महाभारतम्-05-उद्योगपर्व-038
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महाभारतस्य पर्वाणि |
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विदुरेण धृतराष्ट्रंप्रति नीतिकथनपूर्वकं पाण्डवेभ्यो राज्याप्रदाने दुर्योधनस्य राज्यभ्रंशकथनम् ।। 1 ।।
विदुर उवाच। | 5-38-1x |
ऊर्ध्वं प्राणा ह्युत्क्रामन्ति यूनः स्थविर आयति। | 5-38-1a 5-38-1b |
पीठं दत्त्वा साधवेऽभ्यागताय | 5-38-2a 5-38-2b 5-28-2c 5-28-2d |
यस्योदकं मधुपर्कं च गां च | 5-38-3a 5-38-3b 5-38-3c 5-38-3d |
चिकित्सकः शल्यकर्तावकीर्णी | 5-38-4a 5-38-4b 5-38-4c 5-38-4d |
अविक्रेयं लवणं पक्वमन्नं | 5-38-5a 5-38-5b 5-38-5c 5-38-5d |
अरोषणो यः समलोष्ठाश्मकाञ्चनः | 5-38-6a 5-38-6b 5-38-6c 5-38-6d |
नीवारमूलेङ्गुदशाकवृत्तिः | 5-38-7a 5-38-7b 5-38-7c 5-38-7d |
अपकृत्य बुद्धिमतो दूरस्थोऽस्मीति नाश्वसेत्। | 5-38-8a 5-38-8b |
न विश्वसेदविश्वस्ते विश्वस्ते नातिविश्वसेत्। | 5-38-9a 5-38-9b |
अनीर्षुर्गुप्तदारश्च संविभागी प्रियंवदः। | 5-38-10a 5-38-10b |
पूजनीया महाभागाः पुण्याश्च गृहदीप्तयः। | 5-38-11a 5-38-11b |
पितुरन्तःपुरं दद्यान्मातुर्दद्यान्महानसम्। | 5-38-12a 5-38-12b 5-38-12c |
अद्भ्योऽग्निर्ब्रह्मतः क्षत्रमश्मनो लोहमुत्थितम्। | 5-38-13a 5-38-13b |
नित्यं सन्तं कुले जाताः पावकोपमतेजसः। | 5-38-14a 5-38-14b |
यस्य मन्त्रं न जानन्ति बाह्याश्चाभ्यन्तराश्च ये। | 5-38-15a 5-38-15b |
करिष्यन्न प्रभाषेत कृतान्येव तु दर्शयेत्। | 5-38-16a 5-38-16b |
गिरिपृष्ठमुपारुह्य प्रासादं वा रहोगतः। | 5-38-17a 5-38-17b |
नासुहृत्परमं मन्त्रं भारतार्हति वेदितुम्। | 5-38-18a 5-38-18b |
नापरीक्ष्य महीपालः कुर्यात्सचिवमात्मनः। | 5-38-19a 5-38-19b |
कृतानि सर्वकार्याणि यस्य पारिषदा विदुः। | 5-38-20a 5-38-20b |
गूढमन्त्रस्य नृपतेस्तस्य सिद्धिरसंशयम् ।। | 5-38-21a 5-38-21b |
स तेषां विपरिभ्रंशाद्भ्रश्यते जीवितादपि ।। | 5-38-22a 5-38-22b |
तेषामेवाननुष्ठानं पश्चात्तापकरं मतम्।। | 5-38-23a 5-38-23b |
एवमश्रुतषाङ्गुण्यो न मन्त्रं श्रोतुमर्हति ।। | 5-38-24a 5-38-24b |
अनवज्ञातशीलस्य स्वाधीना पृथिवी नृप ।। | 5-38-25a 5-38-25b |
आत्मप्रत्ययकोशस्य वसुदैव वसुन्धरा ।। | 5-38-26a 5-38-26b |
भृत्येभ्यो विसृजेदर्थान्नैकः सर्वहरो भवेत् ।। | 5-38-27a 5-38-27b |
अमात्यं नृपतिर्वेद राजा राजानमेव च ।। | 5-38-28a 5-38-28b |
न्यग्भूत्वा पर्युपासीत वध्वं हन्याद्बले सति ।। | 5-38-29a 5-38-29b |
दैवतेषु प्रयत्नेन राजसु ब्राह्मणेषु च। | 5-38-30a 5-38-30b |
निरर्थं कलहं प्राज्ञो वर्जयेन्मूढसेवितम्। | 5-38-31a 5-38-31b |
प्रसादो निष्फलो यस्य क्रोधश्चापि निरर्थकः। | 5-38-32a 5-38-32b |
न बुद्धिर्धनलाभाय न जाड्यमसमृद्धये। | 5-38-33a 5-38-33b |
विद्याशीलवयोवृद्धान्बुद्धिवृद्धांश्च भारत। | 5-38-34a 5-38-34b |
अनार्यवृत्तमप्राज्ञमसूयकमधार्मिकम्। | 5-38-35a 5-38-35b |
अविसंवादनं दानं समयस्याव्यतिक्रमः । | 5-38-36a 5-38-36b |
अविसंवादको दक्षः कृतज्ञो मतिमानृजुः । | 5-38-37a 5-38-37b |
धृतिः शमो दमः शौचं कारुण्यं वागनिष्ठुरा। | 5-38-38a 5-38-38b |
असंविभागी दुष्टात्मा कृतघ्नो निरपत्रपः । | 5-38-39a 5-38-39b |
न च रात्रौ सुखं शेते ससर्प इव वेश्मनि। | 5-38-40a 5-38-40b |
येषु दुष्टेषु दोषः स्याद्योगक्षेमस्य भारत। | 5-38-41a 5-38-41b |
येऽर्थाः स्त्रीषु समायुक्ताः प्रमत्तपतितेषु च। | 5-38-42a 5-38-42b |
यत्र स्त्री यत्र कितवो बालो यत्रानुशासिता। | 5-38-43a 5-38-43b |
प्रयोजनेषु ये सक्ता न विशेषेषु भारत। | 5-38-44a 5-38-44b |
यं प्रशंसन्ति कितवा यं प्रशंसन्ति चारणाः । | 5-38-45a 5-38-45b |
हित्वा तान्परमेष्वासान्पाण्डवानमितौजसः। | 5-38-46a 5-38-46b |
तं द्रक्ष्यसि परिभ्रष्टं तस्मात्त्वमचिरादिव। | 5-38-47a 5-38-47b |
।। इति श्रीमन्महाभारते उद्योगपर्वणि |
5-38-1 आयति आगच्छति ।। 5-38-2 निर्णिज्य प्रक्षाल्य। आत्मसंस्थां स्वस्थितिम् ।। 5-38-4 अवकीर्णी नष्टब्रह्मचर्यः। नोदकार्ह उदकमात्रानर्होऽपि अतिथिः भृशं प्रियः ।। 5-38-15 सर्वतश्चक्षुश्चारेः परमन्त्रं जानन् ।। 5-38-17 निःशलाके रहसि ।। 5-38-20 पारिषादः सभासदः ।। 5-38-23 षाङ्गुण्यं षण्णां संधिविग्रहयानासनद्वैधीभावसमाश्रयाणां समूहः न श्रुतो येन सः ।। 5-38-25 आत्मनैव प्रत्ययो ज्ञानं यस्य स्वयमेव ज्ञातकोशस्य ।। 5-38-26 नाममात्रेणैव राजा भवेत्। भोगांस्तु भृत्यैः समानानेव भुञ्जीत ।। 5-38-36 आवर्तयन्ति शत्रूनपि स्वीयान्कुर्वन्ति । प्रणिहिता प्रयुक्ता ।। 5-38-37 परिवारणं परिवारान् भृत्यमित्रादीन् ।। 5-38-38 समिधः उद्दीपिकाः ।। 5-38-39 असंविभागी पोष्येभ्योऽदत्त्वा स्वयं भुञ्जानः ।। 5-38-44 ये भृत्याः विशेषा आधिक्यानि। प्रसङ्गिनः प्रसङ्गः संघर्षस्तत्कारिणः ।।
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