प्रकरण ३ श्लो० २७ [ २४५ कारण सत्गुरु अमृत रूप है और शिष्य को मनवांछित निर्वेि वकल्पना को प्राप्त कर देता है इस कारण गुरु चिंतामणि हं । अथवा अमृत चिंता का देने वाला होने से गुरु को अमृत चिंतामणि कहा है । जैसे अमृत चिंतामणि की प्राप्ति आश्चर्ये जनक हें तेसे ही सत्गुरु की प्राप्ति भी आश्चर्य जनक ही है, है और न सत्गुरु ही मिलते हैं क्योंकि (यस्मात् यदीयाभिः गोभिः विशाद् मधुराभिः) क्योंकि उस गुरु रूप मणि के स्वच्छ ऋऔर प्रिय वाणुीरूप प्रभाओं से (वितिमिरे) अंहकार से शून्य तथा (स्वसंपूर्णे ) आत्मा से व्याप्त अर्थात् एकांत स्वमहिमा में स्थितू तथा ( निरवधि सुखे धामनि) सीमा रहित आनन्द रूप श्रथात् परमानन्दरूप स्व स्वरूप में ( रमे) मैं रमण करता श्रव स्वानुभूत अविद्या के फल को तथा विद्या के फल को विद्धान् गाता है यथा पूर्व' माया परिकलितदृष्टिर्निजसुखं स्वय भातं पश्यन्नपि न परि पश्यामि सहजम् । तथे दानीं ज्ञानांजनविमलचतुर्जगदिदं चिदाकाशे पश्यन्नपि न परिपश्यामि वितथम् ॥२७॥ ज्ञान से पहिले सहज स्वभाव से ही प्रकाशने वाले निज सुख स्वरूप आत्मा को माया से ढपी हुई दृष्टि से देखता नहीं था । इस समय ज्ञानांजन से निर्मल दृष्टि होने
पृष्ठम्:स्वराज्य सिद्धि.djvu/२५३
दिखावट