पृष्ठम्:स्वराज्य सिद्धि.djvu/८१

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प्रकरणं १ श्लो० 37

कारण भी विज्ञान से श्रात्मा पृथक है । (तनुरथे ) शरीर रूपी रथ में (तस्य ) ‘बुद्धिं तु सारथिंविद्धि' इस कठ श्रुति ने विज्ञान को (यदपि सारथ्यं क्लप्तम्) जो सारथीपना कल्पना किया है वह भी बुद्धि और आत्मा के भेदको ही बतलाता है । (तस्मात्) इसलिये (श्रस्य ) इस अनात्म.भूत विज्ञान का (साक्षी) उदा सीन होकर जानने वाला (तदुपहित तनुः ) विज्ञाननैक उपहित स्वरूप और वास्तव में (चिन्मय: ) कवल चवतन्न स्वरूप (श्रतः ) सबके अंतरविज्ञानादिकोंका आधिष्ठानरूप (श्रात्मा अस्ति) सचिदा नन्द स्वरूप व्यापक श्रात्मा उस विज्ञानादिकों से भिन्न है ।॥३६॥

श्रब शरीर में व्यापक ज्ञानगुणवाला तथा अणु , परिमाण श्रात्मा है, इस पंचरात्रादिकों के मत का निरास करते हैं ।

प्रणवात्मा चित्स्वरूपो यदि सकलतनो शैत्य
बोधो न ते स्यात् नार्वेधम्र्येऽस्य बोधः:सकल
तनु गत ग्राहकोऽन्यो गुणश्च । वैधम्र्येऽणोगु
णश्चित्कथमखिल तनुव्याप्नुयादाणवं वा
सिद्ध केनात्मनस्ते श्रुतिभिरिति नयत्तास्तदा
नन्त्यनिष्ठा ॥३७॥
तुम्हारे मत में चेतन स्वरूप श्रणु परिणाम वाला आत्मा है तो तुमको सब शरीरमें शीतलता का ज्ञान नहीं होगा । गुण गुणी के विरुद्ध धर्म के अभाव से सब देह में शातलता का प्रहण करन वाल इस श्रात्मा का ज्ञान गुण