यजुर्वेदभाष्यम् (दयानन्दसरस्वतीविरचितम्)/अध्यायः ३/मन्त्रः ५२

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अध्यायः ३
दयानन्दसरस्वती
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सम्पादकः — डॉ॰ ज्ञानप्रकाश शास्त्री, जालस्थलीय-संस्करण-सम्पादकः — डॉ॰ नरेश कुमार धीमान्
यजुर्वेदभाष्यम्/अध्यायः ३


सुसंदृशमित्यस्य गोतम ऋषिः। इन्द्रो देवता। विराट् पङ्क्तिश्छन्दः। पञ्चमः स्वरः॥

स इन्द्रः कीदृश इत्युपदिश्यते॥

वह इन्द्र कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥

सु॒स॒न्दृशं॑ त्वा व॒यं मघ॑वन् वन्दिषी॒महि॑।

प्र नू॒नं पू॒र्णब॑न्धुर स्तु॒तो या॑सि॒ वशाँ॒२ऽअनु॒ योजा॒ न्वि᳖न्द्र ते॒ हरी॑॥५२॥

पदपाठः—सु॒सं॒दृश॒मिति॑ सुऽसं॒दृश॑म्। त्वा॒। व॒यम्। मघ॑व॒न्निति॒ मघ॑ऽवन्। व॒न्दि॒षी॒महि॑। प्र। नू॒नम्। पू॒र्णब॑न्धुर॒ इति॑ पू॒र्णऽब॑न्धुरः। स्तु॒तः। या॒सि॒। वशा॑न्। अनु॑। योज॑। नु। इ॒न्द्र॒। ते॒। हरी॒ऽइति॒ हरी॑॥५२॥

पदार्थः—(सुसंदृशम्) यः सुष्ठु पश्यति दर्शयति वा तम् (त्वा) त्वां तं वा (वयम्) मनुष्याः (मघवन्) परमोत्कृष्टधनयुक्तेश्वर! धनप्राप्तिहेतुर्वा (वन्दिषीमहि) नमेम स्तुवीमहि (प्र) प्रकृष्टार्थे (नूनम्) निश्चयार्थे (पूर्णबन्धुरः) यः पूर्णश्चासौ बन्धुरश्च सः। पूर्णस्य जगतो बन्धुरो बन्धनहेतुर्वा (स्तुतः) स्तुत्या लक्षितः (यासि) प्राप्नोषि प्रापयति वा। अत्र पक्षे व्यत्ययः (वशान्) कामयमानान् पदार्थान् (अनु) पश्चात् (योज) योजय युङ्क्ते वा। अत्रापि पूर्ववद् व्यत्ययदीर्घत्वे। (नु) उपमार्थे (इन्द्र) जगदीश्वर सूर्यस्य वा (ते) तवास्य वा (हरी) बलपराक्रमौ धारणाकर्षणे वा। अयं मन्त्रः (शत॰ २.६.१.३८) व्याख्यातः॥५२॥

अन्वयः—हे मघवन्निन्द्र! वयं सुसंदृशं त्वा त्वां वन्दिषीमहि अस्माभिः स्तुतः पूर्णबन्धुरः संस्त्वं वशान् कामान् यासि प्रापयसि ते तव हरी त्वमनु प्रयोजेत्येकः॥१॥५२॥

वयं सुसंदृशं मघवन् मघवन्तं पूर्णबन्धुरं त्वा तमिमं सूर्यलोकं नूनं वन्दिषीमहि। स्तुतः प्रकाशितगुणः सन्नयं वशानुत्कृष्टव्यवहारसाधकान् कामान् यासि प्रापयति। हे विद्वंस्त्वं यथा तेऽस्येन्द्रस्य हरी अस्मिन् जगति युङ्क्तः, तथैव विद्यासिद्धिकराण्यनुप्रयोजेति द्वितीयः॥२॥५२॥

भावार्थः—अत्र श्लेषोपमालङ्कारौ। मनुष्यैः सर्वजगद्धितकारी जगदीश्वरो वन्दितव्यो नैवेतरः। यथा सूर्यो मूर्तद्रव्याणि प्रकाशयति तथोपासितः सोऽपि भक्तजनात्मसु विज्ञानोत्पादनेन सर्वान् सत्यव्यवहारान् प्रकाशयति तस्मान्नैवेश्वरं विहाय कस्यचिदन्यस्योपासनं कर्तव्यमिति॥५२॥

पदार्थः—हे (मघवन्) उत्तम-उत्तम विद्यादि धनयुक्त (इन्द्र) परमात्मन्! (वयम्) हम लोग (सुसंदृशम्) अच्छे प्रकार व्यवहारों के देखने वाले (त्वा) आपकी (नूनम्) निश्चय करके (वन्दिषीमहि) स्तुति करें तथा हम लोगों से (स्तुतः) स्तुति किये हुए आप (वशान्) इच्छा किये हुए पदार्थों को (यासि) प्राप्त कराते हो और (ते) अपने (हरी) बल पराक्रमों को आप (अनुप्रयोज) हम लोगों के सहाय के अर्थ युक्त कीजिये॥१॥५२॥

(वयम्) हम लोग (सुसंदृशम्) अच्छे प्रकार पदार्थों को दिखाने वा (मघवन्) धन को प्राप्त कराने तथा (पूर्णबन्धुरः) सब जगत् के बन्धन के हेतु (त्वा) उस सूर्यलोक की (नूनम्) निश्चय करके (वन्दिषीमहि) स्तुति अर्थात् इसके गुण प्रकाश करते हैं। (स्तुतः) स्तुति किया हुआ यह हम लोगों को (वशान्) उत्तम-उत्तम व्यवहारों को सिद्धि कराने वाली कामनाओं को (यासि) प्राप्त कराता है (नु) जैसे (ते) इस सूर्य के (हरी) धारण-आकर्षण गुण जगत् में युक्त होते हैं, वैसे आप हम लोगों को विद्या की सिद्धि करने वाले गुणों को (अनुप्रयोज) अच्छे प्रकार प्राप्त कीजिये॥२॥५२॥

भावार्थः—इस मन्त्र में श्लेष और उपमालङ्कार हैं। मनुष्यों को सब जगत् के हित करने वाले जगदीश्वर ही की स्तुति करनी और किसी की न करनी चाहिये, क्योंकि जैसे सूर्यलोक सब मूर्तिमान् द्रव्यों का प्रकाश करता है, वैसे उपासना किया हुआ ईश्वर भी भक्तजनों के आत्माओं में विज्ञान को उत्पन्न करने से सब सत्यव्यवहारों को प्रकाशित करता है। इससे ईश्वर को छोड़कर और किसी की उपासना कभी न करनी चाहिये॥५२॥