पृष्ठम्:स्वराज्य सिद्धि.djvu/६५

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प्रकरण १ श्लो० २८

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होगा । यही न्याय प्रमातादिकों में भी जान लेना । (अथ ) उक्त दोष से अनंतर और दोष सुना, ( बध मादा व्यवस्था ) उत्तर प्रकार सर्वत्र प्राप्त होने से बंध माचक्ष की भी व्यवस्था नहीं होगी अर्थात् बंध मोक्ष को भी संशय रूपता ही होगी । ( ततः ) इस लिये (हे गतवसन) हे दिगंबर, अर्थात् लोक परलोक के व्यव हार निश्चयरूप वस्रों से रहित नाम मात्रके हे अवधूत, ( सर्वा नेकान्तवादः मत्तप्रलापः भाति ) यह तेरा सर्वानेकान्त वाद निरर्थक प्रलाप अर्थात् अनुपादेय प्रतीत होता है ॥२७॥
अब हिरण्यगर्भ के उपासकों का मत श्रुति प्रतिपादित है इस भ्रम को दूर करके उस मत का खंडन करते हैं
एवं हेरणय गभद्यदितमपि जगत्कारण नाद रार्ह यस्मात् कस्य प्रसूतिः श्रुतिभिरधिगता क्लतृप्तसमायुर्मितं च । अस्य ज्ञानादियोगं गमयति चव यतो ब्रह्मतो ब्रह्मबाणी तस्माद ब्रह्मव माया शबलितमुचितं श्रौतमेक निदानम् ।२८॥
हिरण्यगर्भ के उपासकों का हिरण्यगर्भ जगत् का कारण है, यह मत श्रादर के योग्य नहीं है, क्योंकि वेद वचनों से ब्रह्मा की उत्पत्ति कही है उसकी आयु का तथा श्रायुमान का भी कथन है। वेदवचन से हिरण्यगर्भ का ज्ञान श्रादि का योग ईश्वर से है, ऐसा कहा है । इससे वेदंगम्य एक माया शबल ब्रह्म ही जगत् का अभिन्न निमित्तोपादान कारण है यह मानना उचित है ॥२८॥