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पृष्ठम्:भोजप्रबन्धः (विद्योतिनीव्याख्योपेतः).djvu/१४६

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भोजप्रवन्धः


 उदयमहिमरश्मिर्याति शीतांशुरस्तं

 हतविधिनिहतानां ही विचित्रो विपाक' ।। २७६ ॥इति।। राजा ने उसे लेकर वांचा---

कुमुददन होता शोभा हीन और शोभा युत कमल निकुंज,
कर रहा है उलूक मुद-त्याग और चकवा प्रसन्नता-युक्त
उदय को प्राप्त दिवस कर सूर्य, शीतकर चंदा होता अस्त
भाग्य के मारे मनुजों का हाय, कैसा है विचित्र परिणाम !

 राजा तदद्भुतं प्रभातवर्णनमाकण्य लक्षत्रयं दत्वा माघपत्नीमाह- 'मातः, इदं भोजनाय दीयते। प्रातरहं माघपण्डितमागत्य नमस्कृत्य पूर्णमनोरथं करिष्यामि' इति । ततः सा तदादाय गच्छन्ती याचकानां मुखात्स्वभर्तुः शारदचन्द्रकिरणगौरान्गुणाश्रुत्वा तेभ्य एव धनमखिलं भोजदत्तं दत्तवती । माघपण्डितं स्वभर्तामासाद्य प्राह 'नाथ, राज्ञा भोजेनाहं बहुमानिता । धनं सर्व याचकेभ्यस्त्वद्गुणानाकर्ण्यं दत्तवती ।' माघ- प्राह--'देवि, साधु कृतम् । परमेते याचकाः समायान्ति किल । तेभ्यः किं देयम्' इति ।

 राजा ने उस अद्भुत प्रभात के वर्णन को सुन तीन लाख देकर माघ की पत्नी से कहा--"माता, यह भोजनार्थ दिया जाता है । सवेरे मैं माघ पंडित के पास जा उन्हें प्रणाम कर उनके मनोरथ पूर्ण करूँगा ।' तदनंतर उस धन को लेकर जाती हुई उसने याचकों से अपने पति के शरत्कालीन चंद्रमा के समान शुभ्र गुणों को सुनकर उन्हें ही भोजका दिया समस्त धन दे डाला । अपने भर्ता माघ पंडित के निकट पहुँच बोली-~~-'स्वामी, राजा भोज ने मेरा बहुत सम्मान किया; परंतु आपके गुणों को सुनकर मैंने याचकों को सब धन दे दिया।' माघ ने कहा-'देवि, अच्छा किया। परन्तु ये याचक चले आ रहे हैं, इन्हें क्या दिया जाय ?  ततो माघपण्डितं वस्त्रावशेषं ज्ञात्वा कोऽप्यर्थी प्राह--

'आश्वास्य पर्वतकुलं तपनोष्णतप्त-
मुद्दामदावविधुराणि च काननानि ।