पृष्ठम्:स्वराज्य सिद्धि.djvu/९२

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प्रकरणं १ श्लो० ३

स्वाराज्य सिद्धिः सूर्य, चन्द्र, आमि, वाणी स्वप प्रकाश की निवृत्ति होने पर और इन्द्रियों के शान्त होने पर भी श्रुतियों ने स्वपन में सर्वान्तर आत्मा का कथन किया है । वह संग रहित स्वयं प्रकाश है, वासना के अर्थ स्वप्न को प्रकट करने वाला है और चैतन्यस्वरूप है ॥४३॥
(रविशशिवहि वाक् प्रकाशे संशान्ते) सूर्य, चन्द्रमा, अग्नि और वाणी रूप ज्योति के प्रकाश के सम्यक् निवृत्त होने पर तथा (करण गणे निर्वाणे) इन्द्रिय समुदाय के शान्त होने पर अर्थात् निवृत्त होने पर स्वप्न में (श्रुतिभि:) श्रुतिश्रों ने ( अन्तरात्मा उदीरितः) सर्वान्तर आत्मा का कथन किया है। वह कैसा है ? (निरस्त संग:) सुप्त शरीर, इन्द्रिय आदि श्रमात्मा के साथ तादात्म्य से रहित है तथा ( स्वज्यातः ) स्वय प्रकाश है अर्थात् स्वप्न में भौतिक ज्योतियों के प्रकाश के विना स्वरूप भूत प्रकाश में ही आत्मा सर्व व्यवहार करता है, (प्रकटित वासनामयार्थः) वह इन्द्रजाल के सदृश मन के व्यक्त भांव को प्राप्त हुए परिणाम रूप मिथ्या देह इन्द्रिय और विषय रूप अर्थ वाला तथा (चिद्धातुः) चेतन स्वरूप होने से ही [ धीयते श्रारो प्यते सर्वमस्मिन्, इस व्युत्पत्ति से सर्व मिथ्या का अधिष्ठान है ] द्रव्यादि रूप वह अन्य किसी धातु रूप नहीं है।४३॥
जाग्रत श्रवस्था में आत्मा का विवेक दिखाते हैं
वाह्यार्थान् करणगणेन तं च बुद्धया बुद्धिं यः
ऽथति संततं स्वभासा । आत्मा सावनधिगत
पराभिः रेभिर्विं ज्ञेयस्तनु भवनान्तर प्रदीपः ४४॥