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यजुर्वेदभाष्यम् (दयानन्दसरस्वतीविरचितम्)/अध्यायः ३/मन्त्रः ६०

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अध्यायः ३
दयानन्दसरस्वती
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सम्पादकः — डॉ॰ ज्ञानप्रकाश शास्त्री, जालस्थलीय-संस्करण-सम्पादकः — डॉ॰ नरेश कुमार धीमान्
यजुर्वेदभाष्यम्/अध्यायः ३


त्र्यम्बकमित्यस्य वसिष्ठ ऋषिः। रुद्रो देवता। विराड् ब्राह्मी त्रिष्टुप् छन्दः। धैवतः स्वरः॥

पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते॥

फिर वह कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥

त्र्य॑म्बकं यजामहे सुग॒न्धिं पु॑ष्टि॒वर्ध॑नम्।

उ॒र्वा॒रु॒कमि॑व॒ बन्ध॑नान्मृ॒त्योर्मु॑क्षीय॒ माऽमृता॑त्।

त्र्य॑म्बकं यजामहे सुग॒न्धिं प॑ति॒वेद॑नम्।

उ॒र्वा॒रु॒कमि॑व॒ बन्ध॑नादि॒तो मु॑क्षीय॒ मामुतः॑॥६०॥

पदपाठः—त्र्य॑म्बक॒मिति॒ त्रिऽअ॑म्बकम्। य॒जा॒म॒हे॒। सु॒ग॒न्धिमिति॑ सुऽग॒न्धिम्। पु॒ष्टि॒वर्ध॑न॒मिति॑ पुष्टि॒ऽवर्ध॑नम्। उ॒र्वा॒रु॒कमि॒वेत्यु॑र्वारु॒कम्ऽइ॑व। बन्ध॑नात्। मृ॒त्योः। मु॒क्षी॒य॒। मा। अ॒मृता॑त्। त्र्य॑म्बक॒मिति॒ त्रिऽअ॑म्बकम्। य॒जा॒म॒हे॒। सु॒ग॒न्धिमिति॑ सुऽग॒न्धिम्। प॒ति॒वेद॑न॒मिति॑ पति॒ऽवेद॑नम्। उ॒र्वा॒रु॒कमि॒वेत्यु॑र्वारु॒कम्ऽइ॑व। बन्ध॑नात्। इ॒तः। मु॒क्षी॒य॒। मा। अ॒मु॒तः॑॥६०॥

पदार्थः—(त्र्यम्बकम्) उक्तार्थं रुद्रं जगदीश्वरम् (यजामहे) नित्यं पूजयेमहि (सुगन्धिम्) शोभनः शुद्धो गन्धो यस्मात् तम्। अत्र गन्धस्येदुत्पूतिसुसुरभिभ्यः (अष्टा॰ ५.४.१३५) इति सूत्रेण समासान्त इकारादेशः। (पुष्टिवर्धनम्) पुष्टेः शरीरात्मबलस्य वर्धनस्तम्। अत्र नन्द्यादित्वाल्ल्युः प्रत्ययः। (उर्वारुकमिव) यथोर्वारुकफलं पक्वं भूत्वाऽमृतात्मकं भवति (बन्धनात्) लतासम्बन्धात् (मृत्योः) प्राणशरारात्मवियोगात् (मुक्षीय) मुक्तो भूयासम् (मा) निषेधे (अमृतात्) मोक्षसुखात् (त्र्यम्बकम्) सर्वाध्यक्षम् (यजामहे) सत्कुर्वीमहि (सुगन्धिम्) सुष्ठु गन्धो यस्मिँस्तम् (पतिवेदनम्) पाति रक्षति स पतिः पतेर्वेदनं प्रापणं ज्ञानं वा यस्मात् तम् (उर्वारुकमिव) उक्तोऽर्थः (बन्धनात्) उक्तोऽर्थः (इतः) अस्माच्छरीरान्मर्त्यलोकाद् वा (मुक्षीय) पृथग्भूयासम् (मा) निषेधार्थे (अमुतः) मोक्षाख्यात् परलोकात् परजन्मसुखफलाद् धर्माद्वा॥ अत्राह यास्को निरुक्ते-त्र्यम्बको रुद्रस्तं अम्बकं यजामहे सुगन्धिं सुष्ठुगन्धिं पुष्टिवर्धनं पुष्टिकारकमिवोर्वारुकमिव फलं बन्धनादारोधनान्मृत्योः सकाशात् मुञ्चस्व माम् (निरु॰ १३.४८) । अयं मन्त्रः (शत॰ २.६.२.१२-१४) व्याख्यातः॥६०॥

अन्वयः—वयं सुगन्धिं पुष्टिवर्धनं त्र्यम्बकं देवं यजामहे नित्यं पूजयेमहि। एतस्य कृपयाऽहं बन्धनादुर्वारुकमिव मृत्योर्मुक्षीय मुक्तो भूयासम्। अमृतान्मा मुक्षीमहि मा श्रद्धारहिता भूयासम्। वयं सुगन्धिं पतिवेदनं त्र्यम्बकं सर्वस्वामिनं जगदीश्वरं यजामहे सततं सत्कुर्वीमहि। एतदनुग्रहेणाहं बन्धनादुर्वारुकमिवेतो मुक्षीय पृथग्भूयासम्। वयममुतो मोक्षसुखात् सत्यसुखफलाद् धर्माद् विरक्ता मा भूयास्म॥६०॥

भावार्थः—अत्रोपमालङ्कारः। नैव मनुष्या ईश्वरं विहाय कस्याप्यन्यस्य पूजनं कुर्य्युः, तस्य वेदाविहितत्वेन दुःखफलत्वात्। यथोर्वारुकफलं यदा लतायां लग्नं सत् स्वयं पक्वं भूत्वा समयं प्राप्य लताबन्धनान्मुक्त्वा सुस्वादु भवति, तथैव पूर्णमायुर्भुक्त्वा शरीरं त्यक्त्वा मुक्तिं प्राप्नुयाम। मा कदाचिन्मोक्षप्राप्त्यनुष्ठानात् परलोकात् परजन्मनो वा विरक्ता भवेम। नैव नास्तिकत्वमाश्रित्य कदाचिदीश्वरस्यानादरं कुर्य्याम। यथा व्यवहारिकसुखायान्नजलादिकमीप्सन्ति, तथैवेश्वरे वेदेषु तदुक्तधर्मे मुक्तौ च नित्यं श्रद्दधीमहि॥६०॥

पदार्थः—हम लोग जो (सुगन्धिम्) शुद्ध गन्धयुक्त (पुष्टिवर्धनम्) शरीर, आत्मा और समाज के बल को बढ़ाने वाला (त्र्यम्बकम्) रुद्ररूप जगदीश्वर है, उसकी (यजामहे) निरन्तर स्तुति करें। इनकी कृपा से (उर्वारुकमिव) जैसे खर्बूजा फल पक कर (बन्धनात्) लता के सम्बन्ध से छूट कर अमृत के तुल्य होता है, वैसे हम लोग भी (मृत्योः) प्राण वा शरीर के वियोग से (मुक्षीय) छूट जावें (अमृतात्) और मोक्षरूप सुख से (मा) श्रद्धारहित कभी न होवें तथा हम लोग (सुगन्धिम्) उत्तम गन्धयुक्त (पतिवेदनम्) रक्षा करने हारे स्वामी को देने वाले (त्र्यम्बकम्) सब के अध्यक्ष जगदीश्वर का (यजामहे) निरन्तर सत्कारपूर्वक ध्यान करें और इसके अनुग्रह से (उर्वारुकमिव) जैसे खरबूजा पक कर (बन्धनात्) लता के सम्बन्ध से छूट कर अमृत के समान मिष्ट होता है, वैसे हम लोग भी (इतः) इस शरीर से (मुक्षीय) छूट जावें (अमुतः) मोक्ष और अन्य जन्म के सुख और सत्यधर्म के फल से (मा) पृथक् न होवें॥६०॥

भावार्थः—इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। मनुष्य लोग ईश्वर को छोड़कर किसी का पूजन न करें, क्योंकि वेद से अविहित और दुःखरूप फल होने से परमात्मा से भिन्न दूसरे किसी की उपासना न करनी चाहिये। जैसे खर्बूजा फल लता में लगा हुआ अपने आप पक कर समय के अनुसार लता से छूट कर सुन्दर स्वादिष्ट हो जाता है, वैसे ही हम लोग पूर्ण आयु को भोग कर शरीर को छोड़ के मुक्ति को प्राप्त होवें। कभी मोक्ष की प्राप्ति के लिये अनुष्ठान वा परलोक की इच्छा से अलग न होवें और न कभी नास्तिक पक्ष को लेकर ईश्वर का अनादर भी करें। जैसे व्यवहार के सुखों के लिये अन्न, जल आदि की इच्छा करते हैं, वैसे ही हम लोग ईश्वर, वेद, वेदोक्तधर्म और मुक्ति होने के लिये निरन्तर श्रद्धा करें॥६०॥