पृष्ठम्:स्वराज्य सिद्धि.djvu/७५

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प्रकरणं १ श्लो० ३


विनाश होजाने से अंधे गंगे बहरे आदिकों का विनाश अर्थात् मरण अवश्य ही होजाना चाहिये ! एक २ इन्द्रियात्म पक्ष में और दोष है वह सुनिये । (दृष्टश्रुतानान्) देखे हुए और सुने हुए पदाथा का (उक्ति:) कथन लोक में प्रसिद्ध है अर्थात् पहले देखे वा सुने हुए पदार्थ का ही लोक स्मृति से कथन करते हैं, यह वातो सवत्र प्रसिद्ध है । यह कथन एक २ इन्द्रिय ही आत्मा हो तो (न घटते) संभव नहीं, क्योंकि नेत्र से देखा हुआ, कानों से सुना हुआ और त्वचा से स्पर्श किया हुआ अर्थ दर्शन, श्रवण और स्पर्श की सामथ्र्य से हीन वाणी से कहना कठिन है, क्योंकि अन्य अनुभूत पदार्थ का अन्य स्मरण कर कथन करते नहीं देखा, अन्यथा श्रति प्रसंग प्राप्त होगा । इन्द्रिय चक समुदाय का हा श्रात्मता मानन म और दोष भी है। ( संघोपि ) उक्त इन्द्रियों का समुदाय भी (न निरूप्यः) वह संघ संघियों से भिन्न है वा नहीं इत्यादि विकल्प करते हुए विचार करने से उसका ठीक निरूपण ही नहीं हो सकता, तथा स्वप्न में सर्व इन्द्रियों का अभाव होने से ( स्वप्न द्रष्टव न स्यान्) स्वप्न द्रष्टा का ही अभाव होगा क्योंकि इन्द्रियों से भिन्न श्रात्मा ही तुम्हारे मत में नहीं है, इस कारण स्वप्न का बोध ही तुम्हारे मत में नहीं होवेगा और इसी कारण जैसे मरण श्रवस्था की प्राप्ति का लोगों को भय है वैसे ही शयन श्रवस्था का प्राप्त का भा लागा का भय हा हागा; कन्याक ( मरणशयनयोनिविशेपात्) मरण अवस्था में तथा शयन अवस्था में इन्द्रियों का लय समान ही है। इस प्रकार इन्द्रियात्म वाद म. श्रनक दाप हान्न स इन्द्रया का श्रात्मा मान्ना श्रसंगत है ।॥३३॥
श्रब प्राण ही आत्मा है इस मत का नगकरण करते हैं