सामग्री पर जाएँ

यजुर्वेदभाष्यम् (दयानन्दसरस्वतीविरचितम्)/अध्यायः १/मन्त्रः ६

विकिस्रोतः तः
← मन्त्रः ५ यजुर्वेदभाष्यम् (दयानन्दसरस्वतीविरचितम्)
अध्यायः १
दयानन्दसरस्वती
मन्त्रः ७ →
सम्पादकः — डॉ॰ ज्ञानप्रकाश शास्त्री, जालस्थलीय-संस्करण-सम्पादकः — डॉ॰ नरेश कुमार धीमान्
यजुर्वेदभाष्यम्/अध्यायः १

कस्त्वेत्यस्य ऋषिः स एव। प्रजापतिर्देवता। आर्चीपङ्क्तिछन्दः। पञ्चमः स्वरः॥

केन सत्यमाचरितुमसत्यं त्यक्तुमाज्ञा दत्तेत्युपदिश्यते॥

किसने सत्य करने और असत्य छोड़ने की आज्ञा दी है, सो अगले मन्त्र में उपदेश किया है॥


कस्त्वा॑ युनक्ति॒ स त्वा॑ युनक्ति॒ कस्मै॑ त्वा युनक्ति॒ तस्मै॑ त्वा युनक्ति।

कर्म॑णे वां॒ वेषा॑य वाम्॥६॥

पदपाठः— कः। त्वा॒। यु॒न॒क्ति॒। सः। त्वा॒। यु॒न॒क्ति॒। कस्मै॑। त्वा॒। यु॒न॒क्ति॒। तस्मै॑। त्वा॒। यु॒न॒क्ति॒। कर्म्म॑णे। वा॒म्। वेषा॑य। वा॒म्॥६॥

पदार्थः— (कः) को हि सुखस्वरूपः (त्वा) क्रियानुष्ठातारं मनुष्यं पुरुषार्थे (युनक्ति) नियुक्तं करोति (सः) परमेश्वरः (त्वा) विद्यादिशुभगुणानां ग्रहणे विद्यार्थिनं विद्वांसं वा (युनक्ति) योजयति। अत्र सर्वत्रान्तर्गतो ण्यर्थः (कस्मै) प्रयोजनाय (त्वा) त्वां सुखमिच्छुकम् (युनक्ति) योजयति (तस्मै) सत्यव्रताचरणाय यज्ञाय (त्वा) धर्मं प्रचारयितुमुद्योगिनम् (युनक्ति) योजयति (कर्मणे) पूर्वोक्ताय यज्ञाय (वाम्) कर्त्तृकारयितारौ (वेषाय) सर्वशुभगुणविद्याव्याप्तये (वाम्) अध्येत्र्यध्यापकौ॥ अयं मन्त्रः (शत॰१।१।१३-२२; १.१.२.१) व्याख्यातः॥६॥

अन्वयः— हे मनुष्य! कस्त्वां युनक्ति स त्वां युनक्ति कस्मै त्वां युनक्ति तस्मै त्वां युनक्ति स एव वां कर्मणे नियोजयति। एवं च वां वेषायाज्ञापयति॥६॥

भावार्थः— अत्र प्रश्नोत्तराभ्यामीश्वरो जीवेभ्य उपदिशति। कश्चित् कंचित्प्रति ब्रूते। को मां सत्यक्रियायां प्रवर्त्तयतीति सोऽस्योत्तरं ब्रूयात्। ईश्वरः पुरुषार्थक्रियाकरणाय त्वामादिशतीति। एवं कश्चिद्विद्यार्थी विद्वांसं प्रति पृच्छेत् को मदात्मन्यन्तर्यामिरूपतया सत्यं प्रकाशयतीति। स उत्तरं दद्यात् सर्वव्यापको जगदीश्वर इति। कस्मै प्रयोजनायेति केनचित् पृच्छ्यते। सुखप्राप्तये परमेश्वरप्राप्तये चेत्युत्तरं ब्रूयात्। पुनः कस्मै प्रयोजनायेति मां नियोजयतीति पृच्छ्यते। सत्यविद्याधर्मप्रचारायेत्युत्तरं ब्रूयात्। आवां किं करणायेश्वर उपदिशति। यज्ञानुष्ठानायेति परस्परमुत्तरं ब्रूयाताम्। पुनः स किमाप्तय आज्ञापयतीति। सर्वविद्यासुखेषु व्याप्तये तत्प्रचारायेत्युत्तरं ब्रूयात्। मनुष्यैर्द्वाभ्यां प्रयोजनाभ्यां प्रवर्त्तितव्यम्। एकमत्यन्तपुरुषार्थशरीरारोग्याभ्यां चक्रवर्त्तिराज्यश्रीप्राप्तिकरणम्। द्वितीयं सर्वा विद्याः सम्यक् पठित्वा तासां सर्वत्र प्रचारीकरणं चेति। नैव केनचिदपि कदाचित्पुरुषार्थं त्यक्त्वाऽलस्ये स्थातव्यमिति॥६॥

पदार्थः— (कः) कौन सुख स्वरूप (त्वा) तुझको अच्छी-अच्छी क्रियाओं के सेवन करने के लिये (युनक्ति) आज्ञा देता है। (सः) सो जगदीश्वर (त्वा) तुम को विद्या आदिक शुभ गुणों के प्रकट करने के लिये विद्वान् वा विद्यार्थी होने को (युनक्ति) आज्ञा देता है। (कस्मै) वह किस-किस प्रयोजन के लिये (त्वा) मुझ और तुझ को (युनक्ति) युक्त करता है, (तस्मै) पूर्वोक्त सत्यव्रत के आचरण रूप यज्ञ के लिये (त्वा) धर्म के प्रचार करने में उद्योगी को (युनक्ति) आज्ञा देता है, (सः) वही ईश्वर (कर्मणे) उक्त श्रेष्ठ कर्म करने के लिये (वाम्) कर्म करने और कराने वालों को नियुक्त करता है, (वेषाय) शुभ गुण और विद्याओं में व्याप्ति के लिये (वाम्) विद्या पढ़ने और पढ़ाने वाले तुम लोगों को उपदेश करता है॥६॥

भावार्थः— इस मन्त्र में प्रश्न और उत्तर से ईश्वर जीवों के लिये उपदेश करता है। जब कोई किसी से पूछे कि मुझे सत्य कर्मों में कौन प्रवृत्त करता है? इसका उत्तर ऐसा दे कि प्रजापति अर्थात् परमेश्वर ही पुरुषार्थ और अच्छी-अच्छी क्रियाओं के करने की तुम्हारे लिये वेद के द्वारा उपदेश की प्रेरणा करता है। इसी प्रकार कोई विद्यार्थी किसी विद्वान् से पूछे कि मेरे आत्मा में अन्तर्यामिरूप से सत्य का प्रकाश कौन करता है? तो वह उत्तर देवे कि सर्वव्यापक जगदीश्वर। फिर वह पूछे कि वह हमको किस-किस प्रयोजन के लिये उपदेश करता और आज्ञा देता है? उसका उत्तर देवे कि सुख और सुखस्वरूप परमेश्वर की प्राप्ति तथा सत्य विद्या और धर्म के प्रचार के लिये। मैं और आप दोनों को कौन-कौन काम करने के लिये वह ईश्वर उपदेश करता है? इसका परस्पर उत्तर देवें कि यज्ञ करने के लिये। फिर वह कौन-कौन पदार्थ की प्राप्ति के लिये आज्ञा देता है? इसका उत्तर देवें कि सब विद्याओं की प्राप्ति और उनके प्रचार के लिये। मनुष्यों को दो प्रयोजनों में प्रवृत्त होना चाहिये अर्थात् एक तो अत्यन्त पुरुषार्थ और शरीर की आरोग्यता से चक्रवर्त्ती राज्यलक्ष्मी की प्राप्ति करना और दूसरे सब विद्याओं को अच्छी प्रकार पढ़ के उनका प्रचार करना चाहिये। किसी मनुष्य को पुरुषार्थ को छोड़ के आलस्य में कभी नहीं रहना चाहिये॥६॥