२४६ ] स्वाराज्य सिद्धि के कारण म चिदाकाश. में इस मिथ्या जगत् का दखता हुआ भी नहीं देखता ॥२७॥ (यथापूर्वम्) जैसे ज्ञान के पहिले (सहजं स्वयं भातं निज सुखं पश्यन्नपि माया परिकलितः दृष्टि: न परिपश्यामि ) स्वाभाविक स्वयं प्रकाश आत्मानन्द को देखता हुआ भी अर्थात् सर्वत्र प्रतीयमान आनन्द को अनुभव करता हुआ भी माया श्राच्छादित दृष्टि वाला होने से मैं उस उक्त लक्षण स्वात्मा को नहीं देखता था । अर्थात् यह वेतन आत्मा है इस प्रकार नहीं जानता था ( तथा इदानीं ) तथा इस वर्तमान कालमें (ज्ञानांजन विमल चतुः) ज्ञानरूप अंजन से निर्मल दृष्टि वाला होकर अब मैं (चिदाकाशे,) चिदाकाश में (वितथं इदं जगत् पश्यन् अपि) मिथ्या रूप इस जगत् को देखता हुआ भी (न परिपश्यामि ) सत्यरूप से नहीं देखता ॥२७॥ स्वात्मानुभव से जगत् तिरोहित होगयाः है इस भाव को कहता है न वेद्यो नावेयः स्वरसमति हृद्यः सुखघनो न गद्यो नापोयो न पुनरुपरोध्यः कथमपि । नहेयो नादेयो न न पुनरपिधेयः क्षणमहो स्फुरन्ना त्माऽस्माकं जगदिदमकस्मात् तिरयति ॥२८॥ स्फुरण होता हुआ हमारा आत्मा अहा ! अनायास ही इस जगत् को तिरोधान करता है, स्वभाव से ही परम त्रिय है आनंदवन है जाना जाय ऐसा भी नहीं और न
पृष्ठम्:स्वराज्य सिद्धि.djvu/२५४
दिखावट