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सम्भाषणम्:ऋग्वेदः सूक्तं ८.१

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विभिन्न स्तोम और तुग्र्या

[सम्पाद्यताम्]

विभिन्न स्तोम और तुग्र्या

इन्दवः की ऊर्ध्वमुखी प्रगति के विभिन्न स्तर होते हैं और उनमें से प्रत्येक स्तर  एक प्रकार का स्तोम होता है और उसके साथ-साथ ये इन्दवः ‘पवित्रं’ (छलनी) से ऊपर सरकते हुए तीव्रगामी होकर इन्दु को आनन्दित करते हैं।[1]  इन इन्दवः को तुग्र्या नामक उदक से वर्धमान होते हुए कहा जाता है। तुग्र्या शब्द आदित्यवाचक तुग्र शब्द से निष्पन्न हो सकता है।[2]  तदनुसार तुग्र्या से आदित्यमूलक प्राण अभिप्रेत होंगे। ज्यों-ज्यों साधना बढ़ती जाती है, त्यों-त्यों आदित्यप्राण प्रकट होते जाते हैं, जिसके परिणामस्वरूप इन्दवः अधिक परिष्कृत और उत्कृष्ट होते जाते हैं। अतः उनको तुग्र्यावृधः कहा जाता है।[3]  अहंकार के स्तर से अहंपूर्व के स्तर की ओर जो साधना चलती है, उसमें परिष्कृत प्राणापन के रूप में परमेश्वर प्रजापति का प्रस्तुतीकरण हो जाता है। इसी की ओर लक्ष्य करके जैब्रा स्तोम शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार करता है...... ‘स प्रजापतिः इन्द्रम् अब्रवीत् कथं न्व अहम् इतः पुनरन्वाभवेयम् इति। किं खलु वै तेऽस्तीत्य् अब्रवीत् स्तो न्वे म इमो प्राणापानाव इति। यत् स्तोम इत्य् अब्रवीत् तत् स्तोमस्य स्तोमत्वम्।[4]  दूसरे शब्दों में साधना के स्तर विशेष पर मनुष्य व्यक्तित्व में प्राणापान का जो स्वरूप होता है, उसी का नाम स्तोम है। इसी दृष्टि से ब्राह्मण ग्रंथ[5]  पराक् और पूर्वाक् प्राण स्तोम रूप में प्रस्तुत करता हुआ उन्हें क्रमशः प्राणापानौ, अहोरात्रे, पूर्वपक्षापरपक्षौ, द्यावापृथिव्यौ, इन्द्राग्नि, मित्रावरुणौ तथा अश्विनौ नाम देता है। इस प्रकार अहंकार से अहंपूर्व की ओर बढने से निरन्तर उच्चतर स्तोमों की सृष्टि होती जाती है। इसी प्रसंग में ऋग्वेद का यह मन्त्र है - तुञ्जे तुञ्जे य उत्तरे स्तोमा इन्द्रस्य वज्रिणः।

न विन्धे अस्य सुष्टुतिम्।। ऋ १, ७,७

इसके अनुसार परमेश्वर इन्द्र के ध्यान का प्रत्येक संकल्प उसी वज्री इन्द्र का तुञ्ज (वज्र) है और इस प्रकार प्रत्येक बार एक नया उच्चतर स्तोम बन जाता है, परन्तु वह परमेश्वर अनन्त है, अतः यह नहीं कहा जा सकता कि कौन से स्तोम में उसकी सुष्टुति (शोभन प्रस्तुति) हो जायेगी। परन्तु यह सुष्टुति होती है, इस बात का प्रमाण यह है कि उस समय अनेक अग्नियां चमक उठती हैं, सूर्य प्रकट हो जाता है, सोम नामक इन्द्रियरस प्रादुर्भूत हो जाता है तथा अन्तरिक्ष से महान् अहि (अहंकार रूपी वृत्र) निष्कासित कर दिया जाता है। यह सब इन्द्र का सबसे बड़ा पराक्रम है-

निरग्नयो रुरुचुर्निरु सूर्यो निः सोम इन्द्रियो रसः ।

निरन्तरिक्षादधमो महामहिं कृषे तदिन्द्र पौंस्यम् ॥ऋ ८, ३, २०

यह वस्तुतः इन्द्र और मरुतों का एक विशेष शोभिष्ठ दान है, जिसको परिपक्व साधना वाले और कर्मयोगी साधक (पाकस्थामा कौरयाणः) द्युलोक में दौड़ते हुए सा पाते हैं।[6]   इसी दान को आध्यात्मिक धनों का बोध कराने वाला (रायो विबोधनम्) रोहित कहा जाता है।[7]  उसके लिए दस इन्द्रियों की प्राणाग्नियां एक दूसरा भाग लाती हैं, जिसको घर आये हुए आदित्य बल के समान (वयो न तुग्र्यम्) कहा जा सकता है। वैदिक ऋषि के शब्दों में, इस आदित्यबल को हम परमेश्वर पिता की आत्मा, सूक्ष्म आच्छादन, ओज प्रदाता व्यापक लेप कह सकते हैं, अथवा यह उसी रोहित के तुरीय, परिपक्व भोज को देने वाला कहा जा सकता है-

आत्मा पितुस्तनूर्वास ओजोदा अभ्यञ्जनम् ।

तुरीयमिद्रोहितस्य पाकस्थामानं भोजं दातारमब्रवम् ॥ ( ऋ ८, ३, २४)

भुज्यु का तुरीयं भोजम :-

यहां जिस ‘तुरीयं भोजं’ की बात की गई है, वही साधक का परम लक्ष्य है। अहंकार के वशीभूत होकर आत्मा अपने इस लक्ष्य को भूल जाता है और नाना प्रकार के इन्द्रिय-भोगों का प्रेमी होकर भुज्यु कहलाता है। यह भुज्यु वस्तुतः तुग्र नामक आदित्यरूपी परब्रह्म का पुत्र है, इसलिए इसको तौग्र्य कहा जाता है। लक्ष्य-भ्रष्ट होने के कारण, वह जब भवसागर के बीच डूबने लगता है, तो वह अपनी रक्षा के लिए अश्विनौ को पुकरता है।[8]  और यह देवयुगल एक अद्भुत नाव का प्रयोग करके उसकी रक्षा करता है।[9]  इस नौका को कभी तो आत्मन्वत् पक्षी कहा जाता है (ऋ १, १८२, ५) और कभी उसे समुद्र के बीच में स्थित एक रहस्यमय वृक्ष कहा जाता है, जिससे तौग्र्य चिपट जाता है (वही मन्त्र ७)। साथ ही, एक अन्य मन्त्र में कहा गया है कि यह तौग्र्य एक ऐसे अनन्त अन्धकार में आपः के भीतर पीड़ित रोता है, तो अश्विनौ के द्वारा प्रेषित चार नौकाएं उसको पार लगाती हैं--

अवविद्धं तौग्र्यमप्स्वन्तरनारम्भणे तमसि प्रविद्धम्।

चतस्रो नावो जठलस्य जुष्टा उदश्विभ्यामिषिताः पारयन्ति।। ऋ १, १८२, ६

डा० फतहसिंह के अनुसार ये चार नौकाएं साधनायुक्त अन्नमय, प्राणमय, मनोमय तथा विज्ञानमय कोश हैं, जो जीवात्मा रूपी तौग्र्य या भुज्यु को परमपिता परमेश्वर रूपी इन्द्र के पास पहुंचा देते हैं। उस समय परमेश्वर इन्द्र अपनी शक्ति से साधक के भीतर सूर्य को देदीप्यमान कर देता है और साधक के सभी आन्तरिक भुवन उसी इन्द्र में नियन्त्रित हो जाते हैं।[10]  इसका अभिप्राय है कि साधक के भीतर आनन्दरस रूपी सोमबिन्दुओं की उत्पत्ति और प्रसार का जीवात्मारूपी तौग्य्र की साधनायात्रा से घनिष्ठ सम्बन्ध है। अतः तौग्य्र के उद्धार की घटना को सभी सोमसवनों में प्रवाच्य माना जाता है।[11]  ये इन्दवः (सोम बिन्दु) वस्तुतः साधक के हृदय में उत्पन्न भावतरंगे हैं, जो उस परमपिता रूपी इन्द्र को भी प्रसन्न करती हैं। इसलिए इन्द्र से प्रार्थना की जाती है कि वह ज्येष्ठ सोम को बलात् पी ले और साधक को सहः अथवा राधस् नामक बल प्रदान करे।[12] 

[1] यदि स्तोमं मम श्रवदस्माकमिन्द्रमिन्दवः ।तिरः पवित्रं ससृवांस आशवो मन्दन्तु तुग्र्यावृधः ॥८.१.१५

[2] अन्वेति तुग्रः(आदित्यः) तैआ १.१०.४

[3]यदि स्तोमं मम श्रवदस्माकमिन्द्रमिन्दवः ।तिरः पवित्रं ससृवांस आशवो मन्दन्तु तुग्र्यावृधः ॥ ८.१.१५

[4] जै.ब्रा २.४०९( तु. जै.ब्रा ३.३३४)

[5] ताव् एवैतौ स्तोमाव् अभवतां पराङ् च पूर्वाङ् च। तौ प्राणापानौ, ते ऽहोरात्रे, तौ पूर्वपक्षापरपक्षौ, ताव् इमौ लोकौ, ताव् इन्द्राग्नी, तौ मित्रावरुणौ, ताव् अश्विनौ, तद् दैव्यं मिथुनं, यद् इदं किं च द्वन्द्वं तद् अभवताम्।जैब्रा ३.३३४

[6] यं मे दुरिन्द्रो मरुतः पाकस्थामा कौरयाणः ।विश्वेषां त्मना शोभिष्ठमुपेव दिवि धावमानम् ॥८.३.२१

[7] रोहितं मे पाकस्थामा सुधुरं कक्ष्यप्राम् ।अदाद्रायो विबोधनम् ॥८.३.२२

[8] अजोहवीदश्विना तौग्र्यो वां प्रोळ्हः समुद्रमव्यथिर्जगन्वान् ।निष्टमूहथुः सुयुजा रथेन मनोजवसा वृषणा स्वस्ति ॥१.११७.१५, आ वां दानाय ववृतीय दस्रा गोरोहेण तौग्र्यो न जिव्रिः ।अपः क्षोणी सचते माहिना वां जूर्णो वामक्षुरंहसो यजत्रा ॥१.१८०.५, कः स्विद्वृक्षो निष्ठितो मध्ये अर्णसो यं तौग्र्यो नाधितः पर्यषस्वजत् । पर्णा मृगस्य पतरोरिवारभ उदश्विना ऊहथुः श्रोमताय कम् ॥१.१८२.७, कदा वां तौग्र्यो विधत्समुद्रे जहितो नरा ।यद्वां रथो विभिष्पतात् ॥८.५.२२

[9] १.१५.३, युवमेतं चक्रथुः सिन्धुषु प्लवमात्मन्वन्तं पक्षिणं तौग्र्याय कम् ।येन देवत्रा मनसा निरूहथुः सुपप्तनी पेतथुः क्षोदसो महः ॥१.१८२.५

[10] इन्द्रो मह्ना रोदसी पप्रथच्छव इन्द्रः सूर्यमरोचयत् ।इन्द्रे ह विश्वा भुवनानि येमिर इन्द्रे सुवानास इन्दवः ॥८.३.६

[11]युवं च्यवानं सनयं यथा रथं पुनर्युवानं चरथाय तक्षथुः ।निष्टौग्र्यमूहथुरद्भ्यस्परि विश्वेत्ता वां सवनेषु प्रवाच्या ॥ १०.३९.४

[12]मन्दन्तु त्वा मघवन्निन्द्रेन्दवो राधोदेयाय सुन्वते ।आमुष्या सोममपिबश्चमू सुतं ज्येष्ठं तद्दधिषे सहः ॥ ८.४.४

Puranastudy (सम्भाषणम्) १७:०१, २ मे २०२४ (UTC)उत्तर दें