महाभारतम्-16-मौसलपर्व-008
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अर्जुनेन वसुदेवसमाश्वासनपूर्वकं सकलपौरान्प्रति नातिचिरादेव द्वारकायाः समुद्रेण समाप्लावननिवेदनपूर्वकं सर्वेषामिन्द्रप्रस्थंप्रति प्रयाणसंनाहसंचोदना।। 1 ।।
तथा परेद्युर्योगेन शरीरंत्यक्तवतो वसुदेवस्य पत्नीभिः सह संस्करणपूर्वकं रामकृष्णशरीरयोर्दाहनम्।। 2 ।।
ततो वज्रार्जुनपुरस्कारेण सकलपौरजने पुरःपुनः प्रयाते समुद्रेण पश्चाद्भागे पौरजनमुक्ततत्तद्भागस्य स्वजलेन समाक्रमणम्।। 3 ।।
अर्जुनेन मध्येमार्गं चोरापहृतावशिष्टयादवकलत्रादिभिः सह स्वदेशमेत्य युधिष्ठिराज्ञया वज्रस्येन्द्रप्रस्थराज्येऽभिषेचनम्। तथा सात्यकिसुतादीनां तत्रतत्र राज्येऽभिषेचनम्।। 3 ।।
रुक्मिण्यादिभिः काभिश्चिदग्निप्रवेशनम्। सत्यभामादिभिः काभिश्चन तपसे वनगमनम्।। 4 ।।
वैशम्पायन उवाच। | 16-8-1x |
एवमुक्तः स बीभत्सुर्मातुलेनि परंतप। दुर्मना दीनवदनो वसुदेवमुवाच ह।। | 16-8-1a 16-8-1b |
नाहं वृष्णिप्रवीरेण बन्धुभिश्चैव मातुल। विहीनां पृथिवीं द्रष्टुं शक्तश्चिरमिह प्रभो।। | 16-8-2a 16-8-2b |
राजा च भीमसेनश्च सहदेवश्च पाण्डवः। नकुलो याज्ञसेनी च षडेकमनसो वयम्।। | 16-8-3a 16-8-3b |
राज्ञः संक्रमणे चापि कामोऽयं नित्यमेव हि। तमिमं विद्धि सम्प्राप्तं कालं कालविदांवर।। | 16-8-4a 16-8-4b |
सर्वथा वृष्णिदारांस्तु बालं वृद्धं तथैव च। नयिष्ये परिगृह्याहमिन्द्रप्रस्थमरिंदम।। | 16-8-5a 16-8-5b |
इत्युक्त्वा दारुकमिदं वाक्यमाह धनंजयः। अमात्यान्वृष्णिवीराणां द्रष्टुमिच्छामि माचिरम्।। | 16-8-6a 16-8-6b |
इत्येवमुक्त्वा वचनं सुधर्मां यादवीं सभाम्। प्रविवेशार्जुनः शूरः शोचमानो महाभुजः।। | 16-8-7a 16-8-7b |
तमासनगतं तत्र सर्वाः प्रकृतयस्तथा। ब्राह्मणा नागरास्तत्र परिवार्योपतस्थिरे।। | 16-8-8a 16-8-8b |
तान्दीनमनसः सर्वान्विमूढान्गतचेतसः। उवाचेदं वचः काले पार्थो दीनतरस्तथा।। | 16-8-9a 16-8-9b |
शक्रप्रस्थमहं नेष्ये पृष्णन्धकजनं स्वयम्। इदं तु नगरं सर्वं समुद्रः प्लावयिष्यति।। | 16-8-10a 16-8-10b |
सज्जीकुरुत यानानि रत्नानि विविधानि च। वज्रोऽयं भवतां राजा शक्रप्रस्थे भविष्यति।। | 16-8-11a 16-8-11b |
सप्तमे दिवसे चैव रवौ विमल उद्गते। बहिर्वत्स्यामहे सर्वे सज्जीभावत माचिरम्।। | 16-8-12a 16-8-12b |
इत्युक्तास्तेन ते सर्वे पार्थेनाक्लिष्टकर्मणा। सज्जमाशु ततश्चक्रुः स्वसिद्ध्यर्थं समुत्सुकाः।। | 16-8-13a 16-8-13b |
तां रात्रिमवसत्पार्थः केशवस्य निवेशने। महता शोकमोहेन सहसाऽभिपरिप्लुतः।। | 16-8-14a 16-8-14b |
श्वोभूतेऽथ ततः शौरिर्वसुदेवः प्रतापवान्। युक्त्वाऽऽत्मानं महातेजा जगाम गतिमुत्तमां।। | 16-8-15a 16-8-15b |
ततः शब्दो महानासीद्वसुदेवनिवेशने। दारुणः क्रोशतीनां च रुदतीनां च योषिताम्।। | 16-8-16a 16-8-16b |
प्रकीर्णमूर्धजाः सर्वा विमुक्ताभरणस्रजः। उरांसि पाणिभिर्घ्नन्त्यो व्यलपन्तकरुणं स्त्रियः। | 16-8-17a 16-8-17b |
तं देवकी च भद्रा च रोहिणी मदिरा तथा। अन्वारोढुं व्यवसिता भर्तारं योषितां वराः।। | 16-8-18a 16-8-18b |
ततः शौरिं नृयुक्तेन बहुमूल्येन भारत। यानेन महता पार्थो बहिर्निष्क्रामयत्तदा।। | 16-8-19a 16-8-19b |
तमन्वयुस्तत्रतत्रं दुःखसोकसमन्विताः। द्वारकावासिनः सर्वे पौरजानपदा हिताः।। | 16-8-20a 16-8-20b |
तस्याश्वमेधिकं छत्रं दीप्यमानाश्च पावकाः। पुरस्तात्तस्य यानस्य याजकाश्च ततो ययुः।। | 16-8-21a 16-8-21b |
अनुजग्मुश्च तं वीरं देव्यस्ता वै स्वलङ्कृताः।। स्त्रीसहस्रैः परिवृता वधूभिश्च सहस्रशः।। | 16-8-22a 16-8-22b |
यस्तु देशः प्रियस्तस्य जीवतोऽभून्महात्मनः। तत्रैनमुपसंकल्प्य वितृमेधं प्रचक्रिरे।। | 16-8-23a 16-8-23b |
तं चिताग्निगतं वीरं शूरपुत्रं वराङ्गनाः। ततोन्वारुरुहुः पत्न्यश्चतस्रः पतिलोकगाः।। | 16-8-24a 16-8-24b |
तं वै चतसृभिः स्त्रीभिरन्वितं पाण्डुनन्दनः। अदाहयच्चन्दनैश्च गन्धैरुच्चावचैरपि।। | 16-8-25a 16-8-25b |
ततः प्रादुरभूच्छब्दः समिद्धस्य विभावसोः। सामगानां च निर्घोषो नराणां रुदतामपि।। | 16-8-26a 16-8-26b |
ततो वज्रप्रधानास्ते वृष्ण्यन्धककुमारकाः। सर्वे चैवोदकं चक्रुः स्त्रियश्चैव महात्मनः। | 16-8-27a 16-8-27b |
अलुप्तधर्मस्तं धर्मं कारयित्वा स फल्गुनः। जगाम वृष्णयो यत्र विनष्टा भरतर्षभ।। | 16-8-28a 16-8-28b |
स तान्दृष्ट्वा निपतितान्कदने भृशदुःखितः। बभूवातीव कौरव्यः प्राप्तकालं चकार ह।। | 16-8-29a 16-8-29b |
यथाप्रधानतश्चैव चक्रे सर्वास्तथा क्रियाः। ये हता ब्रह्मशापेन मुसलैरेरकोद्भवैः।। | 16-8-30a 16-8-30b |
`ततो भगवतो देहं दृष्ट्वा शिष्यः प्रलप्य च। स्मृत्वा तद्वचनं सर्वं मोहशोकोपबृंहितः।।' | 16-8-31a 16-8-31b |
ततः शरीरे रामस्य वासुदेवस्य चोभयोः। अन्वीक्ष्य दाहयामास पुरुषैराप्तकारिभिः।। | 16-8-32a 16-8-32b |
स तेषां विधिवत्कृत्वा प्रेतकार्याणि पाण्डवः। सप्तमे दिवसे प्रायाद्रथमारुह्य सत्वरः।। | 16-8-33a 16-8-33b |
अश्वयुक्तै रथैश्चापि गोखरोष्ट्रयुतैरपि। स्त्रियस्ता वृष्णिवीराणां रुदन्त्यः शोककर्शिताः।। | 16-8-34a 16-8-34b |
अनुजग्मुर्महात्मानं पाण्डुपुत्रं धनंजयम्। भृत्याश्चान्धकवृष्णीनां सादिनो रथिनश्च ये।। | 16-8-35a 16-8-35b |
वीरहीना वृद्धबालाः पौरजानपदास्तथा। ययुस्ते परिवार्याथ कलत्रं पार्थशासनात्।। | 16-8-36a 16-8-36b |
कुञ्जरैश्च गजारोहा ययुः शैलनिर्भस्तथा। सपादरक्षैः संयुक्ताः सोत्तरायुधिका ययुः।। | 16-8-37a 16-8-37b |
पुत्राश्चान्धकवृष्णीनां सर्वे पार्थमनुव्रताः। ब्राह्मणाः क्षत्रिया वैश्याः शूद्राश्चैव महाधनाः।। | 16-8-38a 16-8-38b |
दश षट् च सहस्राणि वासुदेवावरोधनम्। पुरस्कृत्य ययुर्वज्रं पौत्रं कृष्णस्य धीमतः।। | 16-8-39a 16-8-39b |
बहूनि च सहस्राणि प्रयुतान्यर्बुदानि च। भोजवृष्ण्यन्धकस्त्रीणां हतनाथानि निर्ययुः।। | 16-8-40a 16-8-40b |
तत्सागरसमप्रख्यं वृष्णिचक्रं महर्द्धिमत्। उवाह रथिनांश्रेष्ठः पार्थः परपुरंजयः।। | 16-8-41a 16-8-41b |
निर्याते तु जने तस्मिन्सागरो मकरालयः। द्वारकां रत्नसंपूर्णां जलेनाप्लावयत्तदा।। | 16-8-42a 16-8-42b |
यद्यद्धि पुरुषव्याघ्रो भूमेस्तस्या व्यमुञ्चत। तत्तत्संप्लावयामास सलिलेन स सागरः।। | 16-8-43a 16-8-43b |
तदद्भुतमभिप्रेक्ष्य द्वारकावासिनो जनाः। तूर्णात्तूर्णतरं जग्मुरहो दैवमिति ब्रुवन्।। | 16-8-44a 16-8-44b |
काननेषु च रम्येषु पर्वतेषु नदीषु च। निवसन्नानयामास वृष्णिदारान्धनंजयः।। | 16-8-45a 16-8-45b |
स पञ्चनदमासाद्य धीमानतिसमृद्धिमत्। देशे गोपशुधान्याढ्ये निवासमकरोत्प्रभुः।। | 16-8-46a 16-8-46b |
ततो लोभः समभवद्दस्यूनां निहतेश्वराः। दृष्ट्वा स्त्रियो नीयमानाः पार्थेनैकेन भारत।। | 16-8-47a 16-8-47b |
ततस्ते पापकर्माणो लोभोपहतचेतसः। आभीरा मन्त्रयामासुः समेत्याशुभदर्शनाः।। | 16-8-48a 16-8-48b |
अयमेकोऽर्जुनो धन्वी वृद्धबालं हतेश्वरम्। नयत्यस्मानतिक्रम्य् योधाश्चेमे हतौजसः।। | 16-8-49a 16-8-49b |
ततो यष्टिप्रहरणा दस्यवस्ते सहस्रशः। अभ्यधावन्त वृष्णीनां तं जनं लोप्त्रहारिणः।। | 16-8-50a 16-8-50b |
महता सिंहनादेन त्रासयन्तः पृथग्जनम्। अभिपेतुर्धनार्थं ते कालपर्यायचोदिताः।। | 16-8-51a 16-8-51b |
ततो निवृत्तः कौन्तेयः सहसा सपदानुगः। उवाच तान्महाबाहुरर्जुनः प्रहसन्निव।। | 16-8-52a 16-8-52b |
निवर्तध्वमधर्मज्ञा यदि जीवितुमिच्छथ। इदानीं शरनिर्भिन्नाः शोचध्वं निहता मया।। | 16-8-53a 16-8-53b |
तथोक्तास्तेन वीरेणि कदर्तीकृत्य तद्वचः। अभिपेतुर्जनं मूढा वार्यमाणाः पुनःपुनः।। | 16-8-54a 16-8-54b |
ततोऽर्जुनो धनुर्दिव्यं गाण्डीवमजरं महत्। कआरोपयितुमारेभे यत्नादिव कथञ्चन।। | 16-8-55a 16-8-55b |
चकार सज्यं कृच्छ्रेणि सम्भ्रमे तुमुले सति। चिन्तयामास शस्त्राणि न च सस्मार तान्यपि।। | 16-8-56a 16-8-56b |
वैकृतं तन्महद्दृष्ट्वा भुजवीर्य तथा युधि। दिव्यानां च महास्त्राणां विनाशाद्व्रीडितोऽभवत्।। | 16-8-57a 16-8-57b |
वृष्णियोधाश्च ते सर्वे गजाश्वरथयोधिनः। न शेकुरावर्तयितुं ह्रियमाणं स्वकं धनम्।। | 16-8-58a 16-8-58b |
कलत्रस्य बहुत्वाद्धि सम्पतन्सु ततस्ततः। प्रयत्नमकरोत्पार्थो जनस्य परिरक्षणे।। | 16-8-59a 16-8-59b |
मिषतां सर्वयोधानां ततस्ताः प्रमदोत्तमाः। समन्ततोवकृष्यन्त कामाच्चान्याः प्रवव्रजुः।। | 16-8-60a 16-8-60b |
ततो गाण्डीवनिर्मुक्तैः शरैः पार्थो धनंजयः। जघान दस्यून्सोद्वेगो वृष्णिभृत्यैः सहस्रशः।। | 16-8-61a 16-8-61b |
क्षणेन तस्य ते राजन्क्षयं जग्मुरजिह्मगाः। अक्षया हि पुरा भूत्वा क्षीणाः क्षतजभोजनाः।। | 16-8-62a 16-8-62b |
स शरक्षयमासाद्य दुःखशोकसमाहतः। धनुष्कोट्या तदा दस्यूनवधीत्पाकशासनिः।। | 16-8-63a 16-8-63b |
[प्रेक्षतस्त्वेव पार्थस्य वृष्ण्यन्धकवरस्त्रियः। जग्मुरादाय ते म्लेच्छाः समन्ताज्जनमेजय।।] | 16-8-64a 16-8-64b |
धनंजयस्तु दैवं तन्मनसाऽचिन्तयत्प्रभुः। दुःखसोकसमाविष्टो निःश्वासपरमोऽभवत्।। | 16-8-65a 16-8-65b |
अस्त्राणां च प्रणाशेन बाहुवीर्यस्य च क्षयात्। धनुषश्चाविधेयत्वाच्छराणां संक्षयेण च।। | 16-8-66a 16-8-66b |
बभूव विमनाः पार्थो दैवमित्युनुचिन्तयन्। न्यवर्तत ततो राजन्नेदमस्तीति चिन्तयन्।। | 16-8-67a 16-8-67b |
ततः शेषं समादाय कलत्रस्य महामतिः। हृतभूयिष्ठरत्नस्य कुरुक्षेत्रमवातरत्।। | 16-8-68a 16-8-68b |
युधिष्ठिरस्यानुमते वंशकर्तॄन्कुमारकान्। न्यवेशयत कौरव्यस्तत्रतत्र धनंजयः।। | 16-8-69a 16-8-69b |
हार्दिक्यतनयं पार्थो नगरे मृत्तिकावते। अश्वपतिं खाण्डवारण्ये राज्ये तत्र न्येवशयत्। भोजराजकलत्रं च हृतशेषं नरोत्तमः।। | 16-8-70a 16-8-70b 16-8-70c |
तथा वृद्धांश्च बालांश्च स्त्रियश्चादाय पाण्डवः। वीरैर्विहीनान्सर्वांस्ताञ्शक्रप्रस्थे न्यवेशयत्।। | 16-8-71a 16-8-71b |
यौयुधानिं सरस्वत्याः पुत्रं सात्यकिनः प्रियम्। न्यवेशयत धर्मात्मा वृद्धबालपुरस्कृतम्।। | 16-8-72a 16-8-72b |
इन्द्रप्रस्थे ददौ राज्यं व्रज्राय परवीरहा। वज्रेणाक्रूरदारास्तु वार्यमाणाः प्रवव्रजुः।। | 16-8-73a 16-8-73b |
रुक्मिणी त्वथ गान्धारी शैब्दा हैमवतीत्यपि। देवी जींबवती चैव विविशुर्जातवेदसम्।। | 16-8-74a 16-8-74b |
सत्यभामा तथैवान्या देव्यः कृष्णस्य सम्मताः। वनं प्रविविशू राजंस्तापस्ये कृतनिश्चयाः।। | 16-8-75a 16-8-75b |
द्वारकावासिनो ये पुरुषाः पार्थमभ्ययुः। यथार्हं संविभज्यैनान्वज्रे पर्यददज्जयः।। | 16-8-76a 16-8-76b |
स तत्कृत्वा प्राप्तकालं बाष्णेणापिहितोऽर्जुनः। कृष्णद्वैपायनं व्यासं ददर्शासीनमाश्रमे।। | 16-8-77a 16-8-77b |
।। इति श्रीमन्महाभारते मौसलपर्वणि अष्टमोऽध्यायः।। 8 ।। |
16-8-32 अन्विष्य दाहयामासेति झ.पाठः।। 16-8-44 ब्रुवन् अब्रुवन्।।
मौसलपर्व-007 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | मौसलपर्व-009 |