पृष्ठम्:भोजप्रबन्धः (विद्योतिनीव्याख्योपेतः).djvu/१४७

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=भोजप्रबन्धः


नानानदीनदशतानि च पूरयित्वा
रिक्तोऽसि यज्जलद सैव तवोत्तमश्रीः' ।। २८० ।।

 तो माघ पंडित को वस्त्रमात्रधारी जानकर एक याचक ने कहा-

ग्रीष्म ऋतु की गर्मी से तपे पर्वतों को दे आश्वासन,
तीक्ष्णदावानल से झुलसे लहलहाकार सब कानन-वन,
पूर्ण करके नद-नदी अनेक हुए हो रीते तुम वादल,
तुम्हारी यही उत्तमा श्री और शोभा है यही विमल ।

 इत्येतदाकार्ण्य माघः स्वपत्नीमाह--'देवि,

अर्था न सन्ति न च मुञ्चति मां दुराशा
त्यागे रतिं वहति दुर्ललितं मनो मे।
याच्ञा च लाघवकरी स्ववधे च पापं
प्राणाः स्वयं व्रजत् किं परिदेवनेन ॥ २८१ ॥

यह सुनकर माघ ने अपनी पत्नी से कहा--'देवि,

अर्थ नहीं है, पर न छोड़ती मुझे दुराशा,
मेरा मन दुर्ललित त्याग का ही प्रेमी है ।
और याचना छोटा करती; पाप स्ववध में,
प्राणों, स्वयं चले जाओ; रोना निष्फल है।
दारिद्रयानलसन्तापः शान्तः सन्तोषवारिणा।
याचकाशाविघातान्तर्दाहः केनोपशाम्यति' ।। २८२ ॥ इति ।।

हुआ दारिद्रय-अनल का ताप शांत संतो,-शीत जल से
याचकों की आशा के घात से हुआ जो है अंतर्दाह,
किस तरह होगा वह अब शांत ?'

ततस्तदा माघपण्डितस्य तामवस्थां विलोक्य सर्वे याचका यथा- स्थानं जग्मुः । एवं तेषु याचकेषु यथायथं गच्छत्सु माधः प्राह--

'व्रजत व्रजत प्राणा अर्थिभिव्यर्थतां गतैः।
पश्चादपि च गन्तव्यं क्च सोऽर्थः पुनरीदृशः' ।। २८३ ।।

इति विलपन्माघपण्डितः परलोकमगात् ।

तो माध पंडित की उस अवस्था को देख उस समय वे सब याचक: चले गये । उन' याचको को यथा स्थान जाते देख माघ ने कहा-