पुनश्च प्रत्यक्षरलक्षं ददौ।
तदनंतर एक वार बल्लाल नरेश ने कालिदास से कहा-'हे सुकवि, एक- शिला नगरी का वर्णन करो । तो कवि ने कहा- .
एक शिला नगरी में मृगनयनाओं के कूटाघात पूर्वक कटाक्ष करने से गली-गली में तरुण विना अपराध के ही पग-पग पर शृंखलित ( जंजीर में वधे, आकृष्ट ) हो जाते हैं।
राजा ने फिर से प्रत्येक अक्षर पर लाख मुद्राएँ दीं।
पुनश्च पठति कविः--
'अम्भोजपत्रायतलोचनानामम्भोधिदीर्घास्विह दीर्घिकासु । |
{{gap}पुनश्च बल्लालनृपः प्रत्यक्षरं लक्षं ददौ । एवं तत्रैव स्थितः कालिदासः।' कवि ने फिर पढ़ा--
{{gap}समुद्र के सदृश बड़ी-बड़ी ( एक शिला की ) वावड़ियों में आयीं कमल- पत्र के समान बड़ी-बड़ी आँखों वाली सुंदरियों के तिरछे कटाक्षों से तरुण- जन काम बाणों से पीडित होते रहते हैं ।
{{gap}बल्लाल नरेश ने पुनः प्रत्येक अक्षर पर लाख मुद्राएँ दी। इस प्रकार कालिदास वहीं रहने लगा।
{{gap}अत्रान्तरे धारानगर्यां भोजं प्राप्य द्वारपालः प्राह--'देव, गुर्जरदेशा- न्माघनामा पण्डितवर आगत्य नगराद्बहिरास्ते; तेन च स्वपत्नी राजद्वारि प्रेषिता।' राजा--तां प्रवेशय' इत्याह । ततो माघपत्नी प्रवेशिता । सा राजहस्ते पत्रं प्रायच्छत् ।
{{gap} इसी बीच घारा नगरी में भोज के पास पहुंच द्वारपाल ने कहा- 'महाराज, गुजरात देश से माघ नामक पंडितवर आकर नगर के बाहर स्थित है और उन्होंने अपनी पत्नी को राजद्वार पर भेजा है। राजा ने कहा---'उन्हें प्रविष्ट कराओ।' तो माघ की पत्नी प्रविष्ट करायी गयीं। उन्होंने राजा के हाथ में पत्र दिया।
{{gap}राजा तदादाय वाचयति-
"कुमुदवनमपश्रि श्रीमदम्मोजषण्डं - |