पृष्ठम्:स्वराज्य सिद्धि.djvu/७९

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प्रकरणं १ श्लो० 36

को प्राप्त होता है। (तन्मयत्व श्रुतेः) तादात्म्य अध्यास से आत्मा को वेद् में मनोमय कहा हुआ होने से (जाग्रत्स्वप्न प्रशांतौ ) जाग्रत और स्वप्न न रहने पर अर्थात् सुषुप्ति में (कर णगणलये) इन्द्रिय रूप करण समुदाय के लय होने पर (तत्प्र शांते उस मन का भी लय हो जाने से तथा (सुषुप्त:) सुषुप्ति श्रवस्था से (उत्थाने) जाग्रत् अवस्था में (सुषुप्ति सौख्य स्मृति भिरपि) सुषुप्ति और सुषुप्ति में होने वाले सुख की स्मृति होने से भी (मानसं ) मन ( श्रात्मा न ) आत्मा नहीं (मितं ) यह निश्चय होता है। भाव यह है कि मनका सुषुप्ति में लय होजानेसे सुषुप्ति और सुषुप्ति के सुख का अनुभव करने वाला न होने से मन को आत्मा मानने वाले के मत में सुख और अज्ञान का स्मरण जाग कर नहीं होना चाहिये परन्तु होता है, इससे मन आत्मा नहीं है और उत्पत्ति आदिक आठों ही हेतु आत्मा में नहीं है, यह अर्थ श्रुति प्रमाणों से जान लेना चाहिये ॥३५॥

अब स्थिर विज्ञान ही आत्मा है इस मत का खंडन करते हैं

विज्ञानं स्थायि यत्तत्सममिह मनसा किंच
नानात्मता स्यात् तस्यानेकात्मकत्वात् तदभि
मतिवशादात्मबंधश्रुतेश्च । सारथ्यं तस्य क्लतृतं
यदपि तनुरथे स्वात्मनो भोगमुक्तयोस्तस्मा
दन्योऽस्यसाची तदुपहित तनुश्चिन्मयाऽस्त्य
तरात्मा ||३६||