पृष्ठम्:स्वराज्य सिद्धि.djvu/९६

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स्वाराज्य सिद्धिः

श्राराप स उपाध क धमा का श्रात्मा अपने में मानता है। (सलिल प्रभेद् धर्मान् वृद्धयादीनिव) जैसे वृद्विह्वास चंचलत्वादि जलके विभिन्न धर्मो को (अंबुप्रति फलिते ब्रध्ने ) जलमें प्रतिबिं बित सूर्य में अविवेक से पुरुष मानता है।४६॥

अब अध्यास के कारण भूत अज्ञान की सिद्धि करते हैं

अज्ञोऽस्मीत्यनुभनादनाद्यबोधश्चिन्निष्टश्चिति

विषयस्तमो यथेन्दुम् । प्रच्छाद्य स्फुरति चितं

वितैव भूयो विक्षिप्य भ्रमयति हंत दुर्निरूपः ।४७

म श्रज्ञाना हूं एसा अज्ञान शुद्ध चतन्य क श्राश्रय में है और शुद्ध चैतन्य को ही विषय करता है। वह श्रजन्मा अज्ञान चैतन्य को ढांपकर चैतन्य से ही प्रसिद्ध होता है जैसे चंद्र को राहु ढांपकर स्वयं प्रसिद्ध होता है। फिर वह मिथ्चा ही जगत् को उत्पन्न करता है और भ्रम में डालता है । बड़ा खेद है ! वह अनिर्वचनीय है ।॥४७॥

(अज्ञोऽस्मि इति अनुभवनात्) मैं अज्ञानी हूँ, मैं कुछ नहीं जानता, इस प्रकार के अनुभव प्रमाण से जो अज्ञान सिद्ध है, वह अज्ञान (चिन्निष्ठः) शुद्ध चेतन आत्मा के आश्रय है (चिति विपय:) और शुद्ध चेतनको ही विषय करता है, इस पक्षको ही श्रज्ञान स्वाश्रय श्रार स्वावषय गृह मध्यस्थ श्रधर क ऋष्टात से विद्वान् वेदान्ताचायों ने कहा है । ( अनाद्य बोध: ) यह अनादि अर्थात् जन्म वा कारण शून्य अज्ञान (चितंप्रच्छाद्य ) चैतन्य को श्राच्छादन करके (चितैव स्फुरतेिं) फिर उस चैतन्य