यजुर्वेदभाष्यम् (दयानन्दसरस्वतीविरचितम्)/अध्यायः १/मन्त्रः ११
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सम्पादकः — डॉ॰ ज्ञानप्रकाश शास्त्री, जालस्थलीय-संस्करण-सम्पादकः — डॉ॰ नरेश कुमार धीमान् |
यजुर्वेदभाष्यम्/अध्यायः १ |
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भूताय त्वेति ऋषिः स एव। अग्निर्देवता। स्वराड् जगती छन्दः। निषादः स्वरः॥
यज्ञशालादिगृहाणि कीदृशानि रचनीयानीत्युपदिश्यते॥
उन यज्ञशाला आदिक घर कैसे बनाने चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥
भू॒ताय॑ त्वा॒ नारा॑तये॒ स्व᳖रभि॒विख्ये॑षं॒ दृꣳह॑न्तां॒ दुर्याः॑ पृथि॒व्यामु॒र्व᳕᳕न्तरि॑क्ष॒मन्वे॑मि।
पृ॒थि॒व्यास्त्वा॒ नाभौ॑ सादया॒म्यदि॑त्याऽउ॒पस्थेऽग्ने॑ ह॒व्यꣳ र॑क्ष॥११॥
पदपाठः— भू॒ताय॑। त्वा॒। न। अरा॑तये। स्वः॑। अ॒भि॒विख्ये॑ष॒मित्य॑भि॒ऽविख्ये॑षम्। दृꣳह॑न्ताम्। दुर्य्याः॑। पृ॒थि॒व्याम्। उ॒रु। अ॒न्तरि॑क्षम्। अनु। ए॒मि॒। पृ॒थि॒व्याः। त्वा॒। नाभौ॑। सा॒द॒या॒मि॒। अदि॑त्याः। उ॒पस्थ॒ इत्यु॒पऽस्थे॑। अग्ने॑। ह॒व्यम् र॒क्ष॒॥११॥
पदार्थः— (भूताय) उत्पन्नानां प्राणिनां सुखाय (त्वा) तं कृषिशिल्पादिसाधिनम् (न) निषेधार्थे (अरातये) रातिर्दानं न विद्यते यस्मिन् तस्मै शत्रवे बहुदानकरणार्थं दारिद्र्यविनाशाय वा (स्वः) सुखमुदकं वा। स्वरिति सुखनामसु पठितम् (निघं॰३।६॥ उदकनामसु च॥१।१२) (अभिविख्येषम्) अभितः सर्वतो विविधं पश्येयम्। अत्राभिव्योरुपपदे ‘चक्षिङ्’ इत्यस्याशीर्लिङ्यार्धधातुकसंज्ञामाश्रित्य ‘ख्याञ्’ आदेशः। ‘लिङ्याशिष्यङ्’ [अष्टा॰३.१.८६] इत्यङ् सार्वधातुकसंज्ञामाश्रित्य च या इत्यस्य इय् आदेशः। सकारलोपाभाव इति (दृꣳहन्ताम्) दृंहन्तां वर्धयन्ताम्। अत्रान्तर्गतो ण्यर्थः (दुर्य्याः) गृहाणि। दुर्य्या इति गृहनामसु पठितम्। (निघं॰३।४) (पृथिव्याम्) विस्तृतायां भूमौ (उरु) बहु (अन्तरिक्षम्) अवकाशं सुखेन निवासार्थम् (अनु) क्रियार्थे (एमि) प्राप्नोमि (पृथिव्याः) शुद्धाया विस्तृताया भूमेः (त्वा) तं पूर्वोक्तं यज्ञम् (नाभौ) मध्ये (सादयामि) स्थापयामि (अदित्याः) विज्ञानदीप्तेर्वेदवाचः सकाशादन्तरिक्षे मेघमण्डलस्य मध्ये अदितिर्द्यौरदितिरन्तरिक्षमिति मन्त्रप्रामाण्यात्। (ऋ॰१।८९।१०) अदितिरिति वाङ्नामसु पठितम् (निघं॰१।११) पदनामसु च। (निघं॰४।१) (उपस्थे) समीपे (अग्ने) परमेश्वर! (हव्यम्) दातुं ग्रहीतुं योग्यं क्रियाकौशलं सुखं वा (रक्ष) पालय॥ अयं मन्त्रः (शत॰१।१।२।२०-२३) व्याख्यातः॥११॥
अन्वयः— अहं यं भूतायारातयेऽदानायादित्या उपस्थे यज्ञं सादयामि [त्वा] तं कदाचिन्न त्यजामि। हे विद्वांसो! भवन्तः पृथिव्यां दुर्य्या दृंहन्तां वर्धयन्ताम्। अहं पृथिव्या नाभौ मध्ये येषु गृहेषु स्वरभिविख्येषं यस्यां पृथिव्यामुर्वन्तरिक्षं चान्वेमि। हे अग्ने जगदीश्वर! त्वमस्माकं हव्यं सर्वदा रक्षेत्येकोऽन्वयः॥११॥
हे अग्ने परमेश्वर! अहं भूतायारातये पृथिव्या नाभौ ईश्वरत्वोपास्यत्वाभ्यां स्वः सुखरूपं त्वामभिविख्येषम्। प्रकाशयामि भवत्कृपयेमेऽस्माकं दुर्य्या गृहादयः पदार्थास्तत्रस्था मनुष्यादयः प्राणिनो दृंहन्तां नित्यं वर्धन्ताम्। अहं पृथिव्यामुर्वन्तरिक्षं व्यापकमदित्या उपस्थे व्यापकं त्वा त्वामन्वेमि नित्यं प्राप्नोमि [न सादयामि] न कदाचित् त्वा त्वां त्यजामि त्वमिममस्माकं हव्यं सर्वदा रक्ष॥ इति द्वितीयः॥११॥
अहं शिल्पविद्यजमानो भूतायारातये पृथिव्या नाभौ त्वा [अग्ने] तमग्निं होमार्थं शिल्पविद्यार्थं च सादयामि। यतोऽयमग्निरदित्या अन्तरिक्षस्योपस्थे हुतं हव्यं द्रव्यं डरक्ष] रक्षति, तस्मात्तं पृथिव्यां स्थापयित्वोर्वन्तरिक्षमन्वेमि। अत एव त्वा तं पृथिव्यां सादयामि। एवं कुर्वन्नहं स्वरभिविख्येषम्। तथैवेमे दुर्य्याः प्रासादास्तत्स्था मनुष्याश्च दृंहन्तां शुभगुणैवर्धन्तामिति मत्वा तमिममग्निं कदाचिन्नाहं त्यजामि॥ इति तृतीयोऽन्वयः॥११॥
भावार्थः— अत्र श्लेषालङ्कारः। ईश्वरेण मनुष्य आज्ञाप्यते। हे मनुष्य! अहं त्वां सर्वेषां भूतानां सुखदानाय पृथिव्यां रक्षयामि त्वया वेदविद्याधर्मानुष्ठानयुक्तेन पुरुषार्थेन सुन्दराणि सर्वर्तुसुखयुक्तानि सर्वतो विशालावकाशसहितानि गृहाणि रचयित्वा सुखं प्रापणीयम्। तथा मत्सृष्टौ यावन्तः पदार्थाः सन्ति तेषां सम्यग्गुणान्वेषणं कृत्वाऽनेकविद्याः प्रत्यक्षीकृत्य तासां रक्षणं प्रचारश्च सदैव संभावनीयः। मनुष्येणात्रैवं मन्तव्यं सर्वत्राभिव्यापकं सर्वसाक्षिणं सर्वमित्रं सर्वसुखवर्धकमुपासितुमर्हं सर्वशक्तिमन्तं परमेश्वरं ज्ञात्वा सर्वोपकारो विविधविद्यावृद्धिधर्मोपस्थानमधर्माद् दूरे स्थितिः क्रियाकौशलसंपादनं यज्ञक्रियानुष्ठानं च कर्त्तव्यमिति॥ अत्र महीधरेण भ्रान्त्या अभिविख्येषमिति पदं ‘ख्या प्रकथने’ इत्यस्य दर्शनार्थे गृहीतं तत् धात्वर्थादेव विरुद्धम्॥११॥
पदार्थः— मैं जिस यज्ञ को (भूताय) प्राणियों के सुख तथा (अरातये) दारिद्र्य आदि दोषों के नाश के लिये (अदित्या) वेदवाणी वा विज्ञानप्रकाश के (उपस्थे) गुणों में (सादयामि) स्थापना करता हूँ और (त्वा) उसको कभी (न) नहीं छोड़ता हूँ। हे विद्वान् लोगो! तुम को उचित है कि (पृथिव्याम्) विस्तृत भूमि में (दुर्य्याः) अपने घर (दृंहन्ताम्) बढ़ाने चाहिये। मैं (पृथिव्याः) (नाभौ) पृथिवी के बीच में जिन गृहों में (स्वः) जल आदि सुख के पदार्थों को (अभिविख्येषम्) सब प्रकार से देखूं और (उर्वन्तरिक्षम्) उक्त पृथिवी में बहुत-सा अवकाश देकर सुख से निवास करने योग्य स्थान रचकर (त्वा) आपको (अन्वेमि) प्राप्त होता हूँ। हे (अग्ने) जगदीश्वर! आप (हव्यम्) हमारे देने-लेने योग्य पदार्थों की (रक्ष) सर्वदा रक्षा कीजिये॥यह प्रथम पक्ष हुआ॥११॥
अब दूसरा पक्ष— हे (अग्ने) परमेश्वर! मैं (भूताय) संसारी जीवों के सुख तथा (अरातये) दरिद्रता का विनाश और दान आदि धर्म करने के लिये (पृथिव्याः) पृथिवी के (नाभौ) बीच में (सबके स्वामी तथा उपासनीय जानकर) (स्वः) सुखस्वरूप (त्वा) आपको (अभिविख्येषम्) प्रकाश करता हूँ तथा आपकी कृपा से मेरे घर आदि पदार्थ और उनमें रहने वाले मनुष्य आदि प्राणी (दृंहन्ताम्) वृद्धि को प्राप्त हों और मैं (पृथिव्याम्) विस्तृत भूमि में (उरु) बहुत से (अन्तरिक्षम्) अवकाशयुक्त स्थान को निवास के लिये (अदित्या उपस्थे) सर्वत्र व्यापक आपके समीप सदा (अन्वेमि) प्राप्त होता हूँ। कदाचित् (त्वा) आपका (न सादयामि) त्याग नहीं करता हूँ। हे जगदीश्वर! आप मेरे (हव्यम्) अर्थात् उत्तम पदार्थों की सर्वदा (रक्ष) रक्षा कीजिये॥यह दूसरा पक्ष हुआ॥११॥
तथा तीसरा और भी कहते हैं— मैं शिल्पविद्या का जानने वाला यज्ञ को करता हुआ (भूताय) सांसारिक प्राणियों के सुख और (अरातये) दरिद्रता आदि दोषों के विनाश वा सुख से दान आदि धर्म करने की इच्छा से (पृथिव्याः) (नाभौ) इस पृथिवी पर शिल्पविद्या की सिद्धि करने वाला जो (अग्ने) अग्नि है, उसको हवन करने वा शिल्पविद्या की सिद्धि के लिये (सादयामि) स्थापन करता हूँ, क्योंकि उक्त शिल्पविद्या इसी से सिद्ध होती है, (अदित्याः) (उपस्थे) तथा जो अन्तरिक्ष में स्थित मेघमण्डल में (हव्यम्) होम द्वारा पहुंचे हुए उत्तम-उत्तम पदार्थों की (रक्ष) रक्षा करने वाला है, इसीलिये इस अग्नि को (पृथिव्याम्) पृथिवी में स्थापन करके (उर्वन्तरिक्षम्) बड़े अवकाशयुक्त स्थान और विविध प्रकार के सुखों को (अन्वेमि) प्राप्त होता हूँ अथवा इसी प्रयोजन के लिये (त्वा) इस अग्नि को पृथिवी में स्थापन करता हूँ। इस प्रकार श्रेष्ठ कर्मों को करता हुआ (स्वः) अनेक सुखों को (अभिविख्येषम्) देखूं तथा मेरे (दुर्य्याः) घर और उनमें रहने वाले मनुष्य (दृꣳहन्ताम्) शुभ गुण और सुख से वृद्धि को प्राप्त हों, इसलिये इस भौतिक अग्नि का भी त्याग मैं कभी (न) नहीं करता हूँ॥ यह तीसरा अर्थ हुआ॥११॥
भावार्थः— इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है और ईश्वर ने आज्ञा दी है कि हे मनुष्य लोगो! मैं तुम्हारी रक्षा इसलिये करता हूँ कि तुम लोग पृथिवी पर सब प्राणियों को सुख पहुंचाओ तथा तुम को योग्य है कि वेदविद्या, धर्म के अनुष्ठान और अपने पुरुषार्थ द्वारा विविध प्रकार के सुख सदा बढ़ाने चाहिये। तुम सब ऋतुओं में सुख देने के योग्य, बहुत अवकाशयुक्त, सुन्दर घर बनाकर, सर्वदा सुख सेवन करो और मेरी सृष्टि में जितने पदार्थ हैं, उनसे अच्छे-अच्छे गुणों को खोजकर अथवा अनेक विद्याओं को प्रकट करते हुए फिर उक्त गुणों का संसार में अच्छे प्रकार प्रचार करते रहो कि जिससे सब प्राणियों को उत्तम सुख बढ़ता रहे तथा तुम को चाहिये कि मुझको सब जगह व्याप्त, सब का साक्षी, सब का मित्र, सब सुखों का बढ़ानेहारा, उपासना के योग्य और सर्वशक्तिमान् जानकर सब का उपकार, विविध विद्या की वृद्धि, धर्म में प्रवृत्ति, अधर्म से निवृत्ति, क्रियाकुशलता की सिद्धि और यज्ञक्रिया के अनुष्ठान आदि करने में सदा प्रवृत्त रहो॥११॥
इस मन्त्र में महीधर ने भ्रांति से (अभिविख्येषम्) यह पद (ख्या प्रकथने) इस धातु का दर्शन अर्थ में माना है। यह धातु के अर्थ से ही विरुद्ध होने करके अशुद्ध है॥११॥