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लब्ध होती है । भावं यह है कि आत्मां . अंर्थात् बुद्धि
का परमात्मा में सुषुप्ति में लय होता है ऐसा श्रुति कथन
है। इनं सब हेतुओं से प्राण भी घटादि की तरह अनात्मा ही
है। वैसे ही (एतस्मिन्) इस प्राण के (संचरति अपि श्र
अंचल:) चलायमान होने पर भी मैं स्थिर हूँ (इति प्रत्ययात् )
इसं प्रतीति से भी प्राण अनात्मा है । ( स्वोत्क्रांतये) आत्मा
शरीर से अपने निर्गमन के लिये (श्रस्य ) इस वायु के विकार
रूप प्राणं का ( स्रष्टा ) उत्पादक है तथा (श्रामरणम्) मरण
पर्यन्त अर्थात् शारीर से प्राणों के वियोग पर्यन्त (श्रस्य धृतेः )
इस प्राण के धारण से ( जीवशब्दांभिधेय' ) श्रात्मा जीव शब्द
का वाच्य होता है अर्थात् जीव शब्दं से कहा जाता है। इन
उक्त हेतुश्रों से प्रात्मा (तस्मादन्योऽस्ति) उस प्रोण से भिन्न
है । श्रर्थ यह है कि जैसे रंथादिक पुरुषकी देशांतर गतिके साधन
होने से श्रपुरुष हैं, तैसे ही प्राण भी आत्मा की देशांतर गति के
साधन होने से अनात्मा ही हैं । श्रौर जैसे रथ के उत्पन्न करने
वाला और रक्षा करने वाला पुरुष रथ से भिन्न ही है, तैसे
श्रात्मा भी प्राएण का उत्पादक तथा रक्षक होने से प्राण से भिन्न
ही है । ( स्वनिलयम्) घोंसले रूप शरीर को (असुना) इस
प्राण द्वारा (रक्षन्) पालन करता हुश्रा (दीप्तिमान् ) स्वप्रकाश
स्वरूप (एकहंसः) एक ही श्रात्मा तीनों अवस्था में विचरता
है। इससे भी आत्मा प्राणों से पृथक् है। अर्थ यह है कि प्राण
जड़ होने से घट के समान तथा करण होने से रथ के समान
श्रन्नात्मा है ।॥३४॥
श्रब मन आत्मा है इस मत का निराकरण करते हैं
उद्भतेः साधनत्वादशनमयतया शुद्धयशुद्धि प्रती