पृष्ठम्:स्वराज्य सिद्धि.djvu/६४

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स्वाराज्य सिद्धि

५६ ] स्वाराज्य सिद्धि वस्तु उसी श्राकार से नहीं है अथवा अन्य प्राकार से नहीं है । द्वितीय पक्ष में वस्तु के अन्य प्राकार का ही सद्भाव है और वस्तु को तो सत् एक रूपता ही प्राप्त होती है, क्योंकि दूर स्थित ग्राम की प्राप्ति न हुए भी ग्राम असत् नहीं होजाता क्योंकि यदि प्राप्य ही न होगा तो प्राप्ति का यत्न ही संभव नहीं होगा । इसलिये जिसका जैसा व्यवहार होता है वैसा वह प्रपंच एकरूप है ऐसा मानना ही योय है । तद्दां विरुद्ध धम के किसी प्रकार से एकत्र समावेश हुए भी धर्मो में भेद नहीं है।
(यदि) यदिसब वस्तु अनेकान्त ही ( भवति ) है तो ( साप्तविध्यंच ) सप्त विधता भी (तद्वन् भवेत् ) घटादिकों की तरह अनेकान्त ही होवेगी और ऐसे होने पर तेरा नियम भंग हो। जायगा । (च) और (जीवाजीवादय: अर्थाः) जीव अजीवा दिकअनेक पदार्थ भी (तथा) सप्त प्रकारके (किमिति न ) क्या नहीं होवेंगे ? और यदि इस बात को इष्ट करोगे तो (जगत् च) जगन् तथा शास्त्र (अव्यवस्थम्) व्यवस्था से रहित ( स्यात् ) हो जावेगा । अर्थात् यह जीव है यह अजीव है यह इष्ट है यह अनिष्ट है यह इष्ट का साधन है यह अनिष्ट का साधन है, यह शास्त्र हें, यह शास्र नहीं है|इस प्रकार की व्यवस्था का नियम सप्त भगी न्याय से भग हो जावेगा । इसलिये जीव श्रादि पदार्थों की जीवत्वादिरूप सप्त रूपता अस्ति और नास्ति इस प्रकार नियत हैं इस पक्ष का खंडन हुआ । अब सो अनियत हैं ऐसे यदि कहे तो इस द्वितीय पक्ष में पदार्थ का निश्चय ही नहीं होगा इस तात्पर्य से कहते हैं कि (ते) तुझे (अवधृतिः) स्व शास्त्रीय निश्चय भी (संदेहः स्यात्) संदेह रूप ही होगा, क्योंकि (विरोधान्) निश्चवय में भी उक्त सप्त प्रकारक न्याय प्राप्त होजाने से निश्चय भी विरुद्ध सप्त प्रकार में डूब जायगा । इस प्रकार इस अनेकांत वाद में प्रमाज्ञान .भी संशय रूप ही