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पृष्ठम्:स्वराज्य सिद्धि.djvu/२७२

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स्वाराज्य सिद्धिः

जिसने सब कमों का त्याग कर श्रुति सारांश स्वप श्रानंद को प्राप्त किया है, श्रद्वैत में चित्त को स्थापित करके जो सुखी हुआ है उसको धन्य है, वह अत्यंत कृत कृत्य है, सबको पूजनीय है और उसके कुल को भी धन्य है ॥४२॥

(संन्यस्य कर्म निगडम्) गमन के विघातक लोह श्रृंखला रूप कम का सम्यक् त्याग करके अर्थात् वासनाओं के तथा फल के सहित कम का त्याग करकें अनन्तर (श्रति सार सौख्ये) श्रुति सारांश सुख रूप (अभयात्मनि ) अद्वैत रूप होने खे अभय रूप आत्मा में (चित्त' विन्यस्य) स्व चित्त को स्थापन करके (य: निवृत:) जो सदा परमानंद रूप होकर स्थित होता है (स एव ) वही ब्रह्मवेत्ता जीवन्मुक्त मंगलमूर्ति महात्मा (धन्य:) श्लाघनीय है (कृतकृत्यतम:) वह संपूर्ण रूप से कृत कर्तव्य है अर्थात् कृतार्थ है तथा (समस्तमान्यः ) सर्व सुरासुर मनुष्यों से मान्य है अर्थात् पूज्य है (अस्य) इस ब्रह्मवेत्ता जीवन्मुक्त का (कुलं च धन्यधन्यम्) कुल अत्यन्त ही श्लाघनीय है क्योंकि उस ब्रह्मवेत्ता को अनायास से ही परम. सुख लाभ की योग्यता प्राप्त हुई है।॥४२॥

अब विद्वान् की विदेह मुक्ती को दिखलाया जाता है

एवं विहृत्य सुचिरं परिपूर्णकामः कारुण्य पूर

पतितोद्धरण प्रवीणः । प्रारब्ध शेष विगमे गत

सर्वशोकः स्वाराज्य स्तोख्ब जलधिर्निरुपाधि