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पृष्ठम्:स्वराज्य सिद्धि.djvu/२३६

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२२८ ] स्वाराज्य सिद्धि योगी मोह बंधन को छोड़ता है ॥११॥ (संगं मुक्त्वा) ध्यान के विरोधी संग को त्याग करके ( सहिष्णुः ) सहन शील (शुचि हितमितभुक्) पवित्र रह कर शरीर को उपकारक तथा शास्त्र उक्त परिमाण से अन्न को ग्रहण करन वाला (योगशास्त्रार्थदर्श ) तथा योगशास्त्रार्थ कोविचारने वाला, (यम नियम दृढ़: ) अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य श्रऔर अपरिग्रह, यम तथा शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान, इन नियमों का दृढ़ता से पालन करने वाला (स्वासनस्थः) तथा स्वानुकूल किसी पद्म, सिद्ध आदि श्रासन में स्थित हो कर (प्रसन्नः) प्रसन्नता पूर्वक ( प्राणायामक्रमेण श्राहृत चपलमन:) योग शास्त्र उक्त प्राणायाम क्रम से विषयों से चंचल मन का निरोध करने वाला योगी (पुण्ये निर्दोषदेशे ) पवित्र पुण्य देनेवाले मशक आदि उपद्रव दोषसे शून्य ऐसेविजन देश में पहले ( स्थूले) स्थूल मूर्ति आदिकों में मन का निरोध कर अनंतर ( सूक्ष्मे) सूचम परमात्मा में मन का निरोध करके उस परमात्मा का ही (ध्यायन्) ध्यान करता हुआ तथा (एकात्म्य सौख्य स्थिर गलित मन:) एक आत्म सुख में ही मन को स्थित करके एकी भूत मन से (मोह बंधं छिनति) अज्ञान बंधन का नाश कर देता है।॥११॥ जिसने श्रात्मा का साक्षात्कार कर लिया है वह मरण पर्यंत समाधि में स्थिर रहे अथवा यथा प्रारब्ध विषय व्यवहार करे । इनसे विद्वान् की किसी प्रकार का लाभ वा हानि नहीं है, क्योंकि विद्वान् निर्दोष छऔर सम ब्रह्म रूप है। अब इस अर्थ को दिखलाया जाता है