पृष्ठम्:स्वराज्य सिद्धि.djvu/७८

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स्वाराज्य सिद्धिः

तेर्हेतुत्वाद्बंधमुक्त्योस्तदनुतनु भृतेस्तन्मयत्व
श्रुतेश्च । जाग्रत्स्वम प्रशांतो करण गरण लये
तत्प्रशांतेः सुषुतेरुत्थांने सुतिसौख्यस्मृतिभिरपि
मितं मानसं चापि नात्मा ।॥३५॥

उत्पन्न होने से, साधन होने से, अन्न का विकार होने से, बंध और मोक्ष का हेतु होने से, मन के अनुसार शरीर का ग्रहण होने से, तादात्म अध्यास से, सुषुप्ति में करण का लय होने पर मन का लय होने से श्रौर् सुषुप्ति से उठकर सुषुप्ति और सुख की स्मृति होने से मन आत्मा नहीं है, ऐसा निश्चय होता है ॥३५॥

(उद्भतेः) परमात्मा से मन की उत्पत्ति होने से तथा (साध नत्वात्) श्रवण आदिकों का करण होने से तथा (अशनमय तया ) ‘अन्नमयं हि मनः सोम्य' इस श्रुति में मनवको साक्षात् ही अन्न का विकार श्रवण होने से तथा श्रुति और अनुभव सें (शुद्धय शुद्धि प्रतीतेः) मनकी शुद्धि और अशुद्धि प्रतीत होनेसे अर्थात् कांम आदिकों के सहित होकर मन की अशुद्धि प्रतीत होने से और काम आदिकों से रंहित होने पर मन की शुद्धि प्रतीत होने से मन भी श्रात्मा नहीं है। वैसे ही (बंध मुक्तयोर्हेतुत्वात्) अशुद्ध मन बंध का कारण है और शुद्ध मन मुक्ति का कारण है, इस हेतु से भी मन आत्मा नहीं है और (तदनु तनुभृतेः) मन के प्रीछे ही शरीर का ग्रहण होने से भी मन आत्मा नहीं । अर्थ यह है कि मन जिस शरीर को ग्रहण करता है, जीव उसी शरीर