महाभारतम्-04-विराटपर्व-028
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महाभारतस्य पर्वाणि |
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पौरौर्विराटंप्रति सानुजकीचकनिधननिवेदनपूर्वकं नगराद्द्रौपदीनिष्कासनप्रार्थना ।। 1 ।।
सुदेष्णया विराटनियोगाद्द्रौपदीं प्रति स्वपुरान्निर्गमनचोदना ।। 2 ।।
तथा द्रौपद्या मासावधिस्ववासाभ्यनुज्ञानप्रार्थनायां तदङ्गीकरणम् ।। 3 ।।
वैशंपायन उवाच। | 4-28-1x |
ते दृष्ट्वा निहतान्सूतान्भीमसेनेन भारत। | 4-28-1a 4-28-1b 4-28-1c |
यथा वज्रेण दीर्णं वै पर्वतस्य महच्छिरः। | 4-28-2a 4-28-2b |
सैरन्ध्री चापि मुक्ता सा पुनरायाति ते गृहम् । | 4-28-3a 4-28-3b |
तथारूपा हि सैरन्ध्री गन्धर्वाश्च महाबलाः । | 4-28-4a 4-28-4b |
यथा सैरन्ध्रिदोषेण नेदं राजन्पुरं तव। | 4-28-5a 4-28-5b |
सर्वाङ्गसौष्ठवयुतां रूपलावण्यशालिनीम् । | 4-28-6a 4-28-6b 4-28-6c |
तस्मात्तां यः पुमान्दृष्ट्वा रूपेणाप्रतिमां भुवि। | 4-28-7a 4-28-7b |
निष्कासयैनां भवनात्पुराच्चैव विशेषतः। | 4-28-8a 4-28-8b |
वैशंपायन उवाच। | 4-28-9x |
तेषां तद्वचनं श्रुत्वा विराटो वाहिनीपतिः। | 4-28-9a 4-28-9b |
एकस्मिन्नेव ते सर्वे सुसमिद्धे हुताशने। | 4-28-10a 4-28-10b |
इत्युक्त्वा परमोद्वग्निः प्रविश्यान्तःपुरं शुभम्। | 4-28-11a 4-28-11b |
सैरन्ध्रीमागतां ब्रूया ममैव वचनादिह । | 4-28-12a 4-28-12b 4-28-12c |
न हि तामुत्सहे वक्तुं स्वयं गन्धर्वरक्षिताम् । | 4-28-13a 4-28-13b |
वैशंपायन उवाच। | 4-28-14x |
एकस्मिन्नेव ते सर्वे सुसमिद्धे हुताशने। | 4-28-14a 4-28-14b |
अथ मुक्ता भयात्कृष्णा सूतपुत्रान्निरस्य च। | 4-28-15a 4-28-15b |
त्रासितेव मृगी बाला शार्दूलेन मनस्विनी। | 4-28-16a 4-28-16b |
तां दृष्ट्वा पुरुषा राजन्प्राद्रवन्त दिशो दश। | 4-28-17a 4-28-17b |
प्रदुद्रुवुश्चाप्यपरे तथा जना हस्तैश्च चक्षूंषि पिधाय मोहिताः। | 4-28-18a 4-28-18b |
तामद्य यः पश्यति रूपशालिनीं शयीत भग्नोऽत्र यथैव कीचकाः। | 4-28-19a 4-28-19b |
ततो महानसद्वारे भीमसेनमवस्थितम्। | 4-28-20a 4-28-20b |
सोपहासं तु शनकैः संज्ञाभिरिदमब्रवीत्। | 4-28-21a 4-28-21b |
कीचकेभ्यो विनिर्दोषामनाथां वसतीं गृहे। | 4-28-22a 4-28-22b |
भीम उवाच। | 4-28-23x |
ये यस्या विचरन्तीह पुरुषा वशवर्तिनः। | 4-28-23a 4-28-23b |
ये पुरा विचरन्तीह पुरुषा वशवर्तिनः। | 4-28-24a 4-28-24b |
वैशंपायन उवाच। | 4-28-25x |
तयोस्तद्वचनं श्रुत्वा जझिरे नेतरे जनाः। | 4-28-25a 4-28-25b |
ततः सा नर्तनागारे धनंजयमपश्यत। | 4-28-26a 4-28-26b |
ततस्ता नर्तनागाराद्विनिष्क्रम्य सहार्जुनाः। | 4-28-27a 4-28-27b |
कान्या ऊचुः। | 4-28-28x |
दिष्ट्या सैरन्ध्रि मुक्ताऽसि दिष्ट्याऽसि पुनरागता। | 4-28-28a 4-28-28b |
बृहन्नलोवाच। | 4-28-29x |
कथं सैरन्ध्रि मुक्ताऽसि कथं पापाश्च ते हताः। | 4-28-29a 4-28-29b |
सैरन्ध्युवाच। | 4-28-30x |
बृहन्नले किंनु तव सैरन्ध्र्या कार्यमद्य वै। | 4-28-30a 4-28-30b |
न हि दुःख समाप्नोषि सैरन्ध्री यदुपाश्रुते। | 4-28-31a 4-28-31b 4-28-31c |
बृहन्नलोवाच। | 4-28-32x |
बृहन्नलाऽपि कल्याणि दुःखमाप्नोत्यनन्तकम्। | 4-28-32a 4-28-32b |
त्वया सहोषिता चास्मि त्वं च सर्वैः सहोषिता। | 4-28-33a 4-28-33b 4-28-33c |
न तु केनचिदन्यन्तं कस्यचिद्धृदयं क्वचित्। | 4-28-34a 4-28-34b |
वैशंपायन उवाच। | 4-28-35x |
ततः सहैव कन्याभिर्द्रौपदी राजवेश्म तत्। | 4-28-35a 4-28-35b |
तामब्रवीद्राजपत्नी विराटवचनादिदम् । | 4-28-36a 4-28-36b 4-28-36c |
त्वं चापि तरुणी सुभ्रू रूपेणाप्रतिमा भुवि । | 4-28-37a 4-28-37b |
तस्मात्त्वत्तो भयं मह्यं राष्ट्रस्य नगरस्य च। | 4-28-38a 4-28-38b |
त्वन्निमित्तं शुभे मह्यं सर्वो बन्धुजनो हतः। | 4-28-39a 4-28-39b |
तस्माद्गन्धर्वराजेभ्यो भयमद्य प्रवर्तते। | 4-28-40a 4-28-40b |
वैशंपायन उवाच। | 4-28-41x |
सुदेष्णाया वचः श्रुत्वा सैरन्ध्री चेदमब्रवीत् । | 4-28-41a 4-28-41b |
कृतकृत्या अविष्यन्ति गन्धर्वास्ते न संशयः । | 4-28-42a 4-28-42b |
ध्रुवं च श्रेयसा राजा योक्ष्यते सह बान्धवैः । | 4-28-43a 4-28-43b 4-28-43c |
अर्थिनी मा ब्रवीत्येषा यद्वातद्वेति चिन्तय। | 4-28-44a 4-28-44b |
वैशंपायन उवाच। | 4-28-45x |
तस्यास्तद्वचनं श्रुत्वा कैकेयी दुःखमोहिता। | 4-28-45a 4-28-45b |
वस भद्रे यथेष्टं त्वं त्वामहं शरणं गता। | 4-28-46a 4-28-46b |
इत्युक्तवा राजशार्दूल राज्ञे सर्वं न्यवेदयत् । | 4-28-47a 4-28-47b |
।। इति श्रीमन्महाभारते विराटपर्वणि |
4-28-1 गन्धर्वैर्निहता राजन्निति खo थo धo पाठo ।। 1 ।। 4-28-5 तथा नीतिर्विधीयतामिति धo पाठः ।। 5 ।।
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