पृष्ठम्:स्वराज्य सिद्धि.djvu/९१

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इच्छादिकं की उत्पाति और विनाश की धारां का, इन्द्रियों का, प्राणका, मनंका और बुद्धि वृतिका आवि नाशीं ज्ञान स्वरूप दृष्टा उनसे भिन्न है और वह तनिों शरीरों में असंग बिचरता है ।॥४२॥
( तंस्मात् ) जड़ अनात्मा होने से श्रात्मा उन पदार्थो से भिन्न है तथा (इच्छादेः उद्यविनाश संततीनाम्) इच्छा. क्रोध, लोभ, प्रेम, भय आदि की उत्पत्ति और विनाश धाराओं का, ( अक्षाणाम्) इन्द्रियों का, ( असुमनसाम्) प्राणों का, मन का (च) तथा ( धियः) बुद्धि वृत्तिका (अपरिलुप्तट्टक) अविनाशी ज्ञान स्वरूप (द्रष्टा ) साक्षी आत्मा (अन्य: ) उन इच्छादि से भिन्न (अस्ति ) है । वह आत्मा कैसा है ? ( यः) जा श्रुति स्मृति प्रसिद्ध अपना स्वरूप भूत आत्मा (पुरत्रये ) तीनों शारीरों में अर्थात् तीनों ही अवस्थाओों में (नि:संग:) असंग, उदासीन और साक्षीरूप (विहरति) विचरता है।४२॥
श्रुतियों में द्रष्ट श्रोता मंता श्रादिक प्रयोगों से झात्मा ज्ञान वाला प्रतीत होता है, जड़ नहीं, परंतु वह ज्ञान झात्मा का गुण नहीं है, किन्तु ज्ञान स्वरूप ही आत्मा है यह अर्थ अब दिखाते हैं
संशांते रवि शशि वह्नि वाक् प्रकाशे निर्वाणे
करणगणे निरस्त संगः । स्वज्योतिः प्रकटित
वासनामयार्थश्चिद्धातुः श्रुतिभिरु दीरितोऽन्त
रात्मा ॥४३॥