• • • • • • • • • • • • • • • • • • • • • • • प्रकरण १ श्लो० ३८ • • • • • • • • • • • • • • • • • • • • • • • • • • • • • • • • • • • • • • • • • ७५ • • • • • • • • • • • • • • • • • • नियम है अर्थात् गुणों को त्याग कर गुण देशांतर मैं नहीं जा सकता इस कारण से सारे शरीर को चेतन रूप ज्ञान गुण भी व्याप्त नहीं कर सकता, अत: सर्व शरीर में शैत्यता का अनुभव नहीं हो सकेगा । (वा) किंवा (श्रात्मन श्राणवम्) आत्मा का अणु परिमाण (ते) तुझको (केन ) किस प्रमाण से (सिद्धम्) सिद्ध है ? ‘वालाग्रशत भागस्य’ इत्यादिक (श्रुतिभिरिति न) श्रुतिओं से ही हमको आत्मा की अणु परिमाणता विदित है यह नहीं कह सकते (यत्) क्योंकि (ता ) वह (वालाग्र) इत्यादिक श्रुतियां (तदानन्त्यनिष्ठा: ) उस आत्मा की अपरिच्छिन्नता में तात्पर्य वाली हैं। अर्थ यह है कि परस्पर विरुद्ध जो अनेक आत्म पारमारण को प्रतिपादन करने वाली श्रुतियां हैं वे उपाधि की नाना रूपता को लेकर ही चरितार्थ हैं । वालाग्र भाग की श्रति तो आत्मा की दुर्विज्ञेयता को निर्दिष्ट करती है, अन्यथा ‘महतो महियान्' इत्यादि श्रुति का विरोध होगा ॥३७॥ अब भाट्ट मत का दोष दिखाते हैं नेकः स्याविजडात्मा कथमथ विषय: सरस्वयं स्वस्य को तावंशो योगस्तथात्मा किमिति च जडता केन वा चेतनस्य । कतृत्वं तस्य की दृक देवप्रिय पशुभिरिदं कर्मठे दुनिरूपम् ।।३८।। आत्मा एक होते हुए जड़ और चैतन्य नहीं हो सकेगा क्योंकि फिर वह अपना विषय श्राप कैसे करेगा ? उसके
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