पृष्ठम्:स्वराज्य सिद्धि.djvu/९३

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प्रकरणं १ श्लो० ३

जो इन्द्रिय समुदाय से बाहर के विषयों को प्रकाशता है, उन इन्द्रियों को बुद्धिवृत्ति से प्रकाशता है, बुद्धि को अंाभास से हमेशा प्रकाशता है और जो अपने से भिन्न बाहर भीतर इन्द्रियों से नहीं जाना जाता तथा जो शरीर के मध्य में प्रदीप के सदृश साक्षी है वह आत्मा जानने के योग्य है ॥४४॥
(असौ श्रात्मा विज्ञेयः) इस आत्मा को जानना चाहिये, ( यः करण गणेन) जो आत्माइन्द्रिय समुदायसे (बाह्यार्थान्) शरीर के बहिर होने वाले पदार्थो को अर्थात् जाग्रत के पदार्थो को (प्रथयति) प्रकाश करता है (च) और (तम्) उस इन्द्रिय गणको (बूद्धया) अन्तःकरण उपाधि से अर्थात् अन्तः करण की बुद्धि वृत्ति से प्रकाश करता है और (बुद्धिम्) उस बुद्धि को भी स्वभास स्वरूप चैतन्य से (संततम्) निरन्तर ही प्रकाश करता है और जो श्रात्मा इस प्रकार सबका प्रकाशक हुआ भी आप (पराग्भि: एभिः) स्वअधिष्ठान रूप चैतन्य से भिन्न बाह्य विषय को गमन करने वाला बाह्यातर इन्द्रया से (अनधिगतः) नहीं जाना जाता, (तनु भवनांतर प्रदीपः) वह शरीर रूप गृह के मध्य स्थित प्रदीप के सदृश साक्षी रूप से स्थित है।
शंका—जब श्रात्मा स्वयंप्रकाश स्वरूप ही है तो वहविज्ञेय कैसे हो सकता है? क्योंकि जड़ पदार्थ ही विज्ञान का विषय होता है।
समाधान-वह आत्मा स्वयं प्रकाश होने से भिन्नता से श्रविज्ञेय है, इस प्रकार जानना ही आत्मा का ज्ञान है।॥४४॥