तरों को ही यहां सलिलानि कहा गया है। आत्मशक्ति इस अनेकता की सृष्टि करती हुई एकपदी से नवपदी हो जाती है। डा० फ़तहसिंह ने आगम-ग्रन्थों के आधार पर सहस्राक्षरा वाक् के इन नौ पदों को इस प्रकार परिभाषित किया है[29] :-

१. काल : - निमेष से लेकर प्रलय तक, जिसके अन्तर्गत चन्द्र तथा सूर्य भी आ जाते हैं।

२. कुल :- रूप (आकृति) रखने वाली सारी वस्तुएं।

३. नाम :- नामधारिणी सभी वस्तुएं।

४. ज्ञान :- दो प्रकार का सविकल्पक और निर्विकल्पक।

५. चित् : - अहंकार, बुद्धि, चित्त, मन और उन्मन।

६. नाद :- राग, इच्छा, कृति, प्रयत्न, जो क्रमशः परा, पश्यन्ती मध्यमा तथा वैखरी के समकक्ष है।

७. बिन्दु :- (आध्यात्मिक बीज) षट्चक्र (मूलाधार से आज्ञा तक)

८. कर्म :- मूलाधार से आज्ञा तक पचास वर्ण।

९. जीव :- मायाबद्ध आत्मा। Puranastudy (सम्भाषणम्) ०९:०२, ३० एप्रिल् २०२४ (UTC)उत्तर दें

प्राणोदक एक चेतन तत्व

[सम्पाद्यताम्]

प्राणोदक एक चेतन तत्व

पिछले अध्याय का समापन हमने ब्रह्म और बर्हिः जैसे उदकनामों के विवेचन के साथ किया है, जिससे स्पष्ट है कि वेद में जिस प्राणरूपी उदक का उल्लेख हुआ है, यह प्राण, अपान, व्यान आदि के रूप में पाया जाने वाला तथाकथित जड़तत्व नहीं है, अपितु एक चेतनतत्व है। अतएव काठकसंहिता प्राण को आत्मा ही मानती है[1]। जैमिनीय ब्राह्मण का कथन है कि प्राणों से ही आत्मा होता है और आत्मा से प्राण[2]।  इसका अर्थ यह है कि आत्मा की शक्ति ही प्राण है, जो अनेक प्रकार से प्रकट होकर मनुष्य व्यक्तित्व को नामरूप देती है। अतः शक्तिमान आत्मा की प्राणशक्ति अतिमानसिक और मानसिक सृष्टि की सृष्टिकर्त्री कही जा सकती है। यही वस्तुतः वह वाक् है, जिसे ‘प्राणानामुत्तमा’ कह कर हमने पिछले अध्याय में याद किया है और जो प्रजापति की वाक् के रूप में समस्त प्रजाओं को जन्म देकर प्रजापति में ही पुन प्रविष्ट होती हुई कही गई है[3] । इसी दृष्टि से निघण्टु के उदकनामों में ब्रह्म, सत्यं, ऋतं, क्षत्रं तथा अमृतं जैसे शब्द भी परिगणित हैं।

ऋग्वेद १.१६४ में प्रयुक्त उदकनाम

इस तथ्य के प्रमाणस्वरूप ऋग्वेद संहिता के सुप्रसिद्ध अस्यवामीय सूक्त (ऋ. १. १६४) में प्रयुक्त उदकनामों का विवेचन समीचीन होगा। बावन मन्त्रों का यह सूक्त प्रायः अध्यात्मप्रधान माना गया है। सायणाचार्य भी इस सूक्त के प्रथम मन्त्र का अध्यात्मकपरक भाष्य करते हुए कहते हैं कि इसी प्रकार सभी मन्त्रों का अध्यात्मपरक भाष्य संभव है, परन्तु ग्रन्थ विस्तार के भय से और स्वरस के अभाव से आगे ऐसा नहीं किया जा रहा है -

‘एवमुत्तरत्राप्यध्यात्मपरतया योजयितुं शक्यं। तथापि स्वरसत्वाभावात् ग्रन्थविस्तरभयाच्च न लिख्यते ।

अध्यात्मरहस्य से परिपूर्ण अनेक पहेलियां इस सूक्त में पूछी गई  हैं और उनका उत्तर भी दिया गया है। उदाहरणार्थ निम्नलिखित मन्त्र दृष्टव्य है-

इह ब्रवीतु य ईमङ्ग वेदास्य वामस्य निहितं पदं वेः।

शीर्ष्णः क्षीरं दुह्रते गावो अस्य वव्रिं वसाना उदकं पदापुः।। ७

इस मन्त्र में किसी वाम पक्षी के गुप्त पद को जानने की इच्छा प्रकट की गई है। उस पक्षी का निहित पद ‘ईम’ कहा गया है। यद्यपि ‘ईम्’ को भाष्यकारों ने प्रायः पादपूरक अथवा सर्वनाम ही समझा है, परन्तु निघण्टु में इसकी गणना उदकनामों में की गई है। इसी ‘ईम्’ के साथ इस मन्त्र में स्वयं उदकशब्द का भी उल्लेख है, जिसको गायें ‘पद’ से पीती हुई कही गई हैं, जबकि क्षीर का दोहन वे शीर्ष से करती हैं। निघण्टु में क्षीर शब्द भी उदकनाम माना गया है। इसी प्रकार सूक्त के चालीसवें मन्त्र में एक अघ्न्या भवगती का उल्लेख है, जिससे अपेक्षा की गई है कि वह तृण को खाये और शुद्ध उदक को पीये, जिससे कि हम भगवान हो जायें--‘अथो वयं भवतन्तः स्याम’

इसी प्रकार निघण्टु में परिगणित अन्य उदकनामों का भी प्रयोग इस विशाल सूक्त में हुआ है। इन नामों में से अमृतं, मधु, भुवनं, योनिः, पुरीषं, पिप्पलम, अक्षरं, पयः, स्वधा, सत्, रेतः, ऋतं, सलिलं, आपः, व्योम, सदनं, घृतं, अपां गर्भं और इदं का तो प्रत्यक्ष उल्लेख मिलता है। अप्रत्यक्ष रूप से महः, नभः, नाम, सर तथा रस शब्द भी इस सूक्त में प्रयुक्त हैं, जो निघण्टु में उदकनामों की सूची में सम्मिलित हैं। इस प्रसंग में मुख्य जिज्ञासा यह है कि क्या इन सब शब्दों को सामान्य जल के अर्थ में लिया जा सकता है, जो कि उदक शब्द का जाना-पहचाना प्रचलित अर्थ है? ऐसा करने पर, इस विषय की ऊहापोह करने चलते हैं, तो पता चलता है कि इन शब्दों में अनेक ऐसे हैं, जिनको भाष्यकारों ने कभी भी जलवाचक नहीं माना है। उदाहरणार्थ सदनं, योनिः, व्योम, भुवनं, सत्, नाम और पिप्पलं ऐसे ही शब्द हैं, जो निघण्टु में उदकनामों में परिगणित होते हुए भी भाष्यकारों द्वारा जलवाचक नहीं माने गये हैं। ऐसी स्थिति में उदकनामों को समझने के लिए सर्वप्रथम उदक शब्द की व्युत्पति पर विचार करते हुए, इस विषय में वेद के अन्तः साक्ष्य पर निर्भर होना अधिक उपयोगी और प्रामाणिक होगा। इस दृष्टि से, जैसा कि पहले कहा जा चुका है, अथर्ववेद ३,१३,४[4] की व्याख्या करते हुए सायणाचार्य ने ‘उदानिषुः’ शब्द को अन् प्राणने से निष्पन्न माना है। इस प्रसंग में यह भी उल्लेखनीय है कि उदान (प्राण) शब्द की व्युत्पत्ति भी उत् - अन् से ही होती है और ब्राह्मणग्रन्थों में ‘प्राणाः वै आपः’ कह कर उदकनामों में ‘आपः’ की प्राणरूपता तो स्वीकार ही की गई है, (स्वामी दयानन्द सरस्वती ने अस्यवामीय सूक्त के सैंतालीसवें मन्त्र में (अपः) का अर्थ ‘प्राणान्’ किया है। साथ ही उक्त अथर्वेदीय मन्त्र में उदक के मूल में एक देव का उल्लेख किया है। उसी की ओर लक्ष्य करते हुए अस्यवामीय सूक्त के निम्नलिखित दो मन्त्र भी प्रस्तुत किये जा सकते हैं-

समानमेतदुदकमुच्चैत्यव चाहभिः।

भूमिं पर्जन्या जिन्वन्ति दिवं जिन्वन्त्यग्नयः।। ५१

दिव्यं सुपर्णं वायसं बृहन्तमपां गर्भं दर्शतमोषधीनाम्।

अभीपतो वृष्टिभिस्तपर्यन्तं सरस्वन्तमवसे जोहवीमि।। ५२

इन दोनों मन्त्रों का सारांश यह है कि ऊर्ध्वगामी और अधोगामी दोनों प्रकार के उदकों में एक समान तत्व है। दूसरे शब्दों में, पर्जन्य जिस तत्व से भूमि का प्रीणन करते हैं, उसी तत्व से अग्नियां दिव का प्रीणन करती हैं। यह समान तत्व ही ओषधियों का दर्शनीय और बृहत् वायस, अपां गर्भं कहा गया है, जिसका आह्वान रक्षा के हेतु किया जाता है।

अतएव प्रश्न होता है कि क्या दिव्य जलतत्व और पार्थिव अग्नि में समान रूप से  स्थित इस एक देव या दिव्य सुपर्ण को प्राण कहा जा सकता है? इस प्रश्न का उत्तर ढूंढने चलते हैं तो अथर्ववेद के प्राणसूक्त (११.६) में इसका समाधान दृष्टिगोचर होता है। वहां प्राण के वर्णन में वर्षा का सुन्दर रूपक मिलता है। इस प्रसंग में निम्नलिखित मन्त्र विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं:-

यत्प्राण स्तनयित्नुनाऽभिक्रन्दत्योषधीः ।प्र वीयन्ते गर्भान् दधतेऽथो बह्वीर्वि जायते ॥३॥यत्प्राण ऋतावागतेऽभिक्रन्दत्योषधीः ।सर्वं तदा प्र मोदते यत्किं च भूम्यामधि ॥४॥यदा प्राणो अभ्यवर्षीद्वर्षेण पृथिवीं महीम् ।पशवस्तत्प्र मोदन्ते महो वै नो भविष्यति ॥५॥अभिवृष्टा ओषधयः प्राणेन समवादिरन् ।आयुर्वै नः प्रातीतरः सर्वा नः सुरभीरकः ॥६॥

इन मन्त्रों से स्पष्ट है कि प्राण घनगर्जन के साथ औषधियों में बरसकर उनको पुष्पित, पल्लवित और नाना रूप ग्रहण कराने में समर्थ करता है और प्राण जब पृथिवी पर बरसता है तो पशु प्रसन्न होते हैं और कहते हैं  कि अब हमारा ‘महः’ हो जायेगा। यहां ध्यातव्य है कि महः शब्द भी निघण्टु के उदकनामों में परिगणित है। अन्तिम मन्त्र में कहा गया है कि वर्षा हो जाने पर ओषधियां प्राण से वार्तालाप करती हैं और कहती हैं कि हमारी आयु को बढ़ाओ और हमें शोभनगन्धयुक्त करो।

प्राणों के प्रसंग में, उक्त अथर्ववेदीय सूक्त में वर्षा के रूपक के अतिरिक्त एक बात यह भी उल्लेखनीय है कि जहां पूर्वोक्त ऋग्वेदीय मन्त्र में आपः के समान तत्व अथवा एक देव को दिव्य सुपर्ण, बृहत् वायस तथा अपां गर्भ कहा गया है, वहां प्राणसूक्त में उसी को हंस कहा गया है-

एकं पादं नोत्खिदति सलिलाद्धंस उच्चरन् ।यदङ्ग स तमुत्खिदेन् नैवाद्य न श्वः स्यात्। न रात्री नाहः स्यान् न व्युछेत्कदा चन ॥शौअ ११.६.२१

इस मन्त्र में निघण्टु की उदकसूची का सलिल शब्द भी प्रयुक्त है और कहा गया है कि प्राणरूप हंस सलिल से अपने एक पैर को उठाता है, दूसरे को नहीं, और यदि उस एक को भी उठा  ले तो न रात होगी, न दिन और न कभी भी उषाकाल होगा। इससे संकेत मिलता है कि प्राणों की एक सलिलावस्था भी है, जिससे वह हंस कभी वियुक्त नहीं होता। इसी प्रकार प्राण का ही पूर्वोक्त महः रूप जिन पशवः से सम्बन्धित बताया गया है, वे संभवतः ज्ञानात्मक प्राण ही हैं, क्योंकि ‘पश्यन्तीति पशवः’ कह कर इन्हीं ज्ञानात्मक प्राणों की ओर संकेत किया गया है। दूसरे शब्दों में, जिस उदक को महः कहा गया है, वह किन्हीं ज्ञानपरक प्राणों की किसी उपलब्धि का द्योतक प्रतीत होता है। सम्भवतः ‘महः’ को ‘सुवर्गलोक’[5]  तथा मह इति ब्रह्म[6]  कह कर भी यही संकेत किया गया है। वास्तव में ‘महः’ प्राण का ही एक रूप है--‘प्राणा एव महः[7]।’

यदि इस प्रकार सलिल और महः को प्राणों की ही एक अवस्था मान लिया जाये, तो उदकवाचक अन्य शब्दों के लिए भी इस दिशा में समाधान ढूंढना होगा। उदाहरण के लिए योनिः शब्द को लेते हैं। सामान्यतः योनि को प्रजननद्वार अथवा प्रादुर्भाव स्थान कह सकते हैं। इस दृष्टि से अस्यवामीय सूक्त के निम्नलिखित मन्त्र में प्रयुक्त सयोनिः शब्द विचारणीय है-

अपाङ् प्राङेति स्वधया गृभीतोऽमर्त्यो मर्त्येना सयोनिः ।ता शश्वन्ता विषूचीना वियन्ता न्यन्यं चिक्युर्न नि चिक्युरन्यम् ॥३८॥ 

इस मन्त्र में उदकवाचक स्वधा दारा गृहीत अमर्त्य को मर्त्य के साथ योनि होकर, अधोगामी और ऊर्ध्वगामी होता हुआ बताया गया है, जिनमें से एक को तो अच्छी तरह जाना जा सकता है, परन्तु दूसरे को नहीं। निरसन्देह यहां अमर्त्य और मर्त्य की जो उभयनिष्ठ योनि कल्पित की गई है, वह मानव व्यक्तित्व ही है, जिसमें प्राण को स्थूलस्तर पर मर्त्य और सूक्ष्मस्तर पर अमर्त्य कहा जा सकता है। ये दोनों मनुष्यव्यक्तित्व में जिस स्वधा से गृहीत बताये गये हैं, वह भी निघण्टु के अनुसार उदकवाचक ही है। स्वधा की व्युत्पत्ति यदि ‘स्वं‘ दधातीति स्वधा‘ की जाए तो यह हो सकता है कि जिस स्वधा से अमर्त्य को यहां गृहीत बताया गया है, वह प्राण की व्यक्तित्व विधायक शक्ति हो, जिसके दारा वह घट-घट को एक विशेष व्यक्तित्व प्रदान करता है और साथ ही अपने मर्त्य और अमर्त्य दोनों रूपों को व्यक्तित्व में प्रादुर्भूत करके उसको अपनी उभयनिष्ठ योनि बनाता है, जिसके आधार पर उक्त मन्त्र में अमर्त्य प्राण को मर्त्य प्राण के साथ सयोनि होता हुआ बताया गया है, क्योंकि उक्त स्वधा के प्रभाव से ही मनुष्य-व्यक्तित्व मर्त्य और अमर्त्य दोनों की प्रादुर्भूत-स्थली बन सकता है। यदि उदक को प्राण माना जाये, तो योनि रूप में मनुष्यव्यक्तित्व को भी प्राण रूप उदक का ही एक विशेष रूप मानना पड़ेगा।

  निस्सन्देह, ऐसा मानने पर प्राण तत्व को मनुष्यव्यक्तित्व में होने वाले सभी विकारों अथवा परिवर्तनों को भी प्राणात्मक ही मानना पड़ेगा। सभ्भवतः भू धातु से निष्पन्न ‘भुवन‘ शब्द मनुष्यव्यक्तित्व में होने वाले इन्हीं विकारों अथवा परिवर्तनों का द्योतक है। अतः प्राणावाचक उदकनामों में भुवनशब्द की भी गिनती की गई है। इसी प्रकार के भुवनों का उल्लेख अस्यवामीय सूक्त के मन्त्र ३१ में देखा जा सकता है -

अपश्यं गोपामनिपद्यमानमा च परा च पथिभिश्चरन्तम्।

स सध्रीची स विषूचीर्वसाना आ वरीवर्ति भुवनेष्वन्तः।।

इस मन्त्र में, जैमिनीय उपनिषद ब्राह्मण (३,६,९,२)[8] और ऐतरेय आरण्यक (२,१,६)[9] के अनुसार गोपा प्राण का भी मूलरूप है, जिसमें व्यक्तित्व की समस्त अनेकता बीजरूप में निहित होती है। अतः इस मन्त्र में गोपा को अनिपद्यमान अर्थात् गतिहीन कहा गया है और उसी के गतिशील रूप को (पथिभिश्चरन्तम्) व्यक्तित्व के सभी भुवनों (विकारों, परिवर्तनों) के भीतर स्थित होता हुआ कहा गया है। प्राण के इस मूल अनिपद्यमान रूप को ही निघण्टु के उदकनामों में उल्लिखित ‘रेतः‘ के रूप में भी समझा जा सकता है। इसीलिए ३६वें मन्त्र[10] में कहा गया है कि भुवन का रेतः सप्त अर्धगर्भेा के रूप में विष्णु के परस्पर विपरीत धर्म के अन्तर्गत प्रदिशायें होकर स्थित हैं। वे सभी विपश्चित (मेधा सम्पन्न ) हैं, जो बुद्धियों और मन के द्वारा विश्वतः ‘ (चारों ओर) प्रकट हो रहे हैं। यहां विष्णु से संभवतः प्राण का ही एक व्यापक और विविधतामय रूप अभिप्रेत है, जो बुद्धि , मन और पंच कर्मेन्द्रियों के रूप में द्विविध प्रदिशाओं में परस्पर विरुद्ध धर्म उपस्थित करता है। इन्हीं दो सप्तकों के सन्दर्भ में मूलप्राण रुपी रेतस् को इन प्रदिशाओं में स्थित होता हुआ माना जा सकता है। निस्सन्देह, ये दोनों सप्तक आध्यात्मिक क्षेत्र से सम्बद्ध हैं, अतः उनको विपश्चित कहा गया है और बुद्धियों तथा मन द्वारा सर्वत्र व्यक्त होता हुआ बताया गया है। इस मन्त्र के ‘भुवनस्य रेतः ‘ को ही मन्त्र ३४ में वृष्णो अश्वस्य रेतः कहने के साथ-साथ ‘भुवनस्य नाभिः ‘भी कहा गया है और वाक् का परम व्योम भी -

पृच्छामि त्वा परमन्तं पृथिव्याः पृच्छामि यत्र भुवनस्य नाभिः।

पृच्छामि त्वा वृष्णो अश्वस्य रेतः पृच्छामि वाचः परमं व्योम।।३४॥

अभिप्राय यह है कि जो नानारूपात्मक भुवनरूप प्राण का रेतस् या बीज है, वही नानात्व को बांधने वाला केन्द्र होने से ‘नाभि‘ भी कहा जा सकता है और नानारूप धारण करने वाली (आत्मा की ) वाक् शक्ति का वही परम व्योम (उच्चतमावस्था) हो सकता है। रेतस् और व्योम रूप उच्चतमावस्था भी प्राणरूप उदक की ही एक अवस्था है। अतः रेतस् के साथ व्योम शब्द को भी निघण्टु के उदकनामों में परिगणित किया गया है। व्यक्तित्व के फैले हुए स्वरूप का पारिभाषिक नाम पृथिवी है, अतः इसी बीजरूप प्राण को पृथिवी का ‘परोअन्तः‘ तथा वेदि कहा गया है। प्राण का यही बीजरूप वर्धमान होने से ब्रह्म कहा जा सकता है। सूक्त के ३७वें मन्त्र में प्रयुक्त ‘इदं‘ शब्द को भी निघण्टु के उदकनामों में गिनाया गया है। सामान्यतः इदं शब्द एक सर्वनाम के रूप में ही जाना जाता है, परन्तु इस सूक्त में एकमात्र इसी मन्त्र में प्रयुक्त यह शब्द निघण्टु में उदकनाम माना जाये, तो यह कुतूहल पैदा करने वाली बात है। मन्त्र इस प्रकार है-

न वि जानामि यदिवेदमस्मि निण्यः सन्नद्धो मनसा चरामि।

यदा मागन्प्रथमजा ऋतस्यादिद्वाचो अश्नुवे भागमस्याः।।॥३७

यहाँ, दीर्घतमा अथर्व कहता है कि मैं अपने ‘इदं‘ रूप में जिसके समान हूँ, उसको मैं नहीं जानता। मैं छिपा हुआ और सम्यक् आबद्ध हुआ मन के द्वारा विचरण कर रहा हूँ। जब ‘ऋतस्य प्रथमजा‘ मेरे पास आता है, तो मैं इस वाक् के भाग को प्राप्त करता हूं। यहां ‘इदं‘ के अतिरिक्त ‘ऋतं‘ शब्द भी प्रयुक्त हुआ है, जो स्वयं उदकनामों की सूची में आता है। यदि वैदिक उदकनामों को प्राण के ही रूपान्तर माना जाये तो संभवतः प्राण की सर्वोत्कृष्ट अवस्था ऋत कही जा सकती है। इसी को उदकनामों में पूर्वोंक्त रेतस् तथा सलिल भी कहा जा सकता है। इसी का प्रथमजा रूप जब जीव के पास आता है, तो वह ब्राह्मीवाक् का भागीदार बनता है और तभी वह उस सच्चिदानन्द ब्रह्म को जान पाता है, जिसके समान वह वस्तुतः है। परन्तु इस समय अपने छिपे हुए और आबद्ध रूप में वह केवल मन की सहायता से ही विचरण कर रहा है। इस दृष्टि से यदि ‘इदं को प्राणरूपी उदक का वाचक माना जाये, तो यहां पर ‘इदं‘ जीवात्मा के उस प्राणस्वरूप का बोधक माना जा सकता है जो मन से आबद्ध होकर सक्रिय हो रहा हो। उदकनाम ऋतं का प्रयोग सूक्त के ४७वें मन्त्र में भी हुआ है। वहां प्रयुक्त अपः सदनात् और घृतेन भी निघण्टु के उदकनामों में सम्मिलित हैं। मन्त्र में कहा गया है कि आपः को आच्छादित करते हुए (अपो वसाना) कोई ‘हरयः सुपर्णाः एक ऐसे स्थान को उड़कर जा रहे हैं, जिसे ‘कृष्णं नियानं‘ कहा जा सकता है। वे ऋत के सदन से चारों ओर छा जाते हैं, तब घृत के द्वारा पृथिवी ओतप्रोत हो जाती है। सायण के अनुसार ‘सुपर्णाः‘ रश्मियां हैं और जिस कृष्ण नियान को वे जाती हैं, वे मेघ हैं। ऋत का सदन आदित्यमण्डल है, जहां से वे नीचे आकर जलरूप घृत से पृथिवी को ओतप्रोत कर देती हैं। डा० फतहसिंह के अनुसार जिस ‘कृष्णं नियानं‘ को उड़ते हुए ये सुपर्ण बताये गये हैं, वह भी मनुष्यव्यक्तित्व का कर्षणरहित वह चरम स्तर है, जहाँ से ऋत की उत्पत्ति होती है, अतः उसको ऋत का सदन भी कह सकते हैं। ये रश्मियां जिस घृत से मनुष्य के स्थूल स्तर (पृथिवी) को ओतप्रोत करती हैं, वह आनन्दमय कोश से रश्मियों द्वारा लाया आनन्द है। अतः उपर्युक्त ३७वें मन्त्र में प्रयुक्त ‘प्रथमजा ऋतस्य‘ से इसी ऋत के सदन से प्रथम प्रादुर्भूत रश्मियां अभिप्रेत हो सकती हैं।

  इस पृष्ठभूमि के आधार पर ही सूक्त के आठवें मन्त्र में प्रयुक्त ऋत को अच्छी प्रकार समझा जा सकता है-

माता पितरमृते आ बभाज धीत्यग्रे मनसा सं हि जग्मे।

सा बीभत्सुगर्भरसा निविद्धा नमस्वन्त इदुपवाकमीयुः।।

इस मन्त्र में कहा गया है कि ध्यानस्थ योगी(धीति) जब देशकाल से परे चेतना की अग्रभूमि पर अपने मन के द्वारा समाधिस्थ होता है, तो वाक्-रूप माता ब्रहमरूप पिता से ऋत में साझीदार होती है। तभी ब्रहमवीर्य से  गर्भधारण करने की इच्छा वाली वह पूर्व में भयभीत होती हुई भी, अब उससे पूर्णतया विद्ध हो जाती है। इसके परिणामस्वरूप नमस्क्रिया करने वाले विचार आदि ही वाक् की उसी निकटतमावस्था (ऋत, समाधि) को प्राप्त होते हैं।

उपर्युक्त अवस्था प्राप्त होने पर ही, आचरण में व्यक्त होती हुई वाक् से शुद्ध उदक पीने के लिए कहा गया है – पिब शुद्धमुदकमाचरन्ती‘। समाधि की अवस्था में इस उदक को पीकर ही गौरी वाक् सलिल रूप मूल प्राण को अनेक सलिलानि में परिणत करती है और एकपदी की अवस्था से द्विपदी, चतुष्पदी, अष्टापदी तथा नवपदी हो जाती है। अभिप्राय यह है कि समाधि की अवस्था में (परमे व्योमन्) योगी की जो शक्ति चेतना की अग्रभूमि पर जाकर एकपदी हो गई थी, वही व्युत्थान की अवस्था में पुनः नवस्तरीय सृष्टि में प्रवृत्त होती है। इसी प्रकार की अनेकतामयी सृष्टि का बोध कराने वाला भुवन शब्द है, जिसकी चर्चा पहले की जा चुकी है। भुवन का विलोम सूचक सत् शब्द भी उदकनामों में परिगणित है। सत् शब्द सत्तासूचक अस् धातु से निष्पन्न है, जबकि भुवन शब्द परिवर्तन सूचक भू धातु से निष्पन्न है। इस प्रकार अस्ति-भवति रूप में प्राणरुपी उदक के दो ध्रुव माने जा सकते हैं और दोनों ही निघण्टु के उदकनामों में परिगणित हैं। यह बात निम्नलिखित मन्त्र से स्पष्ट है --

इन्द्रं मित्रं वरुणमग्निमाहुरथो दिव्यः स सुपर्णो गरुत्मान्।

एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्त्यग्निं यमं मातरिश्वानमाहुः।। ४६

इस  मन्त्र में कहा गया है कि प्राण का जो एक सत् रूप है, वही इन्द्र, मित्र, वरुण, अग्नि आदि नामों से जाना जाता है। सत् के समान प्राणरूप उदक के एकत्वपरक कुछ अन्य नाम भी विचारणीय हैं। उनमें अक्षरं शब्द सूक्त के कईं मन्त्रों में आया है। उदाहरणार्थ

ऋचो अक्षरे परमे व्योमन्यस्मिन्देवा अधि विश्वे निषेदुः।

यस्तन्न वेद किमृचा करिष्यति य इत्तद्विदुस्त इमे समासते।। ३९

इस मन्त्र में जिस परम व्योम को अक्षर कहा गया है, वह मनुष्य व्यक्तित्व की वही चरमावस्था है, जिसमें सभी नानात्वमयी सृष्टि समाधिस्थ हो जाती है। इस नानात्वमयी सृष्टि को ही इस मन्त्र में विश्वेदेवा कहा गया है, जो सूक्त के प्रथम पन्द्रह मन्त्रों के देवता भी माने गये हैं। इससे स्पष्ट है कि जब ‘प्राणाः वै विश्वेदेवाः’[11]  कहा जाता है, तो इसी प्रकार की प्राणसृष्टि अभिप्रेत होती है जो मूलतः प्राण के अक्षर अथवा परम व्योमस्तर से प्रादुर्भूत होती है। अक्षर का क्षरण होना ही सृष्टि का उत्पादन और धारण समझा जाता है। इसी दृष्टि से बयालीसवें मन्त्र में कहा गया है कि जब वाक् के अनेक समुद्र विविध रूपों में क्षरण करते हैं, तो उससे चारों दिशाएं जीवन धारण करती हैं-

तस्याः समुद्रा अधि वि क्षरन्ति तेन जीवन्ति प्रदिशश्चतस्रः।

ततः क्षरत्यक्षरं तद्विश्वमुपजीवति।।४२॥

अक्षर के समान, उदकनामों में एक ‘अमृत’ शब्द भी है, जो प्राणरूप उदक की चरमावस्था का द्योतक माना जा सकता है। गुणवत्ता की दृष्टि से यह अवस्था अमृत है, मधु है, परन्तु इसकी बूंदों को ही अनेक प्राणरूपी सुपर्ण समाधि अवस्था में निर्निमेश अमृत रूप में अनुभव करते हुए अथवा मधुरूप में भोगते हुए कहे जाते हैं। यही वह अवस्था है जिसके पश्चात् समाधिस्थ योगी व्युत्थान की अवस्था प्राप्त करके अपने आचरण में ‘परिपाक’ देखता हुआ कह सकता है कि -

यत्रा सुपर्णा अमृतस्य भागमनिमेषं विदथाभिस्वरन्ति।

इनो विश्वस्य भुवनस्य गोपा स मा धीरः पाकमत्राविवेश।। २१

इसी समाधि में प्राप्त आनन्दरूपी मधु के आस्वादन की ओर इंगित करते हुए अन्यत्र ‘मध्वदः’ के साथ पिप्पलं शब्द का भी प्रयोग किया गया है, जो स्वयं उदकनामों की सूची में है

द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्व जाते।

तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्त्यनश्नन्नन्यो अभि चाकशीति ॥२०।

यस्मिन् वृक्षे मध्वदः सुपर्णा निविशन्ते सुवते चाधि विश्वे।

तस्येदाहुः पिप्पलं स्वाद्वग्रे तन्नोन्नशद्यः पितरं न वेद ॥२२।।

इन दोनों मन्त्रों में पिप्पलं के साथ प्रयुक्त स्वादु शब्द उदकवाची मधु शब्द की ओर इंगित कर रहा है। अभिप्राय यह है कि समाधिजन्य आनन्द को योगी व्युत्थान की अवस्था में भी विभिन्न प्रकार से आस्वादन करता रहता है, लेकिन यह तभी संभव है जब वह उस परमपिता परमेश्वर का साक्षात्कार करने में समर्थ होता है। तभी साधक के आचार-विचार में सर्वत्र ही उसी ब्राह्मानन्द के प्रभाव की अनुभूति होने लगती है। यह गीता की ब्रह्मकर्म-समाधि की अवस्था है और इसी को पूर्वोक्त परिपाक कहा जा सकता है।

प्राणोदक वाम का ईम्

उपर्युक्त विवेचन में उदकनामों को जिस प्रसिद्ध सूक्त (ऋ १, १६४) से लिया गया है, वह उस ‘वाम’ के उल्लेख से प्रारम्भ होता है, जिसके दो अन्य भ्राता बताये गये हैं।[12] शतपथ ब्राह्मण के अनुसार यह वाम स्वयं प्राणतत्व का बोधक है[13]  यही प्राणरूप वाम वह पक्षी है जिसके रहस्यमय निहित पद के लिए उदकनाम ईम् का प्रयोग हुआ है (ऋ १, १६४, ७)[14], तो अन्य उदकनामों (क्षीरं, उदकम्) को उसी वाम के क्रमशः शीर्ष तथा पैर से प्राप्य बताया गया है। इस प्रकार यहां वाम प्राण के जो तीन पद या स्तर संकेतित हैं, उन्हीं के परिप्रेक्ष्य में संभवतः वाम को तीन भाईयों में से एक माना गया है। इन तीन पदों में से जिस निहित पद को ईम् कहा गया है, उसकी तुलना सोम के ईम् नामक ‘अपीच्यं पदं’ (ऋ ९, ७१, ५)[15] से भी कर सकते हैं। परन्तु इस आधार पर, क्या वाम प्राण को सोम माना जा सकता है?

इस प्रश्न के उत्तर में ऐसे अनेक मन्त्रों को रखा जा सकता है, जहां इस ईम् नामक पद को इन्दु, सोम अथवा उसी के किसी अन्य नाम के साथ समीकृत किया गया है। उदाहरणार्थ, ऋ ९, ७२, ६ में जिस ईम् नामक अंशु को ‘गावः मतयः’ संयत करती हैं, वह सदन (उदकनाम) या ऋतस्य योनिः (उदकनाम) में संयत होता है[16] और उसका दोहन क्रियाशील कवि और मनीषी लोग ही कर पाते हैं। ऋ ९, ६३, १७ में, यही ईम् वह हरि नामक इन्दु है, जिसको इन्द्र के लिए ‘आयवः’ नामक प्राण शुद्ध करते हैं।[17] जब इन्द्र के ‘इन्द्रियं परमं’ को पृथिवी और द्यौ के अतिरिक्त तीसरे स्तर पर सम्पृक्त ईम् कहा जाता है, तो भी उक्त वाम के ही तीन पदों की ओर संकेत प्रतीत होता है[18]।  इन प्रमाणों के अतिरिक्त यह भी उल्लेखनीय है कि स्वयं सोम भी तत्वतः प्राण का ही एक रूप है, इसीलिए ब्राह्मण ग्रन्थ ‘प्राणः सोमः’ (कौ ब्रा. ९, ६ माश ७, ३. १.२) की घोषणा करते हैं[19]।  इसी सोमरूप प्राण को त्रिसप्त धेनवः[20]  मनुष्यव्यक्तित्व के ‘पूर्व्यव्योम’ नामक बहिर्मुखी पक्ष में दुहती हैं और वही सोम जब ऋत के द्वारा वर्धनशील होता है, तो वह अन्नमय कोश, प्राणमय कोश, मनोमयकोश और विज्ञानमय कोश के रूप में कल्पित भुवनानि को ‘चारूणि’ कर देता है[21]।  दूसरे शब्दों में ऋत नामक उदक के प्रभाव से सोम वर्धमान होकर चारों कोशों में ‘चारुता’ (सुंदरता) ले आता है जबकि बुद्धि और मन के साथ पांच ज्ञानेन्द्रियों और पञ्चप्राणों के अलग अलग बनने वाले तीन सप्तक रूप त्रिसप्त धेनवः’ सोम का दोहन अपने ढंग से, बहिर्मुखी आचरण स्तर (पूर्व्य व्योम)  पर ही, बिना ऋत का ध्यान किए हुए करते रहते हैं।

इसका तात्पर्य है कि ऋत नामक प्राणोदक के योग से ही प्राण-सोम को ‘वाम’ कहा जता है, परन्तु सोम मात्र वाम नहीं है, ऋत रहित सोम कदापि वाम नहीं है। वाम शब्द को निघण्टु के प्रशस्यनामों में परिगणित किया गया है। इसकी पुष्टि ताण्ड्य महाब्राह्मण भी यह कर   कहकर करता है कि जिसकी प्रशंसा करते हैं, उसी को वाम कहते हैं[22]।  वास्तव में सोम प्राण का उत्कृष्ट रूप ही वामदेव है, क्योंकि उसी को सब प्राण देव अपने में श्रेष्ठ मानते हैं[23]।  यही वामदेव्यं नामक साम की स्थिति है, जिसको शिवं, शान्तं, सुष्वाणं कह कर[24]  उसका समीकरण स्वयं आत्मा[25]  अथवा  यजमान लोकोऽमृतलोकः स्वर्गोलोकः के साथ किया जाता है[26]।  यही ‘वामदेव्य’ नामक स्थिति कौ (२७, २; २९, ३, ४) के अनुसार ‘शान्तिरूप भेषज’[27] कही जाती है और सभी सामों का सत् भी उसी को माना जाता है[28]।  यह जीवात्मा रूप प्राण नानात्व प्राप्त प्राणों को संगृहीत कर लेता है तो वह उन सब प्राणों के साथ ऊर्ध्वदिशा में उत्क्रमण करने वाला वामन[29]  कहा जाता है और वही अन्ततोगत्वा विष्णु का रूप धारण कर लेता है।

इसका अभिप्राय है कि प्राण रूप सोम पूर्वोक्त ऋत के उत्तरोत्तर सम्पर्क से अपने वामनरूप को विकसित करके तीनों लोकों को अपने उत्क्रमणों में समाहित करने वाला विराट् विष्णु बन जाता है। प्राण की इसी स्थिति का समीकरण स्वः ज्योति से किया जाता है, जो स्वयं एक उदकनाम है और इसे ही वाम, प्रकाश तथा उरु अन्तरिक्ष का भी नाम दिया जाता है और साथ ही यह भी बताया जाता है कि यह सोम का वह ‘हवि’ नामक स्वरूप है, जो वृत्रवध के बाद उभरता है और जिसके द्वारा मनुष्यव्यक्तित्व में अग्नि और वरुण यजन करने लगते हैं[30]।

इसी वाम को अपना उपास्यदेव बनाने वाला साधक वामदेव कहलाता है जिसकी बुद्धियों का (धीनाम्) रक्षक परमेश्वर रूप इन्द्र होता है[31]।  इस इन्द्र के नेतृत्व में जो सुनीति (सुमार्ग) और वामनीति (वाम की ओर गमन) उभरती है, जिनके द्वारा हम साधक लोग भवसागर   को आत्यन्तिक रूप से पार करने में समर्थ होते हैं। इस विकास प्रक्रिया के फलस्वरूप हम भूरिवाम रूप निवास के वाम के भागीदार होते हैं। यह कार्य जिस धी के द्वारा होता है, उसी से युक्त होकर साधक प्रार्थना करता है कि हे सविता देव। हमारे लिए वाम को आज उत्पन्न करो, कल उत्पन्न करो, और प्रतिदिन उत्पन्न करो जिससे हम उस वाम के भागीदार बन सकें।  अतः यह स्वाभाविक निष्कर्ष है कि वाम के इस अन्तिम स्वरूप को प्राप्त करने ही प्रक्रिया में अनेक प्रकार के वामों की प्राप्ति होती है। इसी दृष्टि से वैदिक ऋषि विभिन्न देवों से प्रार्थना करता हुआ बार-बार कहता है कि हम वामों का ध्यान करें-वामानि धीमहि[32] । यही वाम के आत्यन्तिक रूप को प्राप्त करने की उत्तरोत्तर प्रगतिशील वामनीति  है, जो सुकर्म करने वाले अपनाते हैं और यही इन्द्र के लिए होने वाला वह सोमाभिषवण माना जाता है, जिससे दिव्यधाम के   निमित्त विभिन्न प्रकार के वाम (वामं वामं) तथा वसु (वसु वसु) प्राप्त हेाते हैं[33]।

वाम, क्षत्र, और ओज

परमेश्वर इन्द्र और उसकी उषा नामक ज्योति, जो विविध प्रकार के वाम प्रदान करते हैं, उन्हीं को अर्यमा, पूषा, भग आदि विविध देव साधक को प्रदान करते हैं[34]।  यह ‘वाम’ ही वह ‘क्षत्र’ अथवा ‘ओज’ है, जिसके प्रादुर्भाव को इन्द्रजन्म माना जाता है और जो द्वेष रखने वाले जन (वृत्र) को हटाता है तथा देवों के लिए ‘उरू ऊँ लोक’ की सृष्टि करता है[35]।  इस प्रसंग में, यह स्मरणीय है कि निघण्टु के नामों में उक्त क्षत्र और ओज शब्द भी परिगणित हैं जिनका समीकरण यहां वाम और इन्द्र के साथ किया गया है।

परमेश्वर-प्रदत्त स्थविर, महान और वर्षणशील क्षत्र का जो वर्धन करते हैं, उनके वाम और मनीषा की बराबरी कोई नहीं कर सकता तथा वे अपने दिव्यकार्य अपस् द्वारा सोमपा होते हैं। यहां जिस अपस् द्वारा सोमपा होने की बात कही गई है, वह अपस् भी उदकनामों में परिगणित है। अतः ऐसा प्रतीत है कि उक्त क्षत्र की रक्षा वह अपस् है, जिसके द्वारा अद्वितीय वाम और अद्वितीय मनीषा की प्राप्ति सोमपा बनाने में सहायक होती है।

अभ्वं, विषं, अहिः और शम्बरम्ः

‘क्षत्रम्’ वह प्राणतत्व है, जो क्षत से त्राण करता है, परन्तु प्राण का ही एक रूप है, जो प्राणोदक के ऐसे रूप का वाच्य होता है, जिसको ‘अभ्वम्’ कहते हैं और जिसको भेदन करता आबद्ध जीवात्मा के आध्यात्मिक विकास के लिए आवश्यक समझा जाता है। ऐसे ही जीवात्मा का प्रतीक शुनःशेप है, जो त्रिविध बन्धनों से बंधा हुआ, वरुण से चिल्ला-चिल्ला कर कहा रहा है कि हे वरुण, न तो क्षत्र काम आ रहा है, न सहः, न मन्यु, न वयः और न ये आपः ही अभ्व के भेदन में समर्थ हो रहे हैं।[36]  यहां जिन क्षत्र, सहः, आपः तथा अभ्व उल्लेख हुआ है, वे सभी उदकनामों में परिगणित हैं। इसका अभिप्राय है कि उदकनामों में वाञ्छनीय और अवाञ्छनीय दोनों प्रकार के उदक के बोधक शब्द वर्तमान हैं। ‘अभ्वम्’ के समान ही अवाञ्छनीय उदक के वे रूप हैं, जिनको विषं, अहिः शम्बरं कहा गया है। जिस प्रकार अभ्वम्’ का बोध करने के लिए दिव्य उषा के प्रकाश की आवश्यकता पड़ती है[37] , उसी प्रकार विष नामक अरस उदक का विनाश करने के लिए किन्हीं सप्त स्वसाओं या त्रिसप्त मयूरियों की कल्पना की गई है।[38] इसी प्रकार अहि और शम्बर का भी वध आवश्यक समझा गया है, क्योंकि ये दोनों उदकनाम वस्तुतः अहंकार रूपी वृत्र के रूपान्तर हैं, जो जीवात्मा के लिए अत्यन्त उपयोगी आपः के प्रवाह को रोकते हैं अथवा प्राप्त आपः को शतं हिमाः या शरदः शतं में परिवर्तित कर देते हैं और इसके परिणामस्वरूप जीवात्मा उसी प्रकार आबद्ध आपः के लिए तरसता है, जिस प्रकार हम शुनःशेप को विलाप करते हुए ऊपर देख चुके हैं।

आपश्चन्द्राः

अहंकार रूपी अहि या वृत्र जिन आपः को अवरूद्ध करता है, वे हिरण्यवर्णाः शुचयः पावकाः कहे गये हैं[39]।  वे वस्तुतः हमारे व्यक्तित्व की हिरण्ययकोश नामक सबसे बड़ी गहराई में विद्यमान प्राण हैं। इन्हीं आपः को देवीः आपः भी कहा जाता है जिनसे शान्ति की कामना की जाती है। ये ही आप जब आनन्दमय आदि पंचकोशों में अवतीर्ण होते हैं, तो आपश्चन्द्रा कहे जाते हैं। इन आपश्चन्द्रा का वर्णन अर्थवेदीय शौनक संहिता के पचास मन्त्र वाले एक सूक्त (१०.५) में प्राप्त होता है। इन्हीं आपश्चन्द्रा को वह कः नामक प्रजापति उत्पन्न करता है[40] , जिसे ‘कम्’ रूप में एक सुखबोधक नाम स्वीकार किया गया है। ये शुद्ध, दिव्य आपश्चन्द्रा आनन्दमय, विज्ञानमय, मनोमय, प्राणमय और अन्नमय कोशों में क्रमशः ओज, सहः, बलम्, वीर्यम् तथा नृम्णम् नाम से जाने जाते हैं, जैया कि अथर्ववेद के इस मन्त्र से स्पष्ट है--

इन्द्रस्यौज स्थेन्द्रस्य सह स्थेन्द्रस्य बलं स्थेन्द्रस्य वीर्यं स्थेन्द्रस्य नृम्णं स्थ।

जिष्णवे योगाय ब्रह्मयोगैर्वो युनज्मि।। अथर्व १०, ५, १

इस मन्त्र में उक्त ओज आदि पांचों रूपों का जिष्णुयोग के निमित्त ब्रह्मयोगों द्वारा एकरूप में युक्त करने की बात भी कही गई है। जिष्णु शब्द विजयसूचक है, यह विजय जीवात्मा को उन अवाञ्छनीय तत्वों पर प्राप्त करनी है, जिन्हें ऊपर अभ्व, विष, अहि और शम्बर कहा गया है। ये और ऐसे ही अनेक देवशत्रु हैं, जिनके वध अथवा नियन्त्रण की चर्चा वेदमन्त्रों में प्रायः देखने को मिलती हैं। अतः जिष्णु योग मानवजीवन को सफल बनाने का सबसे बड़ा साधन माना जा सकता है। इस योग को सिद्ध करने के लिए, जिन उपायों का उल्लेख इस मन्त्र में हुआ है, उनमें भी निघण्टु का उदकवाचक ब्रह्म नाम है। अतः ब्रह्मयोग को एक प्रकार से वह ब्रह्मसाधना कह सकते हैं, जिसका उल्लेख तैत्तिरीय संहिता की ब्रह्मवल्ली में हुआ है। तदनुसार यह ब्रह्म साधना अन्नमय कोश से लेकर आनन्दमय कोश तक जाती है, जहां उक्त अथर्ववेदीय सूक्त में आपश्चन्द्रा का ओजरूप वर्तमान है। आरोहण क्रम से चलने वाली इस ब्रह्मसाधना के अनुसार क्रमशः अन्न, प्राण, मन, विज्ञान और आनन्द रूप से ब्रह्म की साधना बतायी गई है, जिसका  उल्लेख हम ‘आपानं ब्रह्म’ की अवधारणा के प्रसंग में कर चुके हैं। इन पांचों कोशों की पंचविध उक्त ब्रह्म साधना के रूप में हम पूर्वोक्त ब्रह्मयोगों के रूप में देख सकते हैं, जिनके द्वारा आपश्चन्द्रा के ओज आदि पांच रूपों को जिष्णु योग के निमित्त एक रूप में संयुक्त करने की बात कही गई है।

जिष्णुयोग की सिद्धि में ब्रह्मयोगों के पूरक क्षत्रयोग माने गये हैं। क्षत्रयोग में भी उदकनामों में परिगणित क्षत्र शब्द का समावेश है। क्षत्र हिरण्ययकोश से अवतरण करने वाली वह प्राणशक्ति है, जो अभ्व, विष, अहि और शम्बर जैसे शत्रुओं से मिलने वाले क्षत ( घाव) से त्राण करने में सक्षम है। इन शत्रुओं से यदि निरन्तर बाधा मिलती रहती है, तो ब्रह्मयोगों को वाञ्छित सफलता प्राप्त नहीं हो सकती है। इसी दृष्टि से उक्त अथर्ववेदीय सूक्त के द्वितीय मन्त्र में जिष्णुयोग के लिए क्षत्रयोगों द्वारा आपश्चन्द्रा के उक्त पांचों रूपों को संयुक्त करने की बात कही गयी है-

इन्द्रस्यौज स्थेन्द्रस्य सह स्थेन्द्रस्य बलं स्थेन्द्रस्य वीर्यं स्थेन्द्रस्य नृम्णं स्थ। जिष्णवे योगाय क्षत्र योगेर्वों युनज्मि।।

ब्रह्मयोगों और क्षत्रयोगों के संयुक्त प्रयास से जिष्णु योग की सिद्धि में निस्सन्देह बहुत बड़ी सहायता मिलती है, परन्तु इस सफलता में योगों की एक दूसरी जोड़ी की भी बड़ी देन रहती है। इन दोनों को क्रमशः इन्द्रयोग और सोमयोग कहते हैं। इन्द्रयोगों में सभी इन्द्रियों की चेतनाधाराओं को एकसूत्र में बांधने का ऊर्ध्वमुखी प्रयास होता है, जिसके फलस्वरूप फैली हुई मानसिक वृत्तियां सिमटकर मन को ऊर्ध्वमुखी बना देती हैं, ऐसे ही सभी प्रयासों को इन्द्रयोग कहा जाता है। अतः अथर्ववेदीय सूक्त के तृतीयमन्त्र में इन्द्रयोगों द्वारा आपश्चन्द्रा के उक्त पांचों रूपों को केन्द्रित करने का उल्लेख है – इन्द्रस्योज स्थेन्द्रस्य सह स्थेन्द्रस्य बलं स्थेन्द्रस्य वीर्यं स्थेन्द्रस्य नृम्णं स्थ। जिष्णवेयोगायेन्द्रयोगैर्वो युनज्मि।।

इन्द्रयोगों की सफलता जिस अनुपात में होती है, उसी अनुपात में आनन्दरूप कोश से आनन्द सोम का अवरोहण होने लगता है। इसी का नाम सोमयाग है। इसी दृष्टि से चतुर्थमन्त्र में आपश्चन्द्रा के पांचों रूपों को एकत्र करने के लिए सोमयोगों के उपयोग की बात कही गई है, क्योंकि सोम योग के बिना इन्द्रयोग आगे नहीं बढ़ सकता। इसी दृष्टि से इन्द्र वृत्र युद्ध में इन्द्र को सोमपान करके ही अपना पौरुष दिखलाने का वर्णन प्रायः मिलता है।

उक्त चारों योगों की श्रृंखलाओं से जिष्णुयोग की सिद्धि के लिए जो प्रयास किये जाते हैं, उनकी वास्तविक सफलता अप्सुयोगों के द्वारा ही संभव होती है। अप्सुयोग (अप्+सु+योग) में भी, उदकनामों में परिगणित अप शब्द के साथ सुब्रह्म का सूचक ‘सु’ प्रतीक विद्यमान है। अपः शब्द निघण्टु के कर्मनामों में भी परिगणित है। अतः अप्सुयोग का अभिप्राय सुब्रह्म की सभी शक्तियों का मनुष्य के कर्म अथवा आचरण के स्तर पर एकत्रित होना है। इसी योग के फलस्वरूप मनुष्य का कर्म श्रेष्ठतम होकर यज्ञ बनने लगता है-यज्ञो वै श्रेष्ठतमं कर्म।[41]  इसी दृष्टि से ऋग्वेद १, ११०, १ में अपः को पुनः पुनः विस्तारित करके विश्वदेव्य सोमयज्ञ[42]  का रूप दिया जाता है, जिसे ऐसा समुद्र भी बताया जाता है, जिसमें कि स्वादिष्ठाधीति (आनन्दमयी बुद्धि) प्रशंसित होती हुई बतायी गई है। इस प्रकार अप्सुयोगों द्वारा मनुष्य अपने आचरण को शुद्ध बनाने में आध्यात्मिक शक्तियों का प्रयोग करता हुआ जिष्णुयोग की पूर्ण सिद्धि करने में समर्थ होता है। अतः अथर्ववेदीय सूक्त में पंचम मन्त्र में अप्सुयोग की उपादेयता इस प्रकार बतायी गई है-

इन्द्रस्यौज स्थेन्द्रस्य सह स्थेन्द्रस्य बलं स्थेन्द्रस्य वीर्यं

स्थेन्द्रस्य नृम्णं स्थ। जिष्णवे योगायाप्सुयोगैर्वो युनज्मि।।

इन्हीं योगों के फलस्वरूप, मनुष्यव्यक्ति के सभी पंच महाभूत साधक की सेवा में उपस्थित हो जाते हैं और आपश्चन्द्रा के सभी रूप भी केन्द्रीभूत हो जाते हैं-

इन्द्रस्यौज स्थेन्द्रस्य सह स्थेन्द्रस्य बलं स्थेन्द्रस्य वीर्यं स्थेन्द्रस्य नृम्णं स्थ।

जिष्णवे योगाय विश्वानि मा भूतान्युपतिष्ठन्तु युक्तौ म आप स्थ। अथर्व १०,५ , ६

इस मन्त्र में आपः के युक्त होने का एक विशेष अभिप्राय है। जब तक जिष्णुयोग के लिए विविध प्रयास प्रारम्भ नहीं हुए थे, तब तक अहंकार रूप अहि ने दिव्य आपश्चन्द्रा का मार्ग अवरुद्ध कर रखा था और अन्नमय प्राणमय और मनोमय कोश के आपः को अपने अधीन कर रखा था। इसी दृष्टि से कभी-कभी आपः को अहिगोपाः भी कहा जाता है। अब जिष्णुयोग के सफल होने पर अहिगोपा आपः भी मुक्त होकर आपश्चन्द्रा के साथ समरस हो गये। अतः मनुष्यव्यक्तित्व के सभी स्तरों के प्राणरूप आपः दिव्य चेतनतत्व बन गये। ये सभी आपः दिव्य होने के कारण प्रस्तुत अथर्ववेदीय सूक्त में विभिन्न देवों और पितरों के अंगभूत माने गये हैं। अतः ‘आपः देवीः’ को अग्नि, प्रजापति, इन्द्र, सोम, वरुण, मित्रावरुण, यम, पितर और सविता आदि का भाग बताते हुए उनसे प्रार्थना की गई है कि हमारे भीतर वर्चस को स्थापित करो, जो आपः का शुक्ररूप है[43]।’  आपः का जो भाग कर्मों के अन्तर्गत (अप्सु अन्तः) आ जाता है, उसको ‘यजुष्यो देवयजनः’ कहा जाता है और वह चरमावस्था तक पहुंच कर, हमारे उस अहंकार रूपी अहिः को समाप्त कर देता है, जो हमसे द्वेष करता है और हम जिससे द्वेष करते हैं तथा हम उसका वध इस ब्रह्म कर्म के द्वारा कर दें।[44]’  हमारे ये निष्पाप आपः सम्पूर्ण अनृत, दुरित, एनस्, दुष्वप्न्य और मल को दूर कर देते हैं।[45] 

ऊपरी कोशों से प्रवाहित होने वाला यह दिव्य आपः नीचे के कोशों में विष्णुक्रम (विष्णुविक्रमण) को जन्म देता है। अतः आपः को सम्बोधित करते हुए कहा जाता है कि तुम्हीं विष्णु के वह क्रम हो, जो शत्रुसंहारक, पृथ्वी-शंसित, अग्नितेजः है। इसकी सहायता से हम पृथ्वी का अनुक्रमण करते हैं और पृथ्वी से उसको निष्कासित करते हैं, जो हमसे द्वेष करता है और जिससे हम द्वेष करते हैं। वह न जिये, प्राण उसको त्याग दें।[46]  इसी प्रकार शत्रुनाशक, अन्तरिक्षशंसित, वायुतेज, विष्णुक्रम कह कर अन्तरिक्ष का अनुक्रमण करके अन्तरिक्ष से उक्त शत्रु को निष्कासित करने की बात कही जाती है।[47]  द्यौ की दृष्टि से, शत्रुनाशक यही विष्णुक्रम द्यौ शंसित, सूर्यतेज कहा जाता है, जिसके द्वारा द्यौ का अनुक्रमण करके उक्त शत्रु को द्युलोक से निष्कासित किया जाता है।[48] अन्यत्र, पृथिवी, अन्तरिक्ष और द्यौ में होने वाले इन तीनों विष्णुक्रमों को तीन विक्रमण कहा गया है, जिसके आधार पर विष्णु का त्रिविक्रम नाम भी पड़ा है।[49]  हम पहले ही देख चुके हैं कि जब तक दिव्य आपः का ऊपर से क्षरण नहीं होता, तब तक जीवात्मा बौना (वामन) बन कर पड़ा रहता है और दिव्य आपः का प्रवाह आने पर वही वामन विराट् विष्णु होकर विक्रमण करने लगता है।

उक्त तीनों विक्रमण वस्तुतः अन्नमय, प्राणमय, और मनोमय कोशों में होते हैं, जिन्हें यहां क्रमशः पृथिवी, अन्तरिक्ष और द्यौ माना गया है। इन तीन विक्रमों के बाद उक्त विष्णुक्रम का रूप बदल जाता है। पहले वह नीचे से ऊपर को गति करता था, परन्तु अब वह शत्रुनाशक दिवशंसित, मनस्तेजः होकर दिशाओं का अनुविक्रमण करता है।[50]  और इस प्रकार सभी दिशाओं से पूर्वोक्त शत्रु को निष्कासित करता है। इसका अर्थ है कि अब विष्णुक्रम चक्रवत् घूमने लगता है। संभवतः पौराणिक विष्णु के चक्रायुध रूप की कल्पना का आधार यही है। इसी प्रकार पूर्वोक्त आपश्चन्द्राः विष्णुक्रम रूप में वाततेजः ब्रह्मतेजः, सोमतेजः और वरुणतेजः होकर क्रमशः आशाओं, ऋचाओं, यज्ञ, औषधि और आपः (अहिगोपाः) से पूर्वोक्त शत्रु को निष्कासित करने का काम करते हैं।[51]  इसके पश्चात् जिस शत्रुनाशक विष्णुक्रम का उल्लेख है, वह कृषि शंसित (अन्नतेज) कहा गया है, जो पूर्वोक्त शत्रु को कृषि से दूर भगाता है।[52]  डा० फतहसिंह के अनुसार यह कृषि शब्द खेती बाड़ी का द्योतक नहीं है। वे इस कृषि को वेद की कृष, कृष्टिहा, कृष्टय आदि शब्दों से जोड़ते हैं[53] । तदनुसार कृष्टि शब्द कर्षणवाचक है। असत् से सत् की ओर,  मृत्यु से अमृत की ओर, तम से ज्योति की ओर जो कर्षण होता है, उसमें हमारा अहंकार रूप अहि बाधक होता है। अतः वहां से भी उक्त शत्रु को बाहर निकालने की आवश्यकता होती है। कृषि शब्द की व्याख्या की पुष्टि इस बात से होती है कि विष्णुक्रम के अन्य सभी वर्णन आध्यात्मिक क्षेत्र से ही सम्बन्धित है। तदनुसार विष्णुक्रम के अन्य सभी वर्णन आध्यात्मिक क्षेत्र से ही सम्बन्धित हैं। तदनुसार विष्णुक्रम को शत्रुनाशक प्राणशंसित, पुरुषतेज[54]  कह कर उसके द्वारा प्राणों से अहंकार नामक अहि को निष्कासित करने का उल्लेख करके कहा गया है कि मेरी विजय हो गयी, मैंने अपने  सब शत्रुओं को छिन्न-भिन्न कर दिया और अब मैं परलोकस्वामी के पुत्र का वर्चस्, तेजस् प्राण तथा आयु का अपने में निवेष्टन करता हूं और उस अहंकार रूप अहि को नीचे पैरों से कुचल रहा हूं[55] ।

पूर्वोक्त मन्त्र में जिसको परलोक स्वामी कहा है, वह सूर्य प्रतीत होता है, क्योंकि अगले मन्त्र में साधक कहता है कि अब मैं सूर्य के मन्त्रों से आवृत्त होकर दक्षिण दिशा में आवर्तन कर सका, जिससे मुझे उस दिशा में ब्रह्मणवर्चस् प्राप्त हो जाये[56]।  इसी प्रकार ज्योतिष्मती दिशाओं, सप्तर्षियों तथा ब्राह्मणों में अभ्यावर्तन करके द्रविण और ब्रह्मणवर्चस् की प्राप्ति चाही गई है[57]।  अगले तीन मन्त्रों में साधक कहता है कि जिस शत्रु की खोज हम कर रहे हैं, उसको हम दिव्य आयुधों से, वैश्वानर के दांतों से अथवा राजा वरूण के पाश में बांधकर नष्ट कर दें।[58] 

अन्त में दिव्य आपः की याचना करते हुए अग्नि से वर्चस् सहित किसी ‘आगम’ के सृजन की प्रार्थना की गई है और उसके साथ ही प्रजा, आयु आदि की इच्छा करते हुए यह प्रार्थना की गई है कि ऋषियों सहित इन्द्रदेव को जाने और अग्नि यातुधानों का हृदयवेधन करें, मूरदेवों को नष्ट करें।[59]  अन्त में, सूक्त का उपसंहार करते हुए साधक कहता है कि शीर्षवेधन योग्य अपने अहंकार रूप अहि पर इस प्रकार आपः के चतुर्भृष्टि वज्र का प्रहार करता है ‘जिससे वह वज्र उसके सभी अंगों को चूर-चूर कर दे और मेरे इस कार्य को विश्वेदेवा जान लेवें।[60]  यहां आपः के चतुर्भृष्टि वज्र से अभिप्राय, उसी विष्णु क्रम से प्रतीत होता है, जो चारों दिशाओं में गतिशील हुआ था और जिसका वर्णन उपर्युक्त कई मन्त्रों में किया जा चुका है।

यहां जिन आपः के चतुर्भृष्टि वज्र का उल्लेख है, वे निस्सन्देह वही आपश्चन्द्रा हैं, जो उक्त सम्पूर्ण सूक्त (शौ १०, ५) के देवता हैं और जिन्हें विभिन्न देवों का अंगभूत मानते हुए ‘आपः देवी’ कहा गया है। इसी अध्याय का प्रारम्भ में हमने अनेक उदकनामों का उल्लेख और विवेचन अस्यवामीयसूक्त के प्रसंग में किया। वे सभी सोम आदि दिव्य तत्वों के वाचक होने से चेतनायुक्त पाये गये। इस प्रसंग में, हमने ब्रह्म, सत्यं, ऋतं, क्षत्रं जैसे शब्दों उदकनामों पर चर्चा की और यह ज्ञात हुआ कि जहां अहिगोपाः आपः अथवा उदक विष कहे जा सकते हैं, वहीं उसके विपरीत उनकी एक अवस्था का नाम अमृत भी है। इसलिए अब हम यह कहने की स्थिति में हैं कि प्राणरूप आपः एक चेतनतत्व ही है। यही नहीं, उदकनामों में समाविष्ट तद्वाचक अन्य नाम किसी न  किसी चेतन तत्व के बोधक कहे जा सकते हैं। इसी निष्कर्ष की पुष्टि अगले अध्याय में और अधिक सुनिश्चित हो जायेगी।


[1] वातः प्राणस्तदयमात्मा काठक सं. ७.१४, कपि. ६.४

[2] प्राणेभ्यो वा आत्मा संभवति आत्मनो वा प्राणाः । जै.ब्रा. १.३५३

[3] प्रजापतिर्वा इदमासीत् तस्य वाग् द्वितीयासीत्.. सा प्रजापतिमेव पुनः प्राविशद् - काठ. १२.५, २७.१, क. ४२.१ तु. जै.ब्रा. २.२४४, तां.ब्रा २०.१४.२

[4] एकः वो देवोऽप्यतिष्ठत्स्यन्दमाना यथावशम् ।

उदानिषुर्महीरिति तस्मादुदकमुच्यते ॥ अथर्ववेद ३,१३,४

[5] सुवर्गो  वै लोको महः – तै.ब्रा. ३.८.१८.४

[6] सुवरिति यजूंषि । मह इति ब्रह्म - तै.आ. ७.५.१, तै.उ. १.५.३

[7] वाग् एव भर्गः प्राण एव महः - गोब्रा. १.५.१५, जै.ब्रा. २.३.९

[8] प्राणो वै गोपाः स हीदं सर्वमनिपद्यमानो गोपायति - जैउब्रा. ३,६,९,२

[9] अपश्यं गोपामित्येष वै गोपा एष हीदं सर्वं गोपायति ऐआ. २.१.६

[10] सप्तार्धगर्भा भुवनस्य रेतो विष्णोस्तिष्ठन्ति प्रदिशा विधर्मणि ।

ते धीतिभिर्मनसा ते विपश्चितः परिभुवः परि भवन्ति विश्वतः ॥३६॥

[11] उद् उ त्वा विश्वे देवा इत्य् आह प्राणा वै विश्वे देवाः । -तै.सं. ५.२.२.१ ५.४ ६.१ , मै १.५.११, काठ. १९.१२, २१.८, क ३१.२, स्वाहा विश्वेभ्यो देवेभ्य इति प्राणा वै विश्वे देवाः - माश १४.२.२.३७

[12] अस्य वामस्य पलितस्य होतुस्तस्य भ्राता मध्यमो अस्त्यश्नः ।

तृतीयो भ्राता घृतपृष्ठो अस्यात्रापश्यं विश्पतिं सप्तपुत्रम् ॥१॥

[13] सेयं वामभृत् ।प्राणा वै वामम्। माश ७.४.२.३५

[14] इह ब्रवीतु य ईमङ्ग वेदास्य वामस्य निहितं पदं वेः ।

शीर्ष्णः क्षीरं दुह्रते गावो अस्य वव्रिं वसाना उदकं पदापुः ॥ ऋ १, १६४, ७॥

[15] समी रथं न भुरिजोरहेषत दश स्वसारो अदितेरुपस्थ आ ।

जिगादुप ज्रयति गोरपीच्यं पदं यदस्य मतुथा अजीजनन् ॥ ऋ ९, ७१, ५


[16] अंशुं दुहन्ति स्तनयन्तमक्षितं कविं कवयोऽपसो मनीषिणः ।

समी गावो मतयो यन्ति संयत ऋतस्य योना सदने पुनर्भुवः ॥ ऋ ९, ७२, ६

[17] तमी मृजन्त्यायवो हरिं नदीषु वाजिनम् ।

इन्दुमिन्द्राय मत्सरम् ॥ ऋ ९, ६३, १७

[18]तत्त इन्द्रियं परमं पराचैरधारयन्त कवयः पुरेदम् ।

क्षमेदमन्यद्दिव्यन्यदस्य समी पृच्यते समनेव केतुः ॥ ऋ. १.१०३.१

[19] आत्मा वै यज्ञस्य होता । प्राणः सोमः । -कौ ब्रा. ९, ६, आत्मा वा अग्निः प्राणः सोम आत्मंस्तत्प्राणं मध्यतो दधाति - माश ७, ३. १.२ तु. प्राणो वै सोमो राजा. तद् यद् धविर्धाने ग्रावभिस् सोमं राजानम् अभिषुत्य नानाग्रहान् गृह्णन्ति- जै १.३६१, प्राणो वै सोमः प्राणं तद्रेतसि दधाति तस्माद्रेतः सिक्तं प्राणमभिसम्भवति-माश ७.३.१.४५, र्यस्य चमस उपदस्यति चमसमेव तस्योपवायन्तं प्राणोऽनूपदस्यति प्राणो हि सोमो - काठ. सं. ३५.१६, कपि.कसं ४५.१४, तां.ब्रा. ९.१.५

[20] त्रिसप्त धेनवः से जो तीन चेतना-सप्तक अभिप्रेत हैं, वे इस प्रकार हैं- १. बुद्धि, मन और पंच ज्ञानेन्द्रियां, २. बुद्धि, मन और पंच कर्मेन्द्रियां

[21] त्रिरस्मै सप्त धेनवो दुदुह्रे सत्यामाशिरं पूर्व्ये व्योमनि ।

चत्वार्यन्या भुवनानि निर्णिजे चारूणि चक्रे यदृतैरवर्धत ॥ऋ. ९.७०.१

[22]यं वै गां अश्वं पुरुषं प्रशंसन्ति वाम इति तं प्रशंसन्ति-  तां.ब्रा. १३.३.१९

[23]तं यद्देवा अब्रुवन्नयं वै नः सर्वेषां वाम इति तस्माद्वामदेवः -  ऐ.आ २.२.१.३

[24]अथ वामदेव्यं शिवं शान्तं सुष्वाणम् अनुवर्तता इति। - जैब्रा. २.१९४

[25] वामदेव्यम् एवैतस्याह्नः पृष्ठं कार्यम् इति। आत्मा वै व्रतस्य वामदेव्यम्। - जैब्रा २.४११

[26] ऐआ ३.४६

[27] शान्तिर् वै भेषजम् वामदेव्यम् । - कौ २७, २; २९, ३, ४

[28] सद्वै वामदेव्यं साम्नां सद्विराट्छन्दसां - तां.ब्रा. १५.१२.२

[29] जैब्रा ३.५१.८

[30] इदं स्वरिदमिदास वाममयं प्रकाश उर्वन्तरिक्षम् ।

हनाव वृत्रं निरेहि सोम हविष्ट्वा सन्तं हविषा यजाम ॥ ऋ. १०.१२४.६

[31] ४.१६.१६

[32] ५.६२.६,

सुप्रावर्गं सुवीर्यं सुष्ठु वार्यमनाधृष्टं रक्षस्विना ।

अस्मिन्ना वामायाने वाजिनीवसू विश्वा वामानि धीमहि - ८.२२.१८.

स दृळ्हे चिदभि तृणत्ति वाजमर्वता स धत्ते अक्षिति श्रवः ।

त्वे देवत्रा सदा पुरूवसो विश्वा वामानि धीमहि ॥ - ८.१०३.५

[33]एते नरः स्वपसो अभूतन य इन्द्राय सुनुथ सोममद्रयः ।

वामंवामं वो दिव्याय धाम्ने वसुवसु वः पार्थिवाय सुन्वते ॥- १०.७६.८

[34] वामंवामं त आदुरे देवो ददात्वर्यमा ।

वामं पूषा वामं भगो वामं देवः करूळती ॥ ४.३०.२४

[35] इन्द्र क्षत्रमभि वाममोजोऽजायथा वृषभ चर्षणीनाम् ।

अपानुदो जनममित्रयन्तमुरुं देवेभ्यो अकृणोरु लोकम् ॥ - १०.१८०.३

[36]नहि ते क्षत्रं न सहो न मन्युं वयश्चनामी पतयन्त आपुः ।

नेमा आपो अनिमिषं चरन्तीर्न ये वातस्य प्रमिनन्त्यभ्वम् ॥-  १.२४.६


[37] प्रत्यर्ची रुशदस्या अदर्शि वि तिष्ठते बाधते कृष्णमभ्वम् ।

स्वरुं न पेशो विदथेष्वञ्जञ्चित्रं दिवो दुहिता भानुमश्रेत् ॥ १.९२.५


[38] त्रिः सप्त मयूर्यः सप्त स्वसारो अग्रुवः ।

तास्ते विषं वि जभ्रिर उदकं कुम्भिनीरिव ॥१४॥

इयत्तकः कुषुम्भकस्तकं भिनद्म्यश्मना ।

ततो विषं प्र वावृते पराचीरनु संवतः ॥१५॥

कुषुम्भकस्तदब्रवीद्गिरेः प्रवर्तमानकः ।

वृश्चिकस्यारसं विषमरसं वृश्चिक ते विषम् ॥- १.१९१.१४-१६

[39]हिरण्यवर्णाः शुचयः पावका यासु जातः सविता यास्वग्निः ।

या अग्निं गर्भं दधिरे सुवर्णास्ता न आपः शं स्योना भवन्तु ॥शौअ. १.३३.१

[40]मा नो हिंसीज्जनिता यः पृथिव्या यो वा दिवं सत्यधर्मा जजान ।

यश्चापश्चन्द्रा बृहतीर्जजान कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥ १०.१२१.९

[41] काठ. ३०.१०, क ४६.५ तै ३.२.१.४, माश १,७,१,५.। तु. मै ४.१.१

[42] ततं मे अपस्तदु तायते पुनः स्वादिष्ठा धीतिरुचथाय शस्यते ।

अयं समुद्र इह विश्वदेव्यः स्वाहाकृतस्य समु तृप्णुत ऋभवः ॥ १, ११०, १ देखिए इस मन्त्र सायणभाष्य

[43] अग्नेर्भाग स्थ अपां शुक्रमापो देवीर्वर्चो अस्मासु धत्त ।

प्रजापतेर्वो धाम्नास्मै लोकाय सादये ॥१०.५.७॥

इन्द्रस्य भाग स्थ अपां शुक्रमापो देवीर्वर्चो अस्मासु धत्त ।

प्रजापतेर्वो धाम्नास्मै लोकाय सादये ॥१०.५.८॥

सोमस्य भाग स्थ अपां शुक्रमापो देवीर्वर्चो अस्मासु धत्त ।

प्रजापतेर्वो धाम्नास्मै लोकाय सादये ॥१०.५.९॥

वरुणस्य भाग स्थ अपां शुक्रमापो देवीर्वर्चो अस्मासु धत्त ।

प्रजापतेर्वो धाम्नास्मै लोकाय सादये ॥१०.५.१०॥  

मित्रावरुणयोर्भाग स्थ अपां शुक्रमापो देवीर्वर्चो अस्मासु धत्त ।

प्रजापतेर्वो धाम्नास्मै लोकाय सादये ॥१०.५.११॥

यमस्य भाग स्थ अपां शुक्रमापो देवीर्वर्चो अस्मासु धत्त ।

प्रजापतेर्वो धाम्नास्मै लोकाय सादये ॥१०.५.१२॥

पितॄणां भाग स्थ अपां शुक्रमापो देवीर्वर्चो अस्मासु धत्त ।

प्रजापतेर्वो धाम्नास्मै लोकाय सादये ॥१०.५.१३॥

देवस्य सवितुर्भाग स्थ अपां शुक्रमापो देवीर्वर्चो अस्मासु धत्त ।

प्रजापतेर्वो धाम्नास्मै लोकाय सादये ॥१०.५.१४॥ अथर्व १०.५.७-१४

[44] तेन तमभ्यतिसृजामो योऽस्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः ।

तं वधेयं तं स्तृषीयानेन ब्रह्मणानेन कर्मणानया मेन्या ॥ १०.५.१६ ॥

यो व आपोऽपां वत्सोऽप्स्वन्तर्यजुष्यो देवयजनः ।

इदं तमति सृजामि तं माभ्यवनिक्षि ।

तेन तमभ्यतिसृजामो योऽस्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः ।

तं वधेयं तं स्तृषीयानेन ब्रह्मणानेन कर्मणानया मेन्या ॥ १०.५.१७ ॥

यो व आपोऽपां वृषभोऽप्स्वन्तर्यजुष्यो देवयजनः ॥ इदं तमति सृजामि तं माभ्यवनिक्षि ।

तेन तमभ्यतिसृजामो योऽस्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः ॥ तं वधेयं तं स्तृषीयानेन ब्रह्मणानेन कर्मणानया मेन्या ॥ १०.५.१८ ॥

यो व आपोऽपां हिरण्यगर्भोऽप्स्वन्तर्यजुष्यो देवयजनः ।

इदं तमति सृजामि तं माभ्यवनिक्षि ।

तेन तमभ्यतिसृजामो योऽस्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः ।

तं वधेयं तं स्तृषीयानेन ब्रह्मणानेन कर्मणानया मेन्या ॥ १०.५.१९ ॥

यो व आपोऽपामश्मा पृश्निर्दिव्योऽप्स्वन्तर्यजुष्यो देवयजनः ।

इदं तमति सृजामि तं माभ्यवनिक्षि ।

तेन तमभ्यतिसृजामो योऽस्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः ।

तं वधेयं तं स्तृषीयानेन ब्रह्मणानेन कर्मणानया मेन्या ॥ १०.५.२० ॥

यो व आपोऽपामग्नयोऽप्स्वन्तर्यजुष्यो देवयजनः ।

इदं तमति सृजामि तं माभ्यवनिक्षि ।

तेन तमभ्यतिसृजामो योऽस्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः ।

तं वधेयं तं स्तृषीयानेन ब्रह्मणानेन कर्मणानया मेन्या ॥  शौअ १०.५.१६-२१

[45] यो व आपोऽपामग्नयोऽप्स्वन्तर्यजुष्यो देवयजनः ।

इदं तमति सृजामि तं माभ्यवनिक्षि ।

तेन तमभ्यतिसृजामो योऽस्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः ।

तं वधेयं तं स्तृषीयानेन ब्रह्मणानेन कर्मणानया मेन्या ॥ १०.५.२१ ॥

यदर्वाचीनं त्रैहायणादनृतं किं चोदिम ।

आपो मा तस्मात्सर्वस्माद्दुरितात्पान्त्वंहसः ॥१०.५.२२॥

समुद्रं वः प्र हिणोमि स्वां योनिमपीतन ।

अरिष्टाः सर्वहायसो मा च नः किं चनाममत्॥१०.५.२३॥

अरिप्रा आपो अप रिप्रमस्मत्।

प्रास्मदेनो दुरितं सुप्रतीकाः प्र दुष्वप्न्यं प्र मलं वहन्तु ॥ शौअ १०.५.२१-२४

[46] विष्णोः क्रमोऽसि सपत्नहा पृथिवीसंशितोऽग्नितेजाः ।

पृथिवीमनु वि क्रमेऽहं पृथिव्यास्तं निर्भजामो योऽस्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः ।

स मा जीवीत्तं प्राणो जहातु ॥ शौअ १०.५.२५

[47] विष्णोः क्रमोऽसि सपत्नहान्तरिक्षसंशितो वायुतेजाः ।

अन्तरिक्षमनु वि क्रमेऽहमन्तरिक्षात्तं निर्भजामो योऽस्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः ।

स मा जीवीत्तं प्राणो जहातु ॥ शौअ १०.५.२६

[48] विष्णोः क्रमोऽसि सपत्नहा द्यौसंशितः सूर्यतेजाः ।

दिवमनु वि क्रमेऽहं दिवस्तं निर्भजामो योऽस्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः ।

स मा जीवीत्तं प्राणो जहातु ॥ शौअ १०.५.२७

[49] प्र तद्विष्णु स्तवते वीर्येण मृगो न भीमः कुचरो गिरिष्ठाः ।

यस्योरुषु त्रिषु विक्रमणेष्वधिक्षियन्ति भुवनानि विश्वा ॥ - ऋ १.१५४.२

[50] विष्णोः क्रमोऽसि सपत्नहा दिक्संशितो मनस्तेजाः ।

दिशो अनु वि क्रमेऽहं दिग्भ्यस्तं निर्भजामो योऽस्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः ।

स मा जीवीत्तं प्राणो जहातु ॥ शौअ १०.५.२८


[51] विष्णोः क्रमोऽसि सपत्नहाशासंशितो वाततेजाः ।

आशा अनु वि क्रमेऽहमाशाभ्यस्तं निर्भजामो योऽस्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः ।

स मा जीवीत्तं प्राणो जहातु ॥१०.५.२९॥

विष्णोः क्रमोऽसि सपत्नहा ऋक्संशितो सामतेजाः ।

ऋचोऽनु वि क्रमेऽहमृग्भ्यस्तं निर्भजामो योऽस्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः ।

स मा जीवीत्तं प्राणो जहातु ॥१०.५.३०॥

विष्णोः क्रमोऽसि सपत्नहा यज्ञसंशितो ब्रह्मतेजाः ।

यज्ञमनु वि क्रमेऽहं यज्ञात्तं निर्भजामो योऽस्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः ।

स मा जीवीत्तं प्राणो जहातु ॥१०.५.३१॥

विष्णोः क्रमोऽसि सपत्नहौषधीसंशितो सोमतेजाः ।

ओषधीरनु वि क्रमेऽहमोषधीभ्यस्तं निर्भजामो योऽस्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः ।

स मा जीवीत्तं प्राणो जहातु ॥१०.५.३२॥

विष्णोः क्रमोऽसि सपत्नहाप्सुसंशितो वरुणतेजाः ।

अपोऽनु वि क्रमेऽहमद्भ्यस्तं निर्भजामो योऽस्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः ।

स मा जीवीत्तं प्राणो जहातु ॥ शौअ १०.५.३३

[52] विष्णोः क्रमोऽसि सपत्नहा कृषिसंशितोऽन्नतेजाः ।

कृषिमनु वि क्रमेऽहं कृष्यास्तं निर्भजामो योऽस्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः ।

स मा जीवीत्तं प्राणो जहातु ॥ शौअ १०.५.३४

[53] मानवता को वेदों की देन, पृ. ७४, ७६, ७७, ७८


[54] विष्णोः क्रमोऽसि सपत्नहा प्राणसंशितः पुरुषतेजाः ।

प्राणमनु वि क्रमेऽहं प्राणात्तं निर्भजामो योऽस्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः ।

स मा जीवीत्तं प्राणो जहातु ॥ शौअ १०.५.३५

[55] जितमस्माकमुद्भिन्नमस्माकमभ्यष्ठां विश्वाः पृतना अरातीः ।

इदमहमामुष्यायणस्यामुष्याः पुत्रस्य वर्चस्तेजः प्राणमायुर्नि वेष्टयामीदमेनमधराञ्चं पादयामि ॥ शौअ १०.५.३६

[56] सूर्यस्यावृतमन्वावर्ते दक्षिणामन्वावृतम् ।

सा मे द्रविणं यच्छतु सा मे ब्राह्मणवर्चसम् ॥ शौअ १०.५.३७


[57] दिशो ज्योतिष्मतीरभ्यावर्ते ।

ता मे द्रविणं यच्छन्तु ता मे ब्राह्मणवर्चसम् ॥१०.५.३८॥

सप्तऋषीन् अभ्यावर्ते ।

ते मे द्रविणं यच्छन्तु ते मे ब्राह्मणवर्चसम् ॥१०.५.३९॥

ब्रह्माभ्यावर्ते ।

तन् मे द्रविणं यच्छन्तु तन् मे ब्राह्मणवर्चसम् ॥१०.५.४०॥  

ब्राह्मणामभ्यावर्ते ।

ते मे द्रविणं यच्छन्तु ते मे ब्राह्मणवर्चसम् ॥ शौअ १०.५.४१

[58] यं वयं मृगयामहे तं वधै स्तृणवामहै ।

व्यात्ते परमेष्ठिनो ब्रह्मणापीपदाम तम् ॥१०.५.४२॥

वैश्वानरस्य दंष्ट्राभ्यां हेतिस्तं समधादभि ।

इयं तं प्सात्वाहुतिः समिद्देवी सहीयसी ॥१०.५.४३॥

राज्ञो वरुणस्य बन्धोऽसि ।

सोऽमुमामुष्यायणममुष्याः पुत्रमन्ने प्राणे बधान ॥१०.५.४४॥

यत्ते अन्नं भुवस्पत आक्षियति पृथिवीमनु ।

तस्य नस्त्वं भुवस्पते संप्रयच्छ प्रजापते ॥ शौअ १०.५.४५

[59] अपो दिव्या अचायिषं रसेन समपृक्ष्महि ।

पयस्वान् अग्न आगमं तं मा सं सृज वर्चसा ॥१०.५.४६॥

सं माग्ने वर्चसा सृज सं प्रजया समायुषा ।

विद्युर्मे अस्य देवा इन्द्रो विद्यात्सह ऋषिभिः ॥१०.५.४७॥

यदग्ने अद्य मिथुना शपतो यद्वाचस्तृष्टं जनयन्त रेभाः ।

मन्योर्मनसः शरव्या जायते या तया विध्य हृदये यातुधानान् ॥१०.५.४८॥

परा शृणीहि तपसा यातुधानान् पराग्ने रक्षो हरसा शृणीहि ।

परार्चिषा मूरदेवां छृणीहि परासुतृपः शोशुचतः शृणीहि ॥ शौअ १०.५.४९

[60] अपामस्मै वज्रं प्र हरामि चतुर्भृष्टिं शीर्षभिद्याय विद्वान् ।

सो अस्याङ्गानि प्र शृणातु सर्वा तन् मे देवा अनु जानन्तु विश्वे ॥ शौअ १०.५.५०Puranastudy (सम्भाषणम्) १०:२२, ४ मे २०२४ (UTC)उत्तर दें