प्रकरण ३ श्लो० २८ . [ जाना जाय ऐसा भी नहीं है। कहने योग्य नहीं है और न कहने योग्य भी नहीं है, रोका जाय ऐसा नहीं है क्षण मात्र भी श्राच्छाद्य नहीं है, न ग्रहण योग्य है और न त्याग योग्य है ॥२८॥ अखण्डाकार वृत्ति से (स्फुरन्) साक्षात्कार किया हुआ ( अस्माकं श्रात्मा ) हमारा आत्मा ( अहो ) बड़ा आश्चर्य है कि (अकस्मात्) अनायास से शीघ्र ही (इदं जगत् तिरयति ) इस जगत् को तिरोधान करता है। वह आत्मा कॅस्सा हैं ? ( स्वरसम्) स्वभाव से ही (श्रति ऋद्यः) परम प्रिय है, (सुखघनः) सुख मूर्ति है अर्थात् सुखरूप है, (न वेद्यः) वेद्य नहीं है अद्वैत होने से आत्मा अज्ञेय है तथा (अवेद्यः न ) वह आत्मा अवेद्य भी नहीं है क्योंकि अपना स्वरूप है इसलिये नेनत्य प्रत्यक्ष है । (न गद्यः) गुण जाति क्रिया नाम संबंध से रहित होने से श्रात्मा वाणी से भी कहने योग्य नहीं है। (न श्रपोद्यः) अपना स्वरूप होने से ही वह आत्मा निषेध्य भी नहीं है, (उपरोध्यः न ) सर्वरूप होने से वह आत्मा निरोध्य भी नहीं है (न क्षणं अपि अपिधेयः) सर्व रूप होने से ही वह श्रात्मा क्षणमात्रभी श्राच्छाद्य नहीं है तथा (न हेयः न आदेय:) अपना स्वरूप होने से वह आत्मा न त्याज्य है और न ग्राह्य है ।॥२८॥! श्रनिर्वचनीय जगत् का ितरोधान भी अनिर्वचनीय ही है श्रब इस तात्पर्या से कहता है किमस्तं किं ध्वस्तं किमु विलुलितं किंनु गलितं विशीर्ण चागीर्ण ननु सपदि जीर्ण किमथवा । २४७
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