पृष्ठम्:स्वराज्य सिद्धि.djvu/७६

विकिस्रोतः तः
एतत् पृष्ठम् अपरिष्कृतम् अस्ति
६८]
स्वाराज्य सिद्धिः


प्राणो नात्मा जड़त्वादशनसिततया वृत्ति लाभा
त्सुषुप्तावेतस्मिन् संचरत्यप्यहमचवल इति प्रत्य
यांदम्मयत्वात् । स्रष्टा स्वोत्क्रान्तयेस्या मरण
मपिधृतेजीवश्ब्दाभिधेयस्तस्मादन्योऽस्ति रचन्
स्वनिलयममुना दीतिमानेक हंसः ।।३४!!
खान पान से 'बंधे हुए अर्थात् स्थिति पाने वाले जड़ तथा जलमय होने से प्राण आत्मा नहीं है। सुषुप्ति में उसकी अधिक प्रवृत्ति होती है। उसे चलते हुए भी मैं स्थिर हूँ ऐसा भान होता है। यह शरीर से जाते हुए वायु के विकार रूप प्राण उसकै उत्पादक है और मरण पर्यन्त इस प्राण को धारण करने से श्रात्मा जीब कहलाता है । इसलिये श्रात्मा से यह भिन्न है । शरीर स्वस घोंसले को प्राण से पालन करने वाला स्वप्रकाश स्वप श्रद्वैत श्रात्मा इससे भिन्न है ॥३४॥
(प्राणः श्रात्मा न ) प्राण भी आत्मा नहीं है, क्योंकि ( जड़त्वात्) घटाटिकां की तरह प्राण भी जड़ है (श्रशनसित तया ) अन्न का भक्षण करने से प्राण बद्ध है अर्थात् प्राण की स्थितिं अन्न के अधीन है तथा (अम्मयत्वात्) प्राण को वेद में श्रापोमय लिखा है, इसलिये प्राण जल के अधीन है, तथा (सुषुप्तौ वृत्तिलाभात्) सुषुप्ति में प्राणों की श्रधिक प्रवृत्ति उप