(एवम्) जैसे नैयायिकादिकों ने ईश्वर को केवल निमित्त
कारग्णता बतलाई है वैसे ही (हैरण्यगर्भाद्युदितमपि ) हिरण्य
गर्भ के उपासकों द्वारा कथन किया हुआ हिरण्यगर्भ ही जगत्
का केवल निमित्त कारण है यह मत भी (नादरार्हम्) आदर के
याग्य नहा हैं । ( यस्मात् ) क्योंकि (श्रुतिभिः) वेद् वचनों से
( कस्य ) ब्रह्मा का (प्रसूति: ) उत्पत्ति (श्रधिगता) निश्चय की
गई है और वैसे ही पुराणादिकों में (मितम्) द्विपरार्द्ध परिमित
( आयुश्चक्लमम् ) उसकी आयु निरूपण की गई है। भाव यह
है कि हिरण्यगर्भ स्वयं ही कार्य है, इसलिये वह जगत् का कारण
नहीं बन सकता । हिरण्यगर्भ ही कारण है ऐसे वचन तो हिरण्य
गर्भ की उपासना दृढ़ कराने के लिये हैं। और (यस्मात्) जिस
कारण से (ब्रह्मवाणी ) वेद् (अस्य ) इस कार्य ब्रह्मरूप हिर
ण्यगर्भ को (ज्ञानादियोगम् ) ज्ञान शक्ति आदिकों का संबंध
(ब्रह्मत: ) ईश्वर से (गमयति ) बोधन करता है। (तस्मात्)
इसलिये (श्रौतम्) वेद से जाना हुआ (एकम्) अद्वितीय
( माया शराबलितं ब्रह्मव ) श्रध्यस्त मायोपहित ब्रह्म ही ( निदा
नम्) जगन् का अभिन्न निमित्तोपादान कारण है।॥२८॥
अब चार्वाक श्रौर लोकायतिक नास्तिकों का देहात्मसिद्धांत
चार श्लोकों से खंडन करते हैं।
कश्चिदुःखी स्वजन्म प्रभृति सुखयुतश्चापरः कस्य
हेतोः कस्मादाद्या प्रवृत्तिस्तनुरपि च कुतः किं
न वेत्ति प्रमीतः | स्वाभाव्यं हेतु साम्ये सम
मितिविदितं दीप बीजांकुरादौ वैषम्यं कर्म जन्यं
यदि गदसि जनेः पूर्वमध्यात्म सिद्धिः ।२६॥
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स्वाराज्य सिद्धिः