पृष्ठम्:स्वराज्य सिद्धि.djvu/९५

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प्रकरणं १ श्लो० 46


किये जाते हैं । इसलिये परार्थता की अवधि श्रात्मा ही है। (अवधीरि तैतराथ्र्य:) आत्मा में परार्थता निरस्त है अर्थात् आत्मा के अर्थ सर्व हैं परन्तु आत्मा किसीके भी अर्थ नहीं है। इसलिये (स अंतरात्मा ) मैं हूँ, मैं हूँ इस प्रकार सदा प्रसिद्ध समवेके अन्तर सर्वका अधिष्ठान श्रात्मा ( खलु ) निश्चय ही (सुखाब्धिः ) सुख समुद्र है अर्थात् अपरिच्छिन्न सुख स्वरूप है, (विज्ञेयः) इस प्रकार जानने योग्य है।॥४५॥

श्रब श्रसंग सचिदानन्द श्रात्मा को कर्तृत्वादिक श्रध्यास से है, इस अर्थ को बताते हैं

शुद्धोऽसावह मिदमित्युपाधिधर्मानध्यासादभि

मनुते परस्परेण । वृद्धयादीनिव सलिल प्रभेद

धर्मान् ब्रध्नेम्बुप्रतिफलिते मृषेव मोहात् ॥४६॥

जैसे चंचलता आदि जल के विभिन्न, धमों के प्रवि वेक से पुरुष सूर्य के प्रतिबिंब में मानता है ऐसे शुद्ध श्रात्मा उपाधि धर्मो को मिथ्या ही अपने मोह वश अन्योन्य तादात्म्याध्यास से अंगीकार करता है ॥४६॥ (शुद्धः असौ ) यह शुद्ध आत्मा (उपाधि धर्मान्) देह इन्द्रिय अन्त:करण रूप उपाधि के कतृत्व आदिक धर्म की (मृषैव अभिमनुते ) मिथ्या ही अपने में अंगीकार करता है। (मोहात्) श्रपने स्वरूप के तथा उपाधि के स्वरूप के श्रज्ञान से अर्थात् अविवेकसे (परस्परेण श्रध्यासात्) अन्योऽन्य तादात्म्य अध्यास से अर्थात् आत्मा श्रौर उपाधि के परस्पर तादात्म्य