यजुर्वेदभाष्यम् (दयानन्दसरस्वतीविरचितम्)/अध्यायः ३/मन्त्रः ४६
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सम्पादकः — डॉ॰ ज्ञानप्रकाश शास्त्री, जालस्थलीय-संस्करण-सम्पादकः — डॉ॰ नरेश कुमार धीमान् |
मो षू ण इत्यस्यागस्त्य ऋषिः। इन्द्रमारुतौ देवते। भुरिक्पङ्क्तिश्छन्दः। पञ्चमः स्वरः॥
ईश्वरशूरवीरसहायेन युद्धे विजयो भवतीत्युपदिश्यते॥
ईश्वर और शूरवीर के सहाय से युद्ध में विजय होता है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥
मो षू ण॑ऽइ॒न्द्रात्र॑ पृ॒त्सु दे॒वैरस्ति॒ हि ष्मा॑ ते शुष्मिन्नव॒याः।
म॒हश्चि॒द्यस्य॑ मी॒ढुषो॑ य॒व्या ह॒विष्म॑तो म॒रुतो॒ वन्द॑ते॒ गीः॥४६॥
पदपाठः—मोऽइति॒ मो। सु। नः॒। इ॒न्द्र॒। अत्र॑। पृ॒त्स्विति॑ पृ॒त्ऽसु। दे॒वैः। अस्ति॑। हि। स्म॒। ते॒। शु॒ष्मि॒न्। अ॒व॒या इत्य॑व॒ऽयाः। म॒हः। चि॒त्। यस्य॑। मी॒ढुषः॑। य॒व्या। ह॒विष्म॑तः। म॒रुतः॑। वन्द॑ते। गीः॥४६॥
पदार्थः—(मो) निषेधार्थे (सु) शोभनार्थे निपातस्य च [अष्टा॰ ६.३.१३६] इति दीर्घः। (नः) अस्मान् (इन्द्र) जगदीश्वर सुवीर वा (अत्र) अस्मिन् संसारे (पृत्सु) संग्रामेषु। पृत्स्विति संग्रामनामसु पठितम्। (निघं॰ २.१७) (देवैः) विद्वद्भिः शूरैः (अस्ति) (हि) खलु (स्म) वर्तमाने। निपातस्य च [अष्टा॰ ६.३.१३६] इति दीर्घः। (ते) तव (शुष्मिन्) अनन्तबलवन् पूर्णबलवन् वा। शुष्ममिति बलनामसु पठितम्। (निघं॰ २.९) (अवयाः) अवयजते विनिगृह्णाति (महः) महत्तरम् (चित्) उपमार्थे (यस्य) वक्ष्यमाणस्य (मीढुषः) विद्यादिसद्गुणसेचकान् (यव्या) यवेषु साधूनि हवींषि यव्यानि। अत्र शेश्छन्दसि [अष्टा॰ ६.१.७०] इति शेर्लोपः। (हविष्मतः) प्रशस्तानि हवींषि विद्यन्ते येषु तान् (मरुतः) ऋत्विजः (वन्दते) स्तौति तद्गुणान् प्रकाशयति (गीः) वाणी। गीरिति वाङ्नामसु पठितम्। (निघं॰ १.११)। अयं मन्त्रः (शत॰ २.५.२.२६-२८) व्याख्यातः॥४६॥
अन्वयः—हे इन्द्र शूरवीरेश्वर! कृपया त्वमत्र पृत्सु देवैर्विद्वद्भिः सहितान् नोऽस्मान् सु रक्ष मो हिन्धि। हे शुष्मिन्! स्म ते तव महो गीर्ह्येतान् मीढुषो हविष्मतो मरुतो वन्दते चिदेते त्वां सततं वन्दन्तेऽभिवाद्यानदयन्तीव, योऽवया यजमानोऽस्ति, स त्वदाज्ञया यानि यव्या यव्यानि हवींष्यग्नौ जुहोति तानि सर्वान् प्राणिनः सुखयन्तीति॥४६॥
भावार्थः—अत्रोपमालङ्कारः। यदा मनुष्याः परमेश्वरमाराध्य सम्यक् सामग्रीः कृत्वा युद्धेषु शत्रून् विजित्य चक्रवर्तिराज्यं प्राप्य सम्पाल्य महान्तमानन्दं सेवन्ते तदा सुराज्यं जायत इति॥४६॥
पदार्थः—हे (इन्द्र) शूरवीर! आप (अत्र) इस लोक में (पृत्सु) युद्धों में (देवैः) विद्वानों के साथ (नः) हम लोगों की (सु) अच्छे प्रकार रक्षा कीजिये तथा (मो) मत हनन कीजिये। हे (शुष्मिन्) पूर्ण बलयुक्त शूरवीर! (हि) निश्चय करके (चित्) जैसे (ते) आपकी (महः) बड़ी (गीः) वेदप्रमाणयुक्त वाणी (मीढुषः) विद्या आदि उत्तम गुणों के सींचने वा (हविष्मतः) उत्तम-उत्तम हवि अर्थात् पदार्थयुक्त (मरुतः) ऋतु-ऋतु में यज्ञ करने वाले विद्वानों के (वन्दते) गुणों का प्रकाश करती है, जैसै विद्वान् लोग आप के गुणों का हम लोगों के अर्थ निरन्तर प्रकाश करके आनन्दित होते हैं, वैसे जो (अवयाः) यज्ञ करने वाला यजमान है, वह आपकी आज्ञा से जिन (यव्या) उत्तम-उत्तम यव आदि अन्नों को अग्नि में होम करता है, वे पदार्थ सब प्राणियों को सुख देने वाले होते हैं॥४६॥
भावार्थः—इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जब मनुष्य लोग परमेश्वर की आराधना कर अच्छे प्रकार सब सामग्री को संग्रह करके युद्ध में शत्रुओं को जीतकर चक्रवर्त्ति राज्य को प्राप्त कर प्रजा का अच्छे प्रकार पालन करके बड़े आनन्द को सेवन करते हैं, तब उत्तम राज्य होता है॥४६॥