पृष्ठम्:स्वराज्य सिद्धि.djvu/९४

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प्रकरणं १ श्लो० ३

स्वाराज्य सिद्धि पूर्वे दो श्लोकों से आत्मा की चिद् रूपता कही, अब आत्मा की श्रानन्द रूपता कहते हैं
प्रेयान्यः सदनधनात्मज प्रियादेर्यत प्रेम्णा प्रिय
मिति मन्यते परचः । पाराथ्यावधि रवधीरिते
तराथ्यों विज्ञेयः स्मखलु सुखाब्धिरन्तरात्मा ।४५
श्रात्मा गृह, धन, स्री, पुत्र आदि से भी अतिशय प्रिय है। बाहर के पदार्थों को प्रिय जानता है वह आत्मा के श्रर्थ है। कोई पदार्थ किसी अर्थ है कोई किसी अर्थ इस प्रकार सव पराथ ह । पूरन्तु श्रात्मा म पराथत्व का अवधि है वह सुखस्वरूप आन्तर आत्मा जानने के योग्य है ॥४५॥
(य: सदन धनात्मज प्रियादेः प्रेयान्) जो सर्व उपनिपत् शास्र प्रसिद्ध आत्मा है वह गृह, धन, पुत्र, स्त्री आदि सबसे अतिशय प्रिय है, क्योंकि गृह, धन पुत्रादिकों से पुरुष अपनी ही रक्षा करता है। (यत्प्रेम्णा) तथा जिस आत्मा के प्रेम से ही (पराचः) प्राप्त हुए धन, पुत्र, स्त्री, देह आदिक बाह्य पदार्थो को (प्रियमिति मन्यते) प्रिय रूपसे जानता है, क्योंकि अपने प्रति कूल सर्व ही धन, पुत्र, स्री, देह आदिक पदार्थो में द्वेप ही देखा गया है, इसलिये वह आत्मा सबसे ही अतिशय प्रिय है । (पारा अभ्यवधि:) कोई पदार्थ किसके लिये होता है, तो कोई पदार्थ किसके लिये होता है, इस प्रकार सब वस्तु परार्थत्व से युक्त है । परन्तु आत्मा के लिये यानी अपने लिये सब पदार्थ अंगीकार