यजुर्वेदभाष्यम् (दयानन्दसरस्वतीविरचितम्)/अध्यायः १/मन्त्रः २

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अध्यायः १
दयानन्दसरस्वती
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सम्पादकः — डॉ॰ ज्ञानप्रकाश शास्त्री, जालस्थलीय-संस्करण-सम्पादकः — डॉ॰ नरेश कुमार धीमान्
यजुर्वेदभाष्यम्/अध्यायः १


वसोः पवित्रमित्यस्य ऋषिः स एव। यज्ञो देवता। स्वराडार्षी त्रिष्टुप् छन्दः। धैवतः स्वरः॥

स यज्ञः कीदृशो भवतीत्युपदिश्यते॥

वह यज्ञ किस प्रकार का होता है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥


वसोः॑ प॒वित्र॑मसि॒ द्यौर॑सि पृथि॒व्य᳖सि मात॒रिश्व॑नो घ॒र्मोऽसि वि॒श्वधा॑ऽअसि।

प॒र॒मेण॒ धाम्ना॒ दृꣳह॑स्व॒ मा ह्वा॒र्मा ते॑ य॒ज्ञप॑तिर्ह्वार्षीत्॥२॥

पदपाठः— वसोः॑। प॒वित्र॑म्। अ॒सि॒। द्यौः। अ॒सि॒। पृ॒थि॒वी। अ॒सि॒। मा॒त॒रिश्व॑नः। घ॒र्मः। असि॒। वि॒श्वधा॒ इति॑ वि॒श्वधाः॑। अ॒सि॒। प॒र॒मेण॑। धाम्ना॑। दृꣳह॑स्व। मा। ह्वाः। मा। ते॒। य॒ज्ञप॑ति॒रिति॑ य॒ज्ञऽप॑तिः। ह्वा॒र्षी॒त्॥२॥

पदार्थः— (वसोः) वसुः। अत्रार्थाद्विभक्तेर्विपरिणाम इति प्रथमा विभक्तिर्विपरिणाम्यते। यज्ञो वै वसुः (शत॰१.५.४.९) (पवित्रम्) पुनाति येन कर्मणा तत् (असि) भवति अत्र सर्वत्र पुरुषव्यत्ययः (द्यौः) विज्ञानप्रकाशहेतुः (असि) भवति (पृथिवी) विस्तृतः (असि) भवति (मातरिश्वनः) मातरि अन्तरिक्षे श्वसिति आश्वनिति वा तस्य वायोः। श्वन्नुक्षन्॰ (उण॰१.१५७) अनेनायं शब्दो निपातितः। मातरिश्वा वायुर्मातर्य्यन्तरिक्षे श्वसिति मातर्य्याश्वनितीति वा (निरु॰७.२६) (घर्मः) अग्नितापयुक्तः शोधकः। घर्म इति यज्ञनामसु पठितम् (निघं॰३.१७) (असि) भवति (विश्वधाः) विश्वं दधातीति (असि) भवति (परमेण) प्रकृष्टसुखयुक्तेन (धाम्ना) सुखानि यत्र दधति तेन। बाहुलकाड्डुधाञ्धातोर्मनिन् प्रत्ययः (दृꣳहस्व) वर्धते। अत्र पुरुषव्यत्ययो लडर्थे लोट् च (मा) निषेधार्थे (ह्वाः) ह्वरतु। अत्र लोडर्थे लुङ् (मा) निषेधार्थे (ते) तव (यज्ञपतिः) यज्ञस्य स्वामी यज्ञकर्त्ता यजमानः। धात्वर्थाद् यज्ञार्थस्त्रिधा भवति। विद्याज्ञानधर्मानुष्ठानवृद्धानां देवानां विदुषामैहिकपारमार्थिकसुखसंपादनाय सत्करणं सम्यक् पदार्थगुणसंमेलविरोधज्ञानसङ्गत्या शिल्पविद्याप्रत्यक्षीकरणं नित्यं विद्वत्समागमानुष्ठानं शुभविद्यासुखधर्मादिगुणानां नित्यं दानकरणमिति (ह्वार्षीत्) ह्वरतु ह्वर वा। अत्रापि लोडर्थे लुङ्॥ अयं मन्त्रः (शत॰१.५.४.९-११) व्याख्यातः॥२॥

अन्वयः— हे विद्वन्मनुष्य! त्वं यो वसोर्वसुरयं यज्ञः पवित्रमसि पवित्रकारकोऽस्ति। द्यौरसि सूर्य्यरश्मिस्थो भवति। पृथिव्यसि वायुना सह विस्तृतो भवति। तथा मातरिश्वनो घर्मोऽसि वायोः शोधको भवति। विश्वधा असि संसारस्य सुखधारको भवति। परमेण धाम्ना सह दृंहस्व दृंहते वर्धते। तमिमं यज्ञं मा ह्वार्मा त्यज। तथा ते तव यज्ञपतिस्तं मा ह्वार्षीत् मा त्यजतु॥२॥

भावार्थः— मनुष्याणां विद्याक्रियाभ्यां सम्यगनुष्ठितेन यज्ञेन पवित्रता प्रकाशः पृथिवी राज्यं वायुप्राणवद् राज्यनीतिः प्रतापः सर्वरक्षा अस्मिंल्लोके परलोके च परमसुखवृद्धिः परस्परमार्जवेन वर्त्तमानं कुटिलतात्यागश्च जायते। अत एव सर्वैर्मनुष्यैः परोपकाराय विद्यापुरुषार्थाभ्यां प्रीत्या नित्यमनुष्ठातव्य इति॥२॥

पदार्थः— हे विद्यायुक्त मनुष्य! तू जो (वसोः) यज्ञ (पवित्रम्) शुद्धि का हेतु (असि) है। (द्यौः) जो विज्ञान के प्रकाश का हेतु और सूर्य की किरणों में स्थिर होने वाला (असि) है। जो (पृथिवी) वायु के साथ देशदेशान्तरों में फैलनेवाला (असि) है। जो (मातरिश्वनः) वायु को (घर्मः) शुद्ध करनेवाला (असि) है। जो (विश्वधाः) संसार का धारण करनेवाला (असि) है तथा जो (परमेण) उत्तम (धाम्ना) स्थान से (दृꣳहस्व) सुख का बढ़ानेवाला है। इस यज्ञ का (मा) मत (ह्वाः) त्याग कर तथा (ते) तेरा (यज्ञपतिः) यज्ञ की रक्षा करने वाला यजमान भी उसको (मा) न (ह्वार्षीत्) त्यागे। धात्वर्थ के अभिप्राय से यज्ञ शब्द का अर्थ तीन प्रकार का होता है अर्थात् एक जो इस लोक और परलोक के सुख के लिये विद्या, ज्ञान और धर्म के सेवन से वृद्ध अर्थात् बड़े-बड़े विद्वान् हैं, उनका सत्कार करना। दूसरा अच्छी प्रकार पदार्थों के गुणों के मेल और विरोध के ज्ञान से शिल्पविद्या का प्रत्यक्ष करना और तीसरा नित्य विद्वानों का समागम अथवा शुभगुण विद्या सुख धर्म और सत्य का नित्य दान करना है॥२॥

भावार्थः— मनुष्य लोग अपनी विद्या और उत्तम क्रिया से जिस यज्ञ का सेवन करते हैं, उससे पवित्रता का प्रकाश, पृथिवी का राज्य, वायुरूपी प्राण के तुल्य राजनीति, प्रताप, सब की रक्षा, इस लोक और परलोक में सुख की वृद्धि, परस्पर कोमलता से वर्त्तना और कुटिलता का त्याग इत्यादि श्रेष्ठ गुण उत्पन्न होते हैं। इसलिये सब मनुष्यों को परोपकार तथा अपने सुख के लिये विद्या और पुरुषार्थ के साथ प्रीतिपूर्वक यज्ञ का अनुष्ठान नित्य करना चाहिये॥२॥