यजुर्वेदभाष्यम् (दयानन्दसरस्वतीविरचितम्)/अध्यायः १/मन्त्रः २०
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सम्पादकः — डॉ॰ ज्ञानप्रकाश शास्त्री, जालस्थलीय-संस्करण-सम्पादकः — डॉ॰ नरेश कुमार धीमान् |
यजुर्वेदभाष्यम्/अध्यायः १ |
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धान्यमसीत्यस्य ऋषिः स एव। सविता देवता। विराड् ब्राह्मी त्रिष्टुप् छन्दः। धैवतः स्वरः॥
कस्मै प्रयोजनाय स यज्ञः कर्त्तव्य इत्युपदिश्यते॥
किस प्रयोजन के लिये उक्त यज्ञ करना चाहिये, सो अगले मन्त्र में प्रकाश किया है॥
धा॒न्य᳖मसि धिनु॒हि दे॒वान् प्रा॒णाय॑ त्वोदा॒नाय॑ त्वा व्या॒नाय॑ त्वा। दी॒र्घामनु॒ प्रसि॑ति॒मायु॑षे धां दे॒वो वः॑ सवि॒ता हिर॑ण्यपाणिः॒ प्रति॑गृभ्णा॒त्वच्छि॑द्रेण पा॒णिना॒ चक्षु॑षे त्वा म॒हीनां॒ पयो॑ऽसि॥ २०॥
पदपाठः— धा॒न्य᳖म्। अ॒सि॒। धि॒नु॒हि। दे॒वान्। प्रा॒णाय॑। त्वा॒। उ॒दा॒नायेत्यु॑त्ऽआ॒नाय॑। त्वा॒। व्या॒नायेति॑ विऽआ॒नाय॑। त्वा॒। दी॒र्घाम्। अनु॑। प्रसि॑तिमिति॒ प्रऽसि॑तिम्। आयु॑षे। धा॒म्। दे॒वः। वः॒। स॒वि॒ता। हिर॑ण्यपाणि॒रिति॒ हिर॑ण्यऽपाणिः। प्रति॑। गृ॒भ्णा॒तु॒। अच्छि॑द्रेण। पा॒णिना॒। चक्षु॑षे। त्वा॒। म॒हीना॑म्। पयः॑। अ॒सि॒॥२०॥
पदार्थः— (धान्यम्) धातुमर्हं यत् यज्ञात् शुद्धम्। रोगनाशकेन स्वादिष्ठतमेन सुखकारकमन्नं तत्। अत्र दधातेर्यत् नुट च। (उणा॰५।४८) अनेन यत्प्रत्ययो नुडागमश्च (असि) भवति। अत्र सर्वत्र व्यत्ययः (धिनुहि) धिनोति प्रीणाति। अत्र लडर्थे लोट् (देवान्) विदुषो जीवानिन्द्रियाणि च (प्राणाय) प्रकृष्टमन्यते जीव्यते येन तस्मै जीवनधारणहेतवे बलाय (त्वा) तत् (उदानाय) स्फूर्त्तिहेतव ऊर्ध्वमन्यते चेष्ट्यते येन तस्मै उत्क्रमणपराक्रमहेतवे (त्वा) तत् (व्यानाय) विविधमन्यते व्याप्यते येन तस्मै सर्वेषां शुभगुणानां कर्मविद्याङ्गानां च व्याप्तिहेतवे (त्वा) तत्। अत्र त्रिषु प्रथमार्थे मध्यमः (दीर्घाम्) विस्तृताम् (अनु) पश्चादर्थे (प्रसितिम्) प्रकृष्टं सिनोति बध्नात्यनया ताम् (आयुषे) पूर्णायुर्वर्धनेन सुखभोगाय (धाम्) दधामि। अत्र छन्दसि लुङ्लङ्लिटः [अष्टा॰३.४.६] इति वर्त्तमाने लुङ्ङ[भावश्च (देवः) प्रकाशमानः प्रकाशहेतुर्वा (वः) अस्मानेतान् जगत्स्थान् स्थूलान् पदार्थांश्च (सविता) सर्वजगदुत्पादकः सकलैश्वर्य्यादातेश्वरः सूर्य्यलोको वा (हिरण्यपाणिः) हिरण्यस्यामृतस्य मोक्षस्य दानाय पाणिर्व्यवहारो यस्य सः। अमृतꣳ हिरण्यम्। (शत॰७।४।१।१५) यद्वा हिरण्यं प्रकाशार्थं ज्योतिः पाणिर्व्यवहारो यस्य सः (प्रतिगृभ्णातु) प्रतिगृह्णातु प्रतिगृह्णाति वा। अत्र हृग्रहो॰ [अष्टा॰भा॰वा॰८.२.३२] इति हस्य भः। पक्षे लडर्थे लोट् च (अच्छिद्रेण) निरन्तरेण व्यापनेन प्रकाशेन वा (पाणिना) स्तुतिसमूहेन व्यवहारेण तेजसा (चक्षुषे) प्रत्यक्षज्ञानाय, नेत्रव्यवहाराय च। (त्वा) तं च। (महीनाम्) महतीनां वाचां पृथिवानां वा। महीति वाङ्नामसु पठितम्। (निघं॰१।११) पृथिवीनामसु च। (निघं॰१।१) (पयः) अन्नं जलं च येन शुद्धम्। पय इत्युदकनामसु पठितम्। (निघं॰१।१२) अयं मन्त्रः (शत॰१।१।५।१८-२२) व्याख्यातः॥२०॥
अन्वयः— यदिदं यज्ञशोधितं धान्यम(स्य)स्ति यज्ञ यज्ञशोधितं पयोऽ(स्य)स्ति तत् देवान् धिनुहि धिनाति तस्माद्यथाऽहं (त्वा) तत्प्राणाय (त्वा) तदुदानाय (त्वा) तद्व्यानाय दीर्घां प्रसितिमायुषे (धाम्) दधामि, तथैव यूयं सर्वे मनुष्यास्तस्मै प्रयोजनायैतन्नित्यं धत्त (त्वा) यथा वः योऽस्मान् हिरण्यपाणिर्देवः सविता जगदीश्वरोऽच्छिद्रेण पाणिना महीनां चक्षुषे (त्वा) प्रत्यनुगृभ्णातु प्रकृष्टतयानुगतं गृह्णाति तथैव वयं तं प्रतिगृभ्णीमः। यथा च हिरण्यपाणिर्देवः सविता सूर्य्यलोको महीनां चक्षुषेऽच्छिद्रेण पाणिना पयो गृहीत्वा धान्यं पोषयति, तथैव तं वयमपि अच्छिद्रेण पाणिना महीनां चक्षुषि प्रतिगृह्णीमः॥२०॥
भावार्थः— अत्र लुप्तोपमालङ्कारः। ये यज्ञेन शोधिता अन्नजलवाय्वादयः पदार्था भवन्ति, ते सर्वेषां शुद्धये बलपराक्रमाय दृढाय दीर्घायुषे च समर्था भवन्ति, तस्मात् सर्वैर्मनुष्यैरेतद्यज्ञकर्म नित्यमनुष्ठेयम्। तथा च परमेश्वरेण या महती पूज्या वाक् प्रकाशितास्त्यस्याः प्रत्यक्षकरणायेश्वरानुग्रहापेक्षा स्वपुरुषार्थता च कार्य्या। यथेश्वरः परोपकारिणां नृणामुपर्य्यनुग्रहं करोति, तथैवाऽस्माभिरपि सर्वेषां प्राणिनामुपरि नित्यमनुग्रहः कार्य्यः। यथाऽयमन्तर्यामीश्वरः सूर्य्यलोकश्च संसारे अध्यात्मनि वेदेषु च सत्यं ज्ञानं मूर्त्तद्रव्याणि नैरन्तर्य्येण प्रकाशयति, तथैव सर्वैरस्माभिर्मनुष्यैः सर्वेषां सुखायाऽखिला विद्याः प्रत्यक्षीकृत्य नित्यं प्रकाशनीयाः। ताभिः पृथिवीराज्यसुखं नित्यं कार्य्यमिति॥२०॥
पदार्थः— जो (धान्यम्) यज्ञ से शुद्ध उत्तम स्वभाववाला सुख का हेतु रोग का नाश करने वाला तथा चावल आदि अन्न वा (पयः) जल (असि) है, वह (देवान्) विद्वान् वा जीव तथा इन्द्रियों को (धिनुहि) तृप्त करता है, इस कारण हे मनुष्यो! मैं जिस प्रकार (त्वा) उसे (प्राणाय) अपने जीवन के लिये वा (त्वा) उसे (उदानाय) स्फूर्ति बल और पराक्रम के लिये वा (त्वा) उसे (व्यानाय) सब शुभ गुण, शुभ कर्म वा विद्या के अङ्गों के फैलाने के लिये तथा (दीर्घाम्) बहुत दिनों तक (प्रसितिम्) अत्युत्तम सुखबन्धनयुक्त (आयुषे) पूर्ण आयु के भोगने के लिये (धाम्) धारण करता हूँ, वैसे तुम भी उक्त प्रयोजन के लिये उस को नित्य धारण करो। जैसे (वः) हम लोगों को (हिरण्यपाणिः) जिस का मोक्ष देना ही व्यवहार है, ऐसा सब जगत् का उत्पन्न करनेहारा (देवः) (सविता) सब ऐश्वर्य का दाता ईश्वर (अच्छिद्रेण) अपनी व्याप्ति वा [पाणिना] उत्तम व्यवहार से (महीनाम्) वाणियों के [चक्षुषे] प्रत्यक्ष ज्ञान के लिये (प्रत्यनुगृभ्णातु) अपने अनुग्रह से ग्रहण करता है, वैसे ही हम भी उस ईश्वर को (अच्छिद्रेण) निरन्तर (पाणिना) स्तुतियों से ग्रहण करें और जैसे (हिरण्यपाणिः) पदार्थों का प्रकाश करने वाला (देवः) (सविता) सूर्य्यलोक (महीनाम्) लोक-लोकान्तरों की पृथिवियों में नेत्र सम्बन्धी व्यवहार के लिये (अच्छिद्रेण) निरन्तर तीव्र प्रकाश से (पयः) जल को (प्रतिगृभ्णातु) ग्रहण कर के अन्न आदि पदार्थों को पुष्ट करता है, वैसे ही हम लोग भी उसे (अच्छिद्रेण) निरन्तर (पाणिना) व्यवहार से (महीनाम्) पृथिवी के (चक्षुषे) पदार्थों की दृष्टिगोचरता के लिये स्वीकार करते हैं॥ २०॥
भावार्थः— इस मन्त्र में लुप्तोपमालङ्कार है। जो यज्ञ से शुद्ध किये हुए अन्न, जल और पवन आदि पदार्थ हैं, वे सब की शुद्धि, बल, पराक्रम और दृढ़ दीर्घ आयु के लिये समर्थ होते हैं। इससे सब मनुष्यों को यज्ञकर्म का अनुष्ठान नित्य करना चाहिये तथा परमेश्वर की प्रकाशित की हुई जो वेदचतुष्टयी अर्थात् चारों वेदों की वाणी है, उस के प्रत्यक्ष करने के लिये ईश्वर से अनुग्रह की इच्छा तथा अपना पुरुषार्थ करना चाहिये और जिस प्रकार परोपकारी मनुष्यों पर ईश्वर कृपा करता है, वैसे ही हम लोगों को भी सब प्राणियों पर नित्य कृपा करनी चाहिये अथवा जैसे अन्तर्यामी ईश्वर आत्मा और वेदों में सत्य ज्ञान तथा सूर्यलोक संसार में मूर्तिमान् पदार्थों का निरन्तर प्रकाश करता है, वैसे ही हम सब लोगों को परस्पर सब के सुख के लिये सम्पूर्ण विद्या मनुष्यों को दृष्टिगोचर करा के नित्य प्रकाशित करनी चाहिये और उनसे हमको पृथिवी का चक्रवर्ती राज्य आदि अनेक उत्तम उत्तम सुखों को उत्पन्न निरन्तर उत्पन्न करना चाहिये॥ २०॥