सं. पु. 90 विषयावच्छिनं फलम् - विवरण. 198 पुट. 126 विष्णवे शिपिविष्टाय – तै. सं. विष्णोरिच्छावशत्वात्तु – ? 3-4-1 292 351 विहाय जीर्णान्यन्यनि- गीता • C7 2 1 2 2 2-22 1 198 22 263 वृक्षस्य स्वगतो भेदः - पञ्चदणी. 2-15 वैधर्म्याच्च न स्वप्नादिवत्-त्र. मू. 2-2-29 वैशेष्यात्तु तद्वादः - - ब्र. सु. 2-4-22 बैषम्यनैर्घृण्ये – ब्र. सू. 2-1-34 व्याप्तिपक्षधर्मते बलम् - (न्याय-भा,) व्रीहनिवहन्ति - आ. श्री. - 1-19 व्रीहीन्प्रोक्षति - आ. श्री. सु. 1-19? वेदविदो विदित्वा — श्वे. 1-7 वेदानदधीत्य – मनु. 3-2 वेदान्तविज्ञान - मुण्ड. 3-2-6 1
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201 2 1 281 2 198 1 478 1 488 1 449 2 350 1 1 1 1 1 352 वेदं कृत्वा ? 232 (श) 163 शक्यादन्येन ( स्वार्थादन्येन) रूपेण - ? -225 शङ्का चदनुमास्यंत्र - न्या. कु. 3-77 (श्लो) शब्दज्ञानानुपाती यां. सू. 1-9 47 473
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267 1 3 88 2 112 1 386 1 3 शब्दव्यापार (श्रोतृव्यापार) नानात्वं–तन्त्रा. शब्दाश्रयत्वादिना -? शरमयं बर्हिः - ? शरीरवा मनोभिर्यत् - गीता. 18-15 शरीरस्थोऽपि कौन्तेय - गीता. 13-31 शरीराजन्यत्वे व्यर्थविशेषणत्वम्-ई. बाद मणि. 19 पु. 444 शाक्मना शाकः -ऋ. सं. 8-1-17 ... 20 177 पु. शारीरश्चोभयेऽपि हि - ब्र. सू. 1-2-20