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पृष्ठम्:स्वराज्य सिद्धि.djvu/२७३

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प्रकरण ३ श्लो० ४४ [ २६५ इस प्रकार बहुत समय तक विचरता हुश्रा, करुणा से भरा हुश्रा, पतितों के उद्धार करने में प्रवीण, पूर्णकाम ग्रारब्ध के शेष होने पर्यंत शेकरहित और उपाधिरहित स्वाराज्य के श्रानंद समुद्र में स्थिर होता है ॥४३॥ (पतितोद्धरण प्रवीणः) संसार सरित् प्रवाह निमग्न श्रज्ञानी जनों के उद्धार करने में श्रोत्रिय होने से परम चतुर (परिपूर्णकास:) तथा सव मनारथा की सिद्धि वाला ब्रह्मनिष्ठ ब्रह्मवेत्ता (एवं ) उक्त रीति से शुभ वाक्यों के गान पूर्वक (विहृत्य) बहुत काल पर्यन्त अज्ञ दृष्टि से विहरण करके (प्रारब्धशेषविगमे) निखिल प्रारब्ध कर्म के नाश होने पर (गतसर्व शोकः) अखिल दु:ख प्रतीति की निवृत्ति वाला होकर (निरुपाधिः) अज्ञजन कल्पित देह की निवृत्ति पूर्वक ( स्वाराज्य सौख्य जलधिः) स्वयं प्रकाश प्रानंद समुद्र मात्र होकर (आस्ते) स्थित होता है।॥४३॥ उस विदेहमुक्त महात्मा की पुनः िवकार शंका का अब निराकरण किया जाता है नोदेति नास्तमुपयाति न वृद्धिमेति नापि चयं च भजते निजतेजसेद्धः । पूर्णः सर्देव सहजेन सुखा मृतेननिलाञ्छनः स्फुरतिकोऽपि निजात्मचन्द्रः ४४ न वह उदय होता है, न श्रस्त होता है, न उसकी वृद्धि होती है और न क्षय होता है । अपत्र प्रकाश से ही प्रकाशित, सहज सुखामृत से सदा पूर्ण, लांछनरहित ऐसा