पृष्ठम्:स्वराज्य सिद्धि.djvu/६१

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स्वाराज्य सिद्धिः


आस्तिकाय पांचं हैं जीवास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय, धर्मास्तिकार्य श्रधर्मास्तिकाय और श्राकाशास्तिकाय इनके मत में आस्तिकाय शब्द सांकेतिक पदार्थका वाचक है। चेतनरूप जीव ही जीवास्तिं काय कहा जाता है, तहाँ परमाणुओों के संघ रूप काया का नाम ही पुद्गल है (पूयन्ते, गलन्ति, यह पुद्गल शब्द की उत्पत्ति है) । सम्यक् प्रवृत्ति से अनुमेय धर्म है । ऊपरी देश गमन शील जीव की देह में स्थिति का हेतुं अधर्म कहा जाता है । श्रावरणं के अभावं का नाम श्राकाशं है । फिर इनके मतमें जीवास्तिकाय तीन प्रकार का है। कोई जीव नित्य मुक्त है, जैसे अर्हत आदिक, कोई सांप्रतिक मुक्त हैं और कोई बद्ध हैं। पुद्गलास्तिकाय छ: प्रकार का है। पृथिवी आदि चार भूत और एक स्थावर और एक जंगम यह छः पदार्थो की संख्या है और आकाशास्तिकाय दो प्रकार का है। एक संसारी जीवों का आश्रय लोकाकाश है। और दूसरा मुक्त जीवों का आश्रय अलोकाकाश है। बंधाख्य कर्म आठ प्रकार का है तहाँ चार तो घाति कर्म हैं और चार अघाति कर्म हैं । १ ज्ञानावरणीय, २ दर्शनावरणीय, ३ मोहनीय ४ श्रांतर्य (अंतराय) यह चारों घाति कर्म हैं । तत्त्वज्ञान से मोक्ष नहीं होता इस प्रकार के ज्ञान को ज्ञानावरणीय कर्म कहते हैं। अर्हत दर्शन (शास्त्र ) के श्रवण करने से मोक्ष नहीं होता, इस प्रकार के ज्ञान को दर्शनावरणीय कर्म कहते हैं। बहुत ही शास्त्रकारों के दिखलाये हुए मोक्ष मागों में से विशेष मार्ग निश्चय न करना, इसका नाम मोहनीय कर्म है। और मोक्ष मार्ग की प्रवृत्ति में विघ्न करने वाला कर्म प्रांतय’ (अंतराय) कर्म है । यह चारों कर्म श्रेय के घातक हैं, इसलिये घाति कर्म कहे जाते हैं, वेदनीय, नामिक, गोत्रिक और आयुष्यक, ये चारों श्रघाति कर्म हैं । मुझे तत्त्व जाना चाहिये, इस अभिमान का नाम वेदनीय •