सामग्री पर जाएँ

यजुर्वेदभाष्यम् (दयानन्दसरस्वतीविरचितम्)/अध्यायः ३/मन्त्रः १०

विकिस्रोतः तः
← मन्त्रः ९ यजुर्वेदभाष्यम् (दयानन्दसरस्वतीविरचितम्)
अध्यायः ३
दयानन्दसरस्वती
मन्त्रः ११ →
सम्पादकः — डॉ॰ ज्ञानप्रकाश शास्त्री, जालस्थलीय-संस्करण-सम्पादकः — डॉ॰ नरेश कुमार धीमान्
यजुर्वेदभाष्यम्/अध्यायः ३


सजूरित्यस्य प्रजापतिर्ऋषिः। पूर्वार्द्धस्याग्निरुत्तरार्द्धस्य सूर्यश्च देवते। पूर्वार्द्धस्य गायत्र्युत्तरार्द्धस्य भुरिग्गायत्री च छन्दः। षड्जः स्वरः॥

भौतिकावग्निसूर्यौ कस्य सत्तया वर्तेत इत्युपदिश्यते॥

भौतिक अग्नि और सूर्य ये दोनों किस की सत्ता से वर्त्तमान हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥

स॒जूर्दे॒वेन॑ सवि॒त्रा स॒जू रात्र्येन्द्र॑वत्या। जु॒षा॒णोऽअ॒ग्निर्वे॑तु॒ स्वाहा॑।

स॒जूर्दे॒वेन॑ सवि॒त्रा स॒जूरु॒षसेन्द्र॑वत्या। जु॒षा॒णः सूर्यो॑ वेतु॒ स्वाहा॑॥१०॥

पदपाठः—स॒जूरिति॑ स॒ऽजूः। दे॒वेन॑। स॒वि॒त्रा। स॒जूरिति॑ स॒ऽजूः। रात्र्या॑। इन्द्र॑व॒त्येतीन्द्र॑ऽवत्या। जु॒षा॒णः। अ॒ग्निः। वे॒तु॒। स्वाहा॑। स॒जूरिति॑ स॒ऽजूः। दे॒वेन॑। स॒वि॒त्रा। स॒जूरिति॑ स॒ऽजूः। उ॒षसा। इन्द्र॑व॒त्येतीन्द्र॑ऽवत्या। जु॒षा॒णः। सूर्यः॑। वे॒तु॒। स्वाहा॑॥१०॥

पदार्थः—(सजूः) यः समानं जुषते सेवते सः (देवेन) सर्वजगद्द्योतकेन (सवित्रा) सर्वस्य जगत उत्पादकेनेश्वरेणोत्पादितया (सजूः) यः समानं जुषते प्रीणाति सः (रात्र्या) तमोरूपया (इन्द्रवत्या) इन्द्रो बह्वी विद्युद् विद्यते यस्यां तया। अत्र भूम्न्यर्थे मतुप्। स्तनयित्नुरेवेन्द्रः। (शत॰ १४.६.९.७) (जुषाणः) यो जुषते सेवते सः (अग्निः) भौतिकः (वेतु) व्याप्नोति। अत्र लडर्थे लोट् (स्वाहा) ईश्वरस्य स्वा वागाहेत्यस्मिन्नर्थे (सजूः) उक्तार्थः (देवेन) सूर्यादिप्रकाशकेन (सवित्रा) सर्वान्तर्यामिना जगदीश्वरेणोत्पादितया (सजूः) उक्तार्थः (उषसा) रात्र्यवसानोत्पन्नया दिवसहेतुना (इन्द्रवत्या) सूर्यप्रकाशसहितयोषसा (जुषाणः) सेवमानः सूर्यलोकः (वेतु) प्राप्नोति। अत्रापि लडर्थे लोट्। (स्वाहा) हुतामाहुतिम्। अयं मन्त्रः (शत॰ २.३.१.३७-३९) व्याख्यातः॥१०॥

अन्वयः—अयमग्निर्देवेन सवित्रा जगदीश्वरेणोत्पादितया सृष्ट्या सह सजूर्जुषाण इन्द्रवत्या रात्र्या सह स्वाहा जुषाणः सन् वेतु सर्वान् पदार्थान् व्याप्नोति। एवं सूर्य्यो देवेन सवित्रा सकलजगदुत्पादकेन धारितया सृष्ट्या सह सजूर्जुषाण इन्द्रवत्योषसा सह स्वाहा जुषाणः सन् हुतं द्रव्यं वेतु व्याप्नोति॥१०॥

भावार्थः—हे मनुष्या! यूयं योऽयमग्निरीश्वरेण निर्मितः स तत्सत्तया स्वस्वरूपं धारयन् सन् रात्रिस्थान् व्यवहारान् प्रकाशयति। एवं च सूर्य उषःकालमेत्य सर्वाणि मूर्त्तद्रव्याणि प्रकाशयितुं शक्नोतीति विजानीत॥१०॥

पदार्थः—(अग्निः) जो भौतिक अग्नि (देवेन) सब जगत् को ज्ञान देने वा (सवित्रा) सब जगत् को उत्पन्न करने वाले ईश्वर के उत्पन्न किये हुए जगत् के साथ (सजूः) तुल्य वर्तमान (जुषाणः) सेवन करता हुआ (इन्द्रवत्या) बहुत बिजुली से युक्त (रात्र्या) अन्धकार रूप रात्रि के साथ (स्वाहा) वाणी को सेवन करता हुआ (वेतु) सब पदार्थों में व्याप्त होता है, इसी प्रकार (सूर्यः) जो सूर्यलोक (देवेन) सब को प्रकाश करने वाले वा (सवित्रा) सब के अन्तर्यामी परमेश्वर के उत्पन्न वा धारण किये हुए जगत् के साथ (सजूः) तुल्य वर्तमान (जुषाणः) सेवन करता वा (इन्द्रवत्या) सूर्यप्रकाश से युक्त (उषसा) दिन के प्रकाश के हेतु प्रातःकाल के साथ (स्वाहा) अग्नि में होम की हुई आहुतियों को (जुषाणः) सेवन करता हुआ व्याप्त होकर हवन किये हुए पदार्थों को (वेतु) देशान्तरों में पहुँचाता है, उसी से सब व्यवहार सिद्ध करें॥१०॥

भावार्थः—हे मनुष्यो! तुम लोग जो भौतिक अग्नि ईश्वर ने रचा है, वह इसी की सत्ता से अपने रूप को धारण करता हुआ दीपक आदि रूप से रात्रि के व्यवहारों को सिद्ध करता है। इसी प्रकार जो (सूर्य) प्रातःकाल को प्राप्त होकर सब मूर्तिमान् द्रव्यों के प्रकाश करने को समर्थ है, वही काम सिद्धि करने हारा है, इसको जानो॥१०॥