महाभारतम्-04-विराटपर्व-032
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महाभारतस्य पर्वाणि |
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दुर्योधनेन कीचकवधस्य भीमसेनकृतत्वसंभावनया पाण्डवानां तत्र स्थितिसंभावना ।। 1 ।।
तथा भीष्माद्यनुमत्या सुशर्मणो विराटनगरंप्रति प्रेषणम् ।। 2 ।।
सुशर्मणा विराटनगरमेत्य दक्षिणभागे गोग्रहम् ।। 3 ।।
वैशंपायन उवाच। | 4-32-1x |
ततः शारद्वतो वाक्यमित्युवाच कृतस्तदा। | 4-32-1a 4-32-1b |
धर्मार्थसहितं श्लक्ष्णं सर्वं सत्यं सहेतुकम्। | 4-32-2a 4-32-2b |
तेषां चैव गतिस्तत्र र्निवासश्चानुचिन्त्यताम् । | 4-32-3a 4-32-3b |
नावज्ञेयो रिपुस्तात प्राकृतोऽपि बुभूषता। | 4-32-4a 4-32-4b |
तस्मात्सत्रं प्रविष्टेषु पाण्डवेषु महात्मसु । | 4-32-5a 4-32-5b |
स्वराष्ट्रे परराष्ट्रे च ज्ञातव्यं बलमात्मनः । | 4-32-6a 4-32-6b |
निवृत्तसमयाः पार्था महात्मानो महाबलाः । | 4-32-7a 4-32-7b |
तस्माद्बलं च कोशं च नातिश्चापि विधीयताम्। | 4-32-8a 4-32-8b |
यत्र यन्मन्यसे श्रेयो बुध्यस्व बलमात्मनः । | 4-32-9a 4-32-9b |
सारं फल्गु बलं ज्ञात्वा मध्यस्थं चापि भारत । | 4-32-10a 4-32-10b |
अप्रहृशष्टं प्राहृष्टं वा संदधाम तथा परैः । | 4-32-11a 4-32-11b |
न्यायेनाक्रम्य च परान्बलाच्चानम्य दुर्बलान् । | 4-32-12a 4-32-12b |
स्वकोशबलसंवृद्धः सम्यक्सिद्धिमवाप्स्यसि । | 4-32-13a 4-32-13b 4-32-13c |
एवं सर्वं विनिश्चित्य व्यवहर्तासि न्यायतः। | 4-32-14a 4-32-14b |
भीष्माद्रोणकृपैरुक्ते कर्णदुःशासनादिभिः। | 4-32-15a 4-32-15b 4-32-15c |
श्रुतमेतन्मया पूर्वं कथासु जनसंसदि। | 4-32-16a 4-32-16b 4-32-16c |
सत्वे बाहुबले धैर्ये प्राणे शारीरसंभवे। | 4-32-17a 4-32-17b |
चत्वारस्तु नरव्याघ्रा बले शक्रोपमा भुवि। | 4-32-18a 4-32-18b |
बलदेवश्च भीमश्च मद्रराजश्च वीर्यवान् । | 4-32-19a 4-32-19b |
अन्योन्यानन्तरबलाः परस्परजयैपिणः। | 4-32-20a 4-32-20b |
तेनाहमवगच्छामि प्रत्ययेन वृकोदरम्। | 4-32-21a 4-32-21b |
तत्राहं कीचकं मन्ये भीमसेनेन मारितम्। | 4-32-22a 4-32-22b |
शङ्के कृष्णानिमित्तं तु भीमसेनेन कीचकः। | 4-32-23a 4-32-23b |
को हि शक्तः परो भीमात्कीचकं हन्तुमोजसा । | 4-32-24a 4-32-24b |
मर्दितुं वा तथा तीव्रं चर्ममांसास्थिचूर्णनम् । | 4-32-25a 4-32-25b |
ध्रुवं कृष्णानिमित्तं तु भीमसेनेन सूतजाः । | 4-32-26a 4-32-26b |
पितामहेन ये चोक्ता देशस्य च जनस्य च। | 4-32-27a 4-32-27b |
विराटनगरे मन्ये पाण्डवाश्छन्नचारिणः। | 4-32-28a 4-32-28b |
मत्स्यराष्ट्रं गमिष्यामो ग्रहीष्यामश्च गोधनम्। | 4-32-29a 4-32-29b |
अपूर्णे समये चापि यदि पश्येम पाण्डवान्। | 4-32-30a 4-32-30b |
तस्मादन्यतरेणापि लाभोऽस्माकं भविष्यति। | 4-32-31a 4-32-31b |
कथं सुयोधनं गच्छेद्युधिष्ठिरभृतः पुरा। | 4-32-32a 4-32-32b |
तस्मात्कर्तव्यमेतद्वै तत्र यात्रा विधीयताम्। | 4-32-33a 4-32-33b |
वैशंपायन उवाच। | 4-32-34x |
ततो राजा त्रिगर्तानां सुशर्मा रथयूथपः। | 4-32-34a 4-32-34b 4-32-34c |
असकृन्निकृतः पूर्वं मात्स्यसाल्वेयकेकयैः । | 4-32-35a 4-32-35b |
बाधितो बन्धुभिः सार्धं बलाद्बलवता विभो। | 4-32-36a 4-32-36b |
राष्ट्रं ममासकृद्राजन्राज्ञा मात्स्येन बाधितम् ।। 37 ।। | 4-32-37a |
प्रणेता कीचकस्तस्य बलोत्सिक्तोऽभवन्पुरा। | 4-32-38a 4-32-38b 4-32-38c |
तस्मिन्विनिहते राजन्हीनदर्पो निराश्रयः। | 4-32-39a 4-32-39b |
तत्र यात्रा मम मता यदि ते रोचतेऽनघ। | 4-32-40a 4-32-40b |
एतत्कार्यमहं मन्ये परमात्ययिकं महत्। | 4-32-41a 4-32-41b |
आददामोऽस्य रत्नानि विविधानि वसूनि च। | 4-32-42a 4-32-42b |
अथवा गोसहस्राणि बहूनि शुभदर्शन। | 4-32-43a 4-32-43b |
कौरवैः सह संगमय त्रिगर्तैश्च विशांपते। | 4-32-44a 4-32-44b |
सन्धिं वा तेन कृत्वा तु निबध्नीमोऽस्य पौरुषम्। | 4-32-45a 4-32-45b |
तं वशे न्यायतः कृत्वा सुखं वत्स्यामहे वयम्। | 4-32-46a 4-32-46b |
वैशंपायन उवाच। | 4-32-47x |
तच्छ्रुत्वा वचनं तस्य कर्णो राजानमब्रवीत् ।। 47 ।। | 4-32-47a |
सूक्तं सुशर्मणा वाक्यं प्राप्तकालमिदं वचः। | 4-32-48a 4-32-48b |
यदेतत्तेऽभिरुचितं मम चैतद्धि रोचते। | 4-32-49a 4-32-49b |
प्रज्ञावान्कुलवृद्धश्च सर्वेषां नः पितामहः। | 4-32-50a 4-32-50b |
मन्यन्ते ते यथा सर्वे तथा यात्रा विधीयताम्। | 4-32-51a 4-32-51b |
किंनु नः पाण्डवैः कार्यं हीनार्थबलपौरुषैः। | 4-32-52a 4-32-52b |
तद्भवांश्चतुरङ्गेण बलेन महता वृतः। | 4-32-53a 4-32-53b 4-32-53c |
वैशंपायन उवाच। | 4-32-54x |
ततो दुर्योधनो राजा वचः श्रुत्वा तु तस्य तत्। | 4-32-54a 4-32-54b 4-32-54c |
दुर्योधन उवाच। | 4-32-55x |
सह वृद्धैस्तु संमन्त्र्य क्षिप्रं योजय वाहिनीम्। | 4-32-55a 4-32-55b |
सुशर्मा तु यथोद्दिष्टं देशं यातु महारथः। | 4-32-56a 4-32-56b 4-32-56c |
जघन्यतो वयं तत्र यास्यामो दिवसान्तरे। | 4-32-57a 4-32-57b |
सुशर्मणा गृहीते तु मत्स्यराजस्य गोधने। | 4-32-58a 4-32-58b |
अपरं दिवसं गास्तु तत्र गृह्णन्तु कौरवाः। | 4-32-59a 4-32-59b |
तथा गत्वा यथोद्देशं विराटनगरान्तिके। | 4-32-60a 4-32-60b |
गवां शतसहस्राणि श्रीमन्ति गुणवन्ति च। | 4-32-61a 4-32-61b |
वैशंपायन उवाच। | 4-32-62x |
ते स्म गत्वा यथोद्दिष्टं देशं मत्स्यमहीपतेः। | 4-32-62a 4-32-62b 4-32-62c |
आदत्त गाः सुशर्माऽथ कृष्णपक्षस्य चाष्टमीम् ।। 63 ।। | 4-32-63a |
अपरे दिवसे सर्वे राजन्संभूय कौरवाः। | 4-32-64a 4-32-64b 4-32-64c |
।। इति श्रीमन्महाभारते विराटपर्वणि |
4-32-31 तस्मादनन्तरेणापि लाभोऽस्माकमिति धo पाठः। तस्मात् गोग्रहणात अनन्तरेण युद्धायागतपाण्डवदर्शनेन ।। 31 ।। 4-32-32 युधिष्ठिरभृतः युधिष्ठिरो भृतो येन विराटेनेति बहुव्रीहिः ।। 32 ।। 4-32-63 कृष्णपक्षस्य सप्तमीमिति अष्टभ्यां तेऽन्यगृह्णन्तेति चo थo पाठः ।। 63 ।। 4-32- 64 विषयान्तरे उत्तरभागे ।। 64 ।।
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