महाभारतम्-04-विराटपर्व-020
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महाभारतस्य पर्वाणि |
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विराटेन कीचकस्य दण्डाप्रयोगाद्रुष्ट्या द्रौपद्या तंप्रत्युपालम्भनम् ।। 1 ।।
युधिष्ठिरेण द्रौपद्याः सान्त्वनम् ।। 2 ।।
द्रौपद्याऽज्ञानादिव स्वशोकहेतुं पृच्छन्तीं सुदेष्णांप्रति गन्धर्वैः कीचकवधस्य भावित्वकथनम् ।। 3 ।।
वैशंपायन उवाच। | 4-20-1x |
एवं विलपमानायां पाञ्चाल्यां मत्स्यपुङ्गवः। | 4-20-1a 4-20-1b 4-20-1c |
कीचकं मत्स्यराजेन कृतागसमनिन्दिता। | 4-20-2a 4-20-2b |
पाञ्चालराजस्य सुता दृष्ट्वा सुरसुतोपमा। | 4-20-3a 4-20-3b 4-20-3c |
संप्रेक्ष्य च वरारोहा सर्वांस्तत्र सभासदः। | 4-20-4a 4-20-4b 4-20-4c |
न राजन्राजवत्किंचित्समाचरसि कीचके। | 4-20-5a 4-20-5b |
न कीचकः स्वधर्मस्थो न च मत्स्यः कथंचन। | 4-20-6a 4-20-6b |
न धर्मं कीचको वेत्ति राजभृत्यास्तथैव च। | 4-20-7a 4-20-7b |
नोपालभे त्वां नृपते विराटं नृपसंसदि। | 4-20-8a 4-20-8b |
सभासदस्तु पश्यन्तु कीचकं धर्मलङ्घिनम्। | 4-20-9a 4-20-9b |
न साम फलते दुष्टे दुष्टे दण्डः प्रयुज्यते ।। 10 ।। | 4-20-10a |
अदण्ड्यान्दण्डयन्राजा दण्ड्यांश्चैवाप्यदण्डयन्। | 4-20-11a 4-20-11b |
दीनान्धकृपणाशक्तपङ्गुकुब्जजडादिकान्। | 4-20-12a 4-20-12b 4-20-12c |
अनाथानां च नाथः स्यादपितॄणां पिता नृपः । | 4-20-13a 4-20-13b 4-20-13c |
विशेषतः परैर्दुष्टैः परामृष्टं नरोत्तमः। | 4-20-14a 4-20-14b |
त्वद्गृहावसतिं राजन्नेतावत्कालपर्ययम्। | 4-20-15a 4-20-15b |
विराट उवाच। | 4-20-16x |
परोक्षं नाभिजानामि विग्रहं युवयोरहम्। | 4-20-16a 4-20-16b |
द्रौपद्युवाच। | 4-20-17x |
येषां न वैरी स्वपिति पदा भूमिमुपस्पृशन्। | 4-20-17a 4-20-17b |
ये च दद्युर्न याचेयुर्ब्रह्मण्याः सत्यवादिनः। | 4-20-18a 4-20-18b 4-20-18c |
तेजस्विनस्तथा क्षान्ता बलवन्तश्च मानिनः। | 4-20-19a 4-20-19b 4-20-19c |
सर्वलोकमिमं हन्युर्यदि क्रुद्धा महाबलाः। | 4-20-20a 4-20-20b |
येषां नास्ति समः कश्चिद्वीर्ये सत्ये बले दमे। | 4-20-21a 4-20-21b |
येषां न सदृशः कश्चिद्धनाद्यैर्भुवि मानवः। | 4-20-22a 4-20-22b |
तवाग्रतो विशेषेण प्रजानां च हितैषिणः। | 4-20-23a 4-20-23b |
शरणं ये प्रपन्नानां भवन्ति शरणार्थिनाम्। | 4-20-24a 4-20-24b |
कथं ते सूतपुत्रेण वध्यमानां प्रियां सतीम्। | 4-20-25a 4-20-25b |
क्वनु तेषाममर्षश्च वीर्यं तेषां च तद्बलम्। | 4-20-26a 4-20-26b |
मयाऽपि शक्यं किं कर्तुं विराटे धर्मदूषणे। | 4-20-27a 4-20-27b |
धर्मो विद्धो ह्यधर्मेण सभां यत्रोपतिष्ठति। | 4-20-28a 4-20-28b |
यत्र धर्मो ह्यधर्मेम सत्यं यत्रानृतेन च। | 4-20-29a 4-20-29b |
वैशंपायन उवाच। | 4-20-30x |
तस्यास्तत्कृपणं श्रुत्वा सैरन्ध्र्याः परिदेवितम्। | 4-20-30a 4-20-30b 4-20-30c |
केचित्कृष्णां प्रशंसन्ति केचिन्निन्दन्ति कीचकम्। | 4-20-31a 4-20-31b |
सभ्या ऊचुः । | 4-20-32x |
यस्येयं चारुसर्वाङ्गी भार्या स्यादायतेक्षणा। | 4-20-32a 4-20-32b |
यस्या गात्रं शुभं पीनं मुखं जयति पङ्कजम्। | 4-20-33a 4-20-33b |
द्वात्रिंशद्दशना यस्याः श्वेता मांसनिबन्धनाः। | 4-20-34a 4-20-34b |
पद्मं चक्रं ध्वजं शङ्खं प्रासादो मकरस्तथा। | 4-20-35a 4-20-35b |
आवर्ताः खलु चत्वारः सर्वे चैव प्रदक्षिणाः । | 4-20-36a 4-20-36b |
अच्छिद्रहस्तपादा च अच्छिद्रदशना च या। | 4-20-37a 4-20-37b |
सेयं लक्षणसंपन्ना पूर्णचन्द्रनिभानना। | 4-20-38a 4-20-38b |
देवदेवीव सुभगा शक्रदेवीव शोभना। | 4-20-39a 4-20-39b |
इति स्मापूजसंस्तत्र कृष्णां प्रेक्ष्य सभासदः ।। 40 ।। | 4-20-40a |
सा विनिःश्वस्य सुश्रोणी भूमावन्तर्मुखी स्थिता। | 4-20-41a 4-20-41b |
युधिष्ठिरस्य कोपात्तु ललाटे स्वेद आस्रवत्। | 4-20-42a 4-20-42b 4-20-42c |
गच्छ सैरन्ध्रि मा भैस्त्वं सुदेष्णाया निवेशनम् । | 4-20-43a 4-20-43b 4-20-43c |
भर्तारमनुरुन्धन्त्यः क्लिश्यन्ते वीरपत्नयः। | 4-20-44a 4-20-44b |
मन्ये न कालः क्रोधस्य पश्यन्ति पतयस्तव। | 4-20-45a 4-20-45b |
श्रूयन्तां ते सुकेशान्ते मोक्षधर्माश्रयाः कथाः। | 4-20-46a 4-20-46b |
नास्ति यज्ञः स्त्रियाः कश्चिन्न श्राद्धं नाप्युपोषणम्। | 4-20-47a 4-20-47b |
पिता रक्षति कौमारे भर्ता रक्षति यौवने। | 4-20-48a 4-20-48b |
भीरु भर्तृभयात्पत्न्यो न क्रुध्यन्ति कदाचन। | 4-20-49a 4-20-49b 4-20-49c |
न क्रोधकालं नियतं पश्यन्ति पतयस्तव। | 4-20-50a 4-20-50b 4-20-50c |
यदि ते समयः कश्चित्कृतो ह्यायतलोचने। | 4-20-51a 4-20-51b |
क्षमा धर्मः क्षमा सत्यं क्षमा दानं क्षमा तपः। | 4-20-52a 4-20-52b |
द्व्यंशिनो द्वादशाङ्गस्य चतुर्विंशतिपर्वणः। | 4-20-53a 4-20-53b |
गच्छ सैरन्ध्रि गन्धर्वाः करिष्यन्ति तव प्रियम्। | 4-20-54a 4-20-54b |
इत्येवमुक्ते तिष्ठन्तीं पुनरेवाह धर्मराट्। | 4-20-55a 4-20-55b |
तस्मात्त्वमपि सुश्रोणि शैलूषीव विभासि नः। | 4-20-56a 4-20-56b |
सत्यमुक्तं त्वया विद्वञ्शैलूषीं विद्धि मां पुनः। | 4-20-57a 4-20-57b |
एवमुक्त्वा वरारोहा परिमृज्याननं शुभम्। | 4-20-58a 4-20-58b |
पांसुकुण्ठितसर्वाङ्गी गजराजवधूरिव। | 4-20-59a 4-20-59b |
विमुक्ता मृगशावाक्षी निरन्तरपयोधरा। | 4-20-60a 4-20-60b |
यस्यार्थे पाण्डवेयास्तु त्यजेयुरपि जीवितम्। | 4-20-61a 4-20-61b 4-20-61c |
सा प्रविश्य प्रवेपन्ती सुदेष्णाया निवेशनम्। | 4-20-62a 4-20-62b |
तामुवाच विराटस्य महिषी शाठ्यमास्थिता। | 4-20-63a 4-20-63b |
रुदन्त्या अवमृष्टास्रं पूर्णेन्दुसमवर्चसम्। | 4-20-64a 4-20-64b 4-20-64c |
कस्त्वाऽवधीद्वरारोहे कस्माद्रोदिषि शोभने। | 4-20-65a 4-20-65b |
कस्याद्य राजा कुपितो वधमाज्ञापयिष्यति। | 4-20-66a 4-20-66b |
वैशंपायन उवाच। | 4-20-67x |
तां निःश्वस्याब्रवीत्कृष्णा जानन्ती नाम पृच्छसि। | 4-20-67a 4-20-67b |
कीचको माऽवधीत्तत्र सुराहारीमितोगताम्। | 4-20-68a 4-20-68b |
सुदेष्णोवाच। | 4-20-69x |
घातयामि सुदन्तोष्ठि कीचकं यदि मन्यसे। | 4-20-69a 4-20-69b 4-20-69c |
द्रौपद्युवाच। | 4-20-70x |
अद्यैव तं हनिष्यन्ति येषामागस्करो हि सः। | 4-20-70a 4-20-70b |
भ्रातुः प्रयच्छ त्वरिता जीवच्छ्राद्धं त्वमद्य वै। | 4-20-71a 4-20-71b |
तेषां हि मम भर्तॄणां पञ्चानां धर्मचारिणाम्। | 4-20-72a 4-20-72b |
निर्मनुष्यमिमं लोकं कुर्यात्क्रुद्धो निशामिमाम्। | 4-20-73a 4-20-73b |
नूनं ज्ञास्यति यावद्वै ममैतत्पादघातनम्। | 4-20-74a 4-20-74b 4-20-74c |
अपि चैतत्पुरा प्रोक्तं निपुणैर्मनुजोत्तमैः। | 4-20-75a 4-20-75b 4-20-75c |
वैशंपायन उवाच। | 4-20-76x |
सुदेष्णामेवमुक्त्वा तु सैरन्ध्री दुःखमोहिता। | 4-20-76a 4-20-76b |
अभ्यर्थिता च नारीभिर्मानिता च सुदेष्णया। | 4-20-77a 4-20-77b 4-20-77c |
तां तथा शोकसन्तप्तां दृष्ट्वा प्ररुदितां स्त्रियः। | 4-20-78a 4-20-78b |
।। इति श्रीमन्महाभारते विराटपर्वणि |
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