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यजुर्वेदभाष्यम् (दयानन्दसरस्वतीविरचितम्)/अध्यायः १/मन्त्रः १७

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अध्यायः १
दयानन्दसरस्वती
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सम्पादकः — डॉ॰ ज्ञानप्रकाश शास्त्री, जालस्थलीय-संस्करण-सम्पादकः — डॉ॰ नरेश कुमार धीमान्
यजुर्वेदभाष्यम्/अध्यायः १

धृष्टिरसीत्यस्य ऋषिः स एव। अग्निर्देवता। ब्राह्मी पङ्क्तिश्छन्दः। पञ्चमः स्वरः॥

अथाग्निशब्देन किं किं गृह्यते तेन किं किं च भवतीत्युपदिश्यते॥

अब अग्निशब्द से किस-किस का ग्रहण किया जाता और इससे क्या क्या कार्य्य होता है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥


धृष्टि॑र॒स्यपा॑ऽग्नेऽअ॒ग्निमा॒मादं॑ जहि॒ निष्क्र॒व्याद॑ꣳ से॒धा दे॑व॒यजं॑ वह।

ध्रु॒वम॑सि पृथि॒वीं दृ॑ꣳह ब्रह्म॒वनि॑ त्वा क्षत्र॒वनि॑ सजात॒वन्युप॑दधामि॒ भ्रातृ॑व्यस्य व॒धाय॑॥१७॥

पदपाठः— धृष्टिः। अ॒सि। अप॑। अ॒ग्ने॒। अ॒ग्निम्। आ॒माद॒मित्या॑मऽअद॑म्। ज॒हि॒। निष्क्र॒व्याद॒मिति निष्क्रव्य॒ऽअद॑म्। सेध॒। आ। दे॒व॒यज॒मिति। देव॒ऽयज॑म्। व॒ह॒। ध्रु॒वम्। अ॒सि॒। पृ॒थिवी॑म्। दृ॒ꣳह॒। ब्र॒ह्म॒वनीति ब्रह्म॒ऽवनि॑। त्वा॒। क्ष॒त्र॒वनीति॑ क्षत्र॒ऽवनि॑। स॒जा॒त॒वनीति॑ सजात॒ऽवनि॑। उप॑ऽद॒धा॒मि॒। भ्रातृ॑व्यस्य व॒धाय॑॥१७॥

पदार्थः— (धृष्टिः) प्रगल्भ इव यजमानः (असि) भवसि भवति वा। अत्र पक्षे व्यत्ययः (अप) क्रियायोगे (अग्ने) परमेश्वर धनुर्वेदविद्वन् वा (अग्निम्) विद्युदाख्यम् (आमादम्) आमानपक्वानत्ति तम् (जहि) हिंसय (निष्क्रव्यादम्) क्रव्यं पक्वमांसमत्ति तस्मान्निर्गतस्तम् (सेध) शास्त्राणि शिक्षय (आ) क्रियायोगे (देवयजम्) देवान् विदुषो दिव्यगुणान् जयति सङ्गतान् करोति येन यज्ञेन स देवयट् तम्। अत्र अन्येभ्योऽपि दृश्यन्ते [अष्टा॰३.२.७५] इति सूत्रेण कृतो बहुलम् [अष्टा॰भा॰वा॰३.२.११३] इति वार्त्तिकेन च करणे विच् प्रत्ययः (वह) प्रापय प्रापयति वा। अत्र सर्वत्र पक्षे व्यत्ययः (ध्रुवम्) निश्चलं सुखम् (असि) भवति (पृथिवीम्) विस्तृतां भूमिं तत्स्थान् प्राणिनश्च (दृंह) उत्तमगुणैर्वर्धय वर्धयति वा (ब्रह्मवनि) ब्राह्मणं विद्वांसं वनति तम्। छन्दसि वनसनरक्षिमथाम् ( अष्टा॰ ३।२।२७ ) अनेन ब्रह्मोपपदे वनधातोरिन् प्रत्ययः। सुपां सुलुग्॰ [अष्टा॰७.१.३९] इत्यमो लुक् च (त्वा) त्वां तं वा (क्षत्रवनि) क्षत्रं संभाजिनं वनति तम्। अत्राप्यमो लुक् (सजातवनि) जातं जातं वनति स जातवनिः समानश्चासौ जातवनिस्तम्। समानस्य छन्दस्यमूर्द्धप्रभृत्युदर्केषु (अष्टा॰६।३।८४) अनेन समानस्य सकारादेशः (उपदधामि) हृदये वेद्यां विमानादियानेषु वा धारयामि (भ्रातृव्यस्य) द्विषतः शत्रोः (वधाय) नाशाय हननाय॥ अयं मन्त्रः (शत॰१।१।५।३-८ ) व्याख्यातः॥१७॥

अन्वयः— हे अग्ने परमेश्वर! त्वं धृष्टिरसि। अतो निष्क्रव्यादमामादं देवयजमग्निं सेध। एवं मङ्गलाय शास्त्राणि शिक्षित्वा दुःखमपजहि सुखं चावद। तथा हे परमेश्वर! त्वं ध्रुवमसि। अतः पृथिवीं दृंह। हे जगदीश्वराग्ने! यत ईदृशो भवान् तस्मादहं भ्रातृव्यस्य वधाय ब्रह्मवनि क्षत्रवनि सजातवनि त्वा त्वामुपदधामीत्येकोऽन्वयः॥

हे यजमान विद्वन्! यतोऽयमग्निर्धृष्टिरस्यस्ति तथा चामान्निष्क्रव्याद् देवयजं यज्ञमावहति तस्मात् त्वमिममामादं देवयजमग्निमावह। सेध। अन्येभ्यस्तमेवं शिक्षय तदनुष्ठानेन दोषानपजहि। यतोऽयमग्निः सूर्य्यरूपेण ध्रुवोऽस्यस्ति तस्मादयमाकर्षणेन पृथिवीं दृंह दृंहति धरति तस्मात् [त्वा] तमहं [ब्रह्मवनि] ब्रह्मवनिं [क्षत्रवनि] क्षत्रवनिं [सजातवनि] सजातवनिं भ्रातृव्यस्य वधायोपदधामीति द्वितीयः॥१७॥

भावार्थः— अत्र श्लेषालङ्कारः। सर्वशक्तिमतेश्वरेण यतोऽयमामाद्दाहकस्वभावोऽग्नी रचितस्ततो नायं भस्मादिकं दग्धुं समर्थो भवति। येनेमान् पदार्थान् पक्त्वाऽदन्ति [स आमात्] येनोदरस्थमन्नं पच्यते [स जाठरः] येन च मनुष्या मृतं देहं दहन्ति स क्रव्यात् संज्ञोऽग्निर्येनायं दिव्यगुणप्रापको विद्युदाख्यश्च रचितस्तथा येन पृथिवीधारणाकर्षणप्रकाशकः सूर्य्यो रचितः। यश्च ब्रह्मभिर्वेदविद्भिर्ब्राह्मणैः क्षत्रियैः समानजन्मभिर्मनुष्यैश्च वन्यते संसेव्यते। तथा यः सर्वेषु जातेषु पदार्थेषु वर्त्तमानः परमेश्वरो भौतिकोऽग्निर्वा। स एव सर्वैरुपास्यो भौतिकश्च क्रियासिध्यर्थं सेवनीय इति॥१७॥

पदार्थः— हे (अग्ने) परमेश्वर! आप (धृष्टिः) प्रगल्भ अर्थात् अत्यन्त निर्भय (असि) हैं, इस कारण (निष्क्रव्यादम्) पके हुए भस्म आदि पदार्थों को छोड़ के (आमादम्) कच्चे पदार्थ जलाने और (देवयजम्) विद्वान् वा श्रेष्ठ गुणों से मिलाप कराने वाले (अग्निम्) भौतिक वा विद्युत् अर्थात् बिजुलीरूप अग्नि को आप (सेध) सिद्ध कीजिये। इस प्रकार हम लोगों के मङ्गल अर्थात् उत्तम-उत्तम सुख होने के लिये शास्त्रों की शिक्षा कर के दुःखों को (अपजहि) दूर कीजिये और आनन्द को (आवह) प्राप्त कीजिये तथा हे परमेश्वर! आप (ध्रुवम्) निश्चल सुख देने वाले (असि) हैं, इस से (पृथिवीम्) विस्तृतभूमि वा उसमें रहने वाले मनुष्यों को (दृंह) उत्तम गुणों से वृद्धियुक्त कीजिये। हे अग्ने जगदीश्वर! जिस कारण आप अत्यन्त प्रशंसनीय हैं, इससे मैं (भ्रातृव्यस्य) दुष्ट वा शत्रुओं के (वधाय) विनाश के लिये (ब्रह्मवनि) (क्षत्रवनि) (सजातवनि) ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा प्राणिमात्र के सुख वा दुःख व्यवहार के देने वाले (त्वा) आप को (उपदधामि) हृदय में स्थापन करता हूँ॥ यह इस मन्त्र का प्रथम अर्थ हुआ॥

तथा हे विद्वान् यजमान! जिस कारण यह (अग्ने) भौतिक अग्नि (धृष्टिः) अतितीक्ष्ण (असि) है तथा निकृष्ट पदार्थों को छोड़ कर उत्तम पदार्थों से (देवयजम्) विद्वान् वा दिव्य गुणों को प्राप्त कराने वाले यज्ञ को (आवह) प्राप्त कराता है, इससे तुम (निष्क्रव्यादम्) पके हुए भस्म आदि पदार्थों को छोड़ के (आमादम्) कच्चे पदार्थ जलाने और (देवयजम्) विद्वान् वा दिव्य गुणों के प्राप्त कराने वाले (अग्निम्) प्रत्यक्ष वा बिजुलीरूप अग्नि को (आवह) प्राप्त करो तथा उसके जानने की इच्छा करने वाले लोगों को शास्त्रों की उत्तम-उत्तम शिक्षाओं के साथ उसका उपदेश (सेध) करो तथा उसके अनुष्ठान में जो दोष हों, उनको (अपजहि) विनाश करो। जिस कारण  यह अग्नि सूर्य्यरूप से (ध्रुवम्) निश्चल (असि) है, इसी कारण यह आकर्षणशक्ति से (पृथिवीम्) विस्तृत भूमि वा उसमें रहने वाले प्राणियों को (दृंह) दृढ़ करता है, इसी से मैं (त्वा) उस (ब्रह्मवनि) (क्षत्रवनि) (सजातवनि) ब्राह्मण, क्षत्रिय वा जीवमात्र के सुख दुःख को अलग-अलग कराने वाले भौतिक अग्नि को (भ्रातृव्यस्य) दुष्ट वा शत्रुओं के (वधाय) विनाश के लिये हवन करने की वेदी वा विमान आदि यानों में (उपदधामि) स्थापन करता हूँ॥ यह दूसरा अर्थ हुआ॥१७॥

भावार्थः— इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। सर्वशक्तिमान् ईश्वर ने यह भौतिक अग्नि आम अर्थात् कच्चे पदार्थ जलाने वाला बनाया है, इस कारण भस्मरूप पदार्थों के जलाने को समर्थ नहीं है। जिससे कि मनुष्य कच्चे-कच्चे पदार्थों को पका कर खाते हैं [वह आमात्] तथा जिस करके सब प्राणियों का खाया हुआ अन्न आदि द्रव्य पकता है [वह जाठर] और जिस करके मनुष्य लोग मरे हुए शरीर को जलाते हैं, वह क्रव्यात् अग्नि कहाता है और जिससे दिव्य गुणों को प्राप्त कराने वाली विद्युत् बनी है तथा जिससे पृथिवी का धारण और आकर्षण करने वाला सूर्य्य बना है और जिसे वेदविद्या के जानने वाले ब्राह्मण वा धनुर्वेद के जानने वाले क्षत्रिय वा सब प्राणिमात्र सेवन करते हैं तथा जो सब संसारी पदार्थों में वर्त्तमान परमेश्वर है, वही सब मनुष्यों का उपास्य देव है तथा जो क्रियाओं की सिद्धि के लिये भौतिक अग्नि है, यह भी यथायोग्य कार्य्य द्वारा सेवा करने के योग्य है॥१७॥